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एक पैर से दुनिया जीतने वाले के लिए कोई जश्न नहीं?

रियो ओलंपिक में साक्षी के कांस्य और सिंधु के रजत पर आप जरूर खुशी से झूम गए होंगे। झूमना भी चाहिए। इन दोनों बेटियों की सफलता पर पूरा देश जश्न मना रहा था। मनाना भी चाहिए। पर क्या हमने रियो में ही स्वर्ण जीतने वाले मरियप्पन थंगावेलू के लिए भी वैसा ही जश्न मनाया? नहीं ना? बता सकते हैं क्यों? क्या इसलिए कि हमारे देश के किसी भी टीवी चैनल ने पैरालंपिक का सीधा प्रसारण नहीं दिखाया? या फिर इसलिए कि पैरालंपिक का आयोजन केवल विकलांग खिलाड़ियों के लिए होता है? अगर ऐसा है तो हमें जरूर जानना चाहिए कि ‘पैरालंपिक’ का ‘ओलंपिक’ से केवल शाब्दिक साम्य ही नहीं है, बल्कि भव्यता और व्यापकता की दृष्टि से भी ये उससे कमतर नहीं। इसे शारीरिक रूप से नि:शक्त खिलाड़ियों का ओलंपिक कहें तो गलत नहीं होगा। आप इसके ‘कैनवास’ का अंदाजा इस बात से लगायें कि इस साल के रियो पैरालंपिक में 176 देशों ने भाग लिया था।

जहाँ तक पैरालंपिक की शुरुआत की बात है, तो आपको बता दें कि 1960 में रोम ओलंपिक खेलों के खत्म होने के एक हफ्ते के बाद अंतर्राष्ट्रीय पैरालंपिक खेलों का आयोजन पहली बार किया गया था। लेकिन 1968 में मेक्सिको ने ओलंपिक के बाद पैरालंपिक खेलों का आयोजन करने से इनकार कर दिया था। आगे चलकर 2001 में इसे नियमित कर दिया गया। अब ओलंपिक की मेजबानी करने वाले देश को पैरालंपिक खेलों के लिए भी दावेदारी करनी पड़ती है। हालांकि ये स्पष्ट कर दें कि ओलंपिक और पैरालंपिक का आयोजन बिल्कुल अलग-अलग संस्थाओं के हाथ में है। इंटरनेशनल ओलंपिक कमेटी और इंटरनेशनल पैरालंपिक कमेटी दोनों अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखती हैं।

बहरहाल, अनगिनत मुश्किलों और चुनौतियों को पीछे छोड़ते हुए भारत के मरियप्पन थंगावेलू ने रियो पैरालंपिक 2016 में भारत को पुरुषों की टी-42 हाई जंप में गोल्ड मेडल दिलाया। 21 वर्षीय मरियप्पन ने 1.89 मीटर की छलांग लगाकर भारत को ये ऐतिहासिक सफलता दिलाई। भारत के ही वरुण सिंह भाटी ने 1.86 मीटर की छलांग लगाकर इस इवेंट का कांस्य अपने नाम किया। बता दें कि टी-42 वर्ग में वैसे पैरा एथलीट आते हैं जिनके हाथ या पैर के साइज या मांसपेशियों में अन्तर होता है।

मरियप्पन को हाई जंप का गोल्ड मेडल ऐसे ही नहीं मिल गया। उसके पीछे की वजह है कड़ा संघर्ष। मरियप्पन का जन्म तमिलनाडु के सालेम से 50 किलोमीटर दूर पेरिवादमगट्टी गांव में हुआ था। उनकी माँ गांव में ही सब्जियां बेचकर गुजारा करतीं। पर घोर अभाव के बाद भी नियति को शायद मरियप्पन की और परीक्षा लेनी थी। जब वे पाँच साल के थे तब स्कूल जाते वक्त उनके पैर पर बस चढ़ गई। चोट इतनी गंभीर थी कि उनका दायां पैर पूरी तरह से खराब हो गया।

एक पैर खराब होने पर भी मरियप्पन की स्कूल के दिनों में खेलकूद में काफी रुचि थी और वे खासकर वॉलीबॉल खेला करते। इसी दौरान स्कूल के कोच की नज़र उन पर पड़ी। उन्होंने मरियप्पन को वॉलीबॉल छोड़ हाईजंप ज्वाइन करने की सलाह दी और ट्रेंड किया। जब मरियप्पन 14 साल के हुए तब उन्होंने पहली बार एक स्पोर्ट्स इवेंट में हिस्सा लिया और दूसरे नंबर पर रहे। महत्वपूर्ण बात ये कि इस प्रतियोगिता में उन्होंने नॉर्मल एथलीट्स को कम्पीट किया था।

मरियप्पन को नेशनल लेवल पर सफलता दिलाने का श्रेय कोच सत्यनारायण को जाता है। 18 साल की उम्र में वे ही मरियप्पन को नेशनल पैरा-एथेलेटिक्स चैम्पियनशिप में लेकर आए और इसके बाद की कहानी इतिहास है। आपको बता दें कि 1 नवंबर 2015 को मरियप्पन दुनिया के नंबर वन पैरा हाई जंपर बने और रियो पैरालंपिक में गोल्ड जीतने से पहले भी वे आईपीसी ट्यूनीशिया ग्रैंड प्रिक्स में 1.78 मीटर की स्वर्णिम छलांग लगा चुके हैं।

चलते-चलते:

पैरालंपिक के इतिहास में ये भारत का तीसरा गोल्ड मेडल है। मरियप्पन से पहले मुरलीकांत पेटकर (स्विमिंग) 1972 में और देवेन्द्र झाझरिया (जैवलिन थ्रो) 2004 में भारत के लिए स्वर्ण जीत चुके हैं।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

 

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