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भारत को नहीं मिली एनएसजी की सदस्यता

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अथक प्रयास और अमेरिका समेत ज्यादातर देशों के समर्थन के बावजूद एनएसजी (परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह) में भारत की एंट्री नहीं हो पाई। भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता विकास स्वरूप को कहना ही पड़ा कि ‘एक देश के अड़ियल रवैये’ की वजह से भारत की कोशिश नाकाम हो गई। कहने की जरूरत नहीं कि वो ‘अड़ियल देश’ हमारा पड़ोसी चीन है। बहरहाल, आज सियोल में एनएसजी की दो दिवसीय वार्षिक बैठक के बाद यह स्पष्ट हो गया कि भारत की सदस्यता के लिए नियमों में छूट नहीं दी जाएगी।

एनएसजी ने आज के अपने बयान में साफ तौर पर कहा कि एनपीटी (परमाणु अप्रसार संधि) अन्तर्राष्ट्रीय अप्रसार व्यवस्था की धुरी है और वह इसके पूर्ण और प्रभावी क्रियान्वयन का समर्थन करता है। हाँ, इस बैठक में इस बात पर सहमति जरूर बनी कि एनपीटी पर हस्ताक्षर नहीं करने वाले देशों को इस समूह में शामिल करने के मुद्दे पर बातचीत जारी रहेगी। बता दें कि भारत अपने राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए एनपीटी पर हस्ताक्षर किए बिना एनएसजी की सदस्यता चाहता है।

बहरहाल, चीन ने एनएसजी में भारत का रास्ता रोकने में केन्द्रीय भूमिका निभाई। भारतीय उपमहाद्वीप में अपना वर्चस्व बनाने के लिए चीन की हर संभव कोशिश रही है कि भारत को एनएसजी की सदस्यता नहीं मिले। इस संदर्भ में अपने भारतविरोधी अभियान के तहत निर्लज्ज चीन यहाँ तक कहता रहा है कि अगर भारत को एनएसजी की सदस्यता दी जाती है तो पाकिस्तान को भी सदस्यता मिले। जी हाँ, चीन ने उस पाकिस्तान की वकालत की जिसकी पहचान आतंकवाद को प्रश्रय और आतंकियों को आश्रय देने वाले देश के रूप में जगजाहिर हो चुकी है। हालांकि ये अलग बात है कि एनएसजी में पाकिस्तान की एंट्री को लेकर कोई चर्चा ही नहीं हुई।

भारत को एनएसजी की सदस्यता ना मिलना नि:संदेह निराशाजनक है लेकिन सम्भावनाओं के सारे द्वार बंद हो गए हों, ऐसा नहीं है। चीन, ब्राजील, ऑस्ट्रिया, न्यूजीलैंड, आयरलैंड और तुर्की जैसे कुछ देशों को छोड़ दें तो शेष देश आज कमोबेश भारत के पक्ष में खड़े दिख रहे हैं जिनमें अमेरिका, फ्रांस, जापान और मैक्सिको जैसे देश शामिल हैं। निश्चित रूप से इसे भारत की कूटनीतिक सफलता के रूप में देखा जाना चाहिए। हाल के वर्षों में भारत ने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी जैसी हैसियत बनाई है और एनएसजी की आज की बैठक के बाद जो माहौल बना है उसे देखते हुए भारत का रास्ता अधिक समय तक रोके रखना चीन के बूते में नहीं दिखता।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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‘अच्छे दिन’ जाएंगे बीत मोदीजी..! ‘भय’ बिन होगी ना ‘प्रीत’ मोदीजी..!!

अटल बिहारी वाजपेयी की ऐतिहासिक ‘सद्भावना यात्रा’ के 11 साल बाद एक बार फिर किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान की धरती पर कदम रखा लेकिन जिस तरह रखा उससे कई सवाल उठ खड़े हुए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी रूस का दौरा समाप्त कर कल सुबह काबुल (अफगानिस्तान) पहुँचे और फिर काबुल से ही दिल्ली लौटते समय उन्होंने अचानक पाकिस्तान का रुख कर लिया। बता दें कि मोदी की अफगानिस्तान यात्रा की भी कोई आधिकारिक जानकारी नहीं दी गई थी। पाकिस्तान का कार्यक्रम तो खैर कल्पनातीत था ही। गृहमंत्री राजनाथ सिंह के शब्दों में ये ‘इनोवेटिव डिप्लोमेसी’ है। लेकिन ये ‘इनोवेसन’ सवा सौ करोड़ भारतीयों से जुड़ा है इसीलिए इसकी पड़ताल होनी ही चाहिए।

उद्देश्य चाहे जो हो, वो बहुत पवित्र और बहुत बड़ा ही क्यों ना हो, एक प्रधानमंत्री का एकदम फिल्मी अंदाज में किसी देश की यात्रा करना हैरान करेगा। उसमें भी जब पाकिस्तान सामने हो तो ये हैरानी और बढ़ जाएगी। पाकिस्तान की अनगिनत वादाखिलाफियां, सीमा पर हर दिन नापाक हरकतें, क्रिकेट तक के संबंध मधुर ना हों और अतीत के युद्धों की परछाईयां अब भी पीछा कर रही हों तो भला हमारे प्रधानमंत्री की इस अप्रत्याशित यात्रा पर सवाल कैसे ना उठें..? देश क्यों ना पूछे कि ‘सद्भावना’ की यात्रा को ‘गोपनीय’ रखने की जरूरत क्यों आन पड़ी..? सार्वजनिक तौर पर भले स्वीकार ना करें लेकिन सच ये है कि उनके कट्टर प्रशंसकों और उनकी पार्टी तक को ये बात हजम नहीं होगी। उनकी सरकार में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज चाहे लाख कह लें लेकिन ये व्यवहार एक ‘स्टेट्समैन’ का तो हरगिज नहीं कहा जा सकता। वैसे राजनीति के गलियारों में कांग्रेस का ये आरोप भी चर्चा में है कि मोदी की ‘सद्भावना’ के मूल में एक व्यापारिक घराना था और ये यात्रा उसी को ‘फायदा’ पहुँचाने के लिए थी।

आजादी के बाद भारत की विदेश-नीति का ताना-बाना जवाहरलाल नेहरू ने बुना और उसे नया कलेवर देने में अटल बिहारी वाजपेयी ने बड़ी भूमिका निभाई। आज चीन से लेकर पाकिस्तान तक के साथ जिस ‘व्यावहारिक’ विदेश-नीति पर मोदी अमल कर रहे हैं उसकी बुनियाद वाजपेयी ने रखी थी। वैसे भी पड़ोसियों के साथ अच्छे सबंध को लेकर मोदी कितने गंभीर हैं इसकी झलक उनके शपथ-ग्रहण के दिन ही मिल गई थी। लेकिन पाकिस्तान शुरू से ही ‘टेढ़ी खीर’ रहा है। अपनी बात से पलटने का उसका लम्बा इतिहास है। अभी हाल ही में दोनों देशों के प्रधानमंत्री ऊफा (रूस) में मिले। फिर पेरिस (फ्रांस) में भी दोनों की संक्षिप्त मुलाकात हुई। लेकिन रिश्तों की बर्फ पिघलते-पिघलते फिर जमने लगी और कारण सिर्फ और सिर्फ पाकिस्तान ही था।

पिछले दिनों विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के इस्लामाबाद दौरे से रिश्तों की बर्फ एक बार फिर पिघली और मोदी शायद अपनी इस यात्रा से उस बर्फ के फिर से जमने की हर गुंजाइश खत्म करना चाहते थे। दिन भी उन्होंने बहुत खास चुना। 25 दिसम्बर को अटल बिहारी वाजपेयी और नवाज शरीफ दोनों का जन्मदिन था। साथ ही नवाज की नवासी का निकाह भी। मोदी ने नवाज की माँ के पाँव छुए और नवाज मोदी को छोड़ने एयरपोर्ट तक आए। हर तरफ ‘फील गुड’ का माहौल था। लेकिन दो देशों का संबंध अन्तर्राष्ट्रीय मामला है और उसकी कुछ निहायत जरूरी औपचारिकताएं होती हैं। अगर आनन-फानन में यात्रा हो भी गई तो उसका हासिल क्या है, प्रधानमंत्री मोदी को इसका जवाब देना ही होगा। क्या वो देश को आश्वस्त कर सकते हैं कि अब सीमा पर पाक कोई नापाक हरकत नहीं करेगा..? इस यात्रा के बाद वो मोस्ट वांटेड अंडरवर्ल्ड डॉन दाउद इब्राहिम को उपहार-स्वरूप सौंप देगा या फिर मुंबई हमलों के मास्टर माइंड हाफिज सईद पर हमेशा के लिए लगाम कस देगा..?

ये हम सभी जानते हैं कि इनमें से कोई ‘चमत्कार’ नहीं होने जा रहा। वाजपेयी भी पाकिस्तान गए थे और कुछ समय बाद हमें ‘कारगिल’ का जख़्म मिला था। ‘अच्छे दिन’ बीत जाएं उससे पहले मोदी को तुलसीदास के कहे “भय बिन होय ना प्रीत” को समझना होगा। अगर सिर्फ ‘प्रेम’ से बात बननी होती तो कश्मीर उस कगार पर नहीं होता जहाँ अभी खड़ा है। हम आज भी ये कह रहे होते कि धरती पर अगर कहीं स्वर्ग है, तो वो यहीं है, यहीं है, यहीं है।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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