आईये, गांधी जयंती पर जानें उस महामानव से जुड़ी चार बातें और हृदय पर हाथ रखकर स्वयं से पूछें कि क्या हम गांधीजी को सचमुच जानते हैं? अगर जानते हैं तो उनके बताए पर कितना अमल करते हैं? और सबसे बड़ी बात कि क्या अपनी अगली पीढ़ी के जीवन में हम गांधी का सहस्त्रांश भी भर रहे हैं?
घी के दिये पर आपत्ति
सेवाग्राम में बापू के जन्मदिन के मौके पर ‘बा’ ने एक बार घी का दिया जलाया। बापू एकटक घी के दीपक को देखते रहे और थोड़ी देर बाद ‘बा’ से कहा – “आज अगर घी का दिया नहीं जलता तो कोई फर्क नहीं पड़ता। हमारे आस-पास कई लोगों के पास खाने को सूखा टुकड़ा तक नहीं है। ऐसे में यह तो पाप है।” बापू की जयंती मनाने से पहले हमें देखना चाहिए कि हमने अपने आस-पास के निर्धन लोगों की तकलीफों से कितनी दूरी बना रखी है। अगर ऐसा नहीं होता तो हमारे लाखों बच्चे हर साल कुपोषण से नहीं मर रहे होते।
शिक्षा के साथ दो हुनर
गांधीजी ने कहा था कि शिक्षा-व्यवस्था ऐसी हो जिसमें विद्यार्थी कम-से-कम दो हुनर भी सीखें। अपने भोजन और रहने का खर्च खुद ही निकालें। इससे हमारे जैसे गरीब देश में सभी बच्चों के लिए शिक्षा का इंतजाम करना आसान होगा। उन्होंने जोर देकर कहा था कि अंग्रेजों की शिक्षा बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए नहीं है। लेकिन इसके उलट हमारी शिक्षा-व्यवस्था लगातार महंगी होती गई। अपने बच्चों को ‘एयरकंडीशन्ड’ स्कूलों में भेजना हमारा चरम लक्ष्य बन गया, ना कि उन्हें आत्मनिर्भर बनाना।
फोटो खिंचवाने की तीन शर्तें
महात्मा गांधी के पोते कनु गांधी एक फोटोग्राफर थे। शुरुआत में गांधीजी ने पैसे की कमी का हवाला देते हुए कैमरा खरीदकर देने से कनु को मना कर दिया था। लेकिन बाद में कनु के जिद करने पर उन्होंने घनश्यामदास बिड़ला से इसके लिए मदद मांगी। उन्होंने कनु को 100 रुपये दिए जिससे कनु ने रॉलीफ्लेक्स कैमरा खरीदा। इसके बाद उन्होंने खुद की फोटोग्राफी के लिए कनु के सामने तीन शर्तें रखीं। पहला यह कि वह कभी कैमरे के फ्लैश का इस्तेमाल नहीं करेंगे, दूसरा कि वह कभी उन्हें पोज देने को नहीं कहेंगे और तीसरा कि कभी भी वह अपने शौक के लिए आश्रम से पैसे नहीं मांगेंगे। तीसरी शर्त तो आप समझ ही गए होंगे। पहली और दूसरी शर्तें इसलिए कि गांधीजी को जीवन में पल भर की ‘बनावट’ भी बर्दाश्त नहीं थी। क्या प्रदर्शन पर पैसे उड़ाने और बनावट में यकीन रखने वाली आज की पीढ़ी इससे सीख लेगी?
‘महात्मा’ की पदवी से कष्ट
गांधीजी ने कहा था कि “मुझे नहीं लगता कि मैं महात्मा हूँ। लेकिन मैं यह अवश्य जानता हूँ कि मैं ईश्वर के सर्वाधिक दीन-विनीत प्राणियों में से एक हूँ। इस ‘महात्मा’ की पदवी ने मुझे बड़ा कष्ट पहुँचाया है। मुझे एक क्षण भी ऐसा याद नहीं जब इसने मुझे गुदगुदाया हो।” उनका मानना था कि यह पदवी व्यर्थ है क्योंकि यह उनके बाह्य कार्यकलाप, उनकी राजनीति के कारण है, जो उनका लघुतम पक्ष है और इसलिए क्षणजीवी भी है। आगे उन्होंने कहा – “मेरा वास्तविक पक्ष है सत्य और अहिंसा के प्रति मेरा आग्रह, और इसी का महत्व स्थायी है। यह पक्ष चाहे जितना छोटा हो पर इसकी उपेक्षा नहीं करनी है। यही मेरा सर्वस्व है।” क्या छोटी-सी उपलब्धि और उपाधि पर इतराने से पहले हमें बापू की ये बात याद नहीं करनी चाहिए?
तो ऐसे थे बापू। आईये, उन्हें नमन करें। जितनी सामर्थ्य हो हमारी, उतना उन्हें अपने जीवन में उतारें और कुछ ऐसा करें कि हमारी आने वाली नस्लें उनका कुछ अंश भी अपने जीवन में उतार पाएं।
‘मधेपुरा अबतक’ के लिए डॉ. ए. दीप