अमिताभ बच्चन के ‘होने’ पर ना जाने कितनी बातें हुई हैं और कितनी होंगी, पर क्या आपने कभी सोचा कि अमिताभ बच्चन ना होते तो क्या होता..? चलिए जरा सोच कर देखते हैं। अमिताभ अगर ना होते तो शायद हिन्दुस्तान संवादों में बात नहीं करता। डायलागबॉजी एक पूर्णत: विकसित कला नहीं होती। चार यार-दोस्तों या अजनबियों के सामने अपनी बात रखते वक्त हमारी आवाज भारी होकर ‘बैरीटोन’ नहीं होती। आलोचनाओं के परे भी जाया जा सकता है, यह सिखाने के लिए कोई नहीं होता। अगर अमिताभ बच्चन नहीं होते तो हमारे पास, हमारी फिल्मों के पास, हमारे देश के पास सचमुच बहुत कुछ नहीं होता।
सबसे पहले तो शायद यह होता कि किसी कवि या लेखक का लड़का हीरो बनने का सपना नहीं देखता। या उससे पहले यह होता कि कोई साधारण नैन-नक्श वाला हद से ज्यादा लंबा और पतला एक नौकरीपेशा नौजवान फिल्मों में हीरो बनने के बारे में सोचकर खुद पर हंसता और फिर इसे भूल जाता। जी हाँ, बच्चन नहीं होते, तो रेडियो में आवाज का रिजेक्ट होना ‘कूल’ नहीं होता। राजेश खन्ना के बाद अगला सुपरस्टार सीधे शाहरुख खान को होना होता। चालीस सालों तक कोई कमर्शियल इंटरटेनमेंट की विधा को रॉकस्टार अंदाज में इतना नहीं साध पाता। ‘कौन बनेगा करोड़पति’ और ‘क्या आप पांचवी पास से तेज हैं’, में कोई अंतर नहीं होता।
हॉलीवुड के रॉबर्ट डि नीरो, अल पचीनो, मार्लन ब्रांडो, क्लिंट ईस्टवुड, शॉन कॉनरी, हैरीसन फोर्ड का जवाब देने के लिए हमारे पास कोई अभिनेता नहीं होता। अमिताभ बच्चन नहीं होते, तो हीरो की बेहतरीन कॉमिक टाइमिंग से हमारी पहली मुलाकात गोविंदा ही कराते और हम कभी भी आईने के सामने खड़े होकर शराबी की तरह नहीं बहक पाते। बच्चन नहीं होते, तो तमाम तरह के आरोप लगाने के बावजूद हर निर्देशक का सपना उनके साथ काम करना नहीं होता। अभिनय ‘मेथड’ है या ‘नेचुरल’, हम इसी फेर में पड़े रह जाते।
बच्चन नहीं होते, तो नाम की तरह लिखे जाने वाले हमारे कुछ गिने-चुने सरनेमों में से एक कम हो जाता। हमारे पिता की पीढ़ी सफेद फ्रैंच कट दाढ़ी को नहीं अपनाती। सफेद शॉल फैशन नहीं बन पाती। तीन-चार पीढ़ियों को मिमिक्री का शौक नहीं लगता और हर शहर में बच्चन के बहरूपिये नहीं होते।
अगर बच्चन नहीं होते, तो हर बदलते वक्त में खुद को बदलने की अद्भुत क्षमता रखने वाले कलाकार से हमारा परिचय कभी नहीं हो पाता। री-इनवेंट कैसे किया जाता है अभिनय में, एक्टिंग क्लासों में नहीं सिखाया जा पाता, क्योंकि संदर्भ देने के लिए बच्चन नहीं होते। ‘मधुशाला’ महान ग्रंथ होता, लेकिन जनमानस में वैसे अंकित नहीं होता, जैसे अब है। एक कवि और उसकी कविताओं को नई टेक नहीं मिलती, नया आयाम नहीं मिलता, अगर उन कविताओं के साथ अमिताभ बच्चन नहीं होते।
अगर बच्चन नहीं होते तो हमें शाहरुख खान का इंतजार करना पड़ता यह समझने के लिए कि हर अभिनेता केवल फिल्मों में नहीं, हर वक्त अभिनय करता है। जहां कहीं भी जीवित मनुष्य पाया जाता है, अभिनेता अपनी ‘भूमिका’ में आ जाता है।
अगर बच्चन नहीं होते, हमें यह भी कम समझ आता कि राजनीति क्यूं हर किसी के बस की नहीं है। गांधी परिवार और बच्चन परिवार के बीच क्या बचा है और कितना टूट गया है, हमें कभी पूरा पता नहीं चलेगा, यह भी समझ नहीं आता। उत्तर प्रदेश में अपराध होते रहते, लेकिन वे विज्ञापन नहीं होते जो मुस्कुराते हुए बच्चन को अपराध कम हैं, कहने को मजबूर करते।
अमिताभ बच्चन ना होते तो ‘जुम्मा चुम्मा दे दे’ अश्लील हो जाता और हमारी होली ‘रंग बरसे’ बिना ही बीत जाती। कुछ लोग इस कदर निराले हो जाते हैं अपने काम से, कि फिर वे भले ही खराब फिल्में करें और दर्जनों घटिया विज्ञापन, हमें फर्क नहीं पड़ता, ये भी हम नहीं सीख पाते, अगर बच्चन नहीं होते।
अगर अमिताभ बच्चन नहीं होते, हमारा सिनेमा अभिनय के उस अनोखे मिजाज से महरूम रह जाता, जो किसी भी देश के सिनेमा की पहचान बनता है। वह घटना हिन्दुस्तान के इतिहास में नहीं होती, जिसमें किसी अभिनेता की सेट पर हुई दुर्घटना के बाद पूरा देश मिलकर उसके लिए प्रार्थना कर रहा था। बच्चन नहीं होते, तो गरिमा से बोली जाने वाली हिंदी अपने अस्तित्व को खोने के डर में जीती और फिल्मों में अंग्रेजी भाषा के रिक्त स्थानों को भरने वाली भाषा बनकर रह जाती।
वे अफवाहें और गॉसिप नहीं होतीं, जिसमें बच्चन होते। अमिताभ बच्चन रिटायर कब होंगे? क्या बच्चन विग पहनते हैं? सलमान खान को वे पसंद करते हैं या नहीं? रेखा से अभी भी बात-मुलाकात होती होगी क्या? बच्चन नहीं होते, तो हम यह भी नहीं सोचते कि सत्तर का हो जाने पर कौन-सा ‘खान’ उनके स्तर को छू पाएगा। कोई भी नहीं, हम यह भी नहीं कह पाते। ‘लिविंग लिजेंड’ जैसे शब्द को तमगा बनकर टंगने के लिए आदमी नहीं मिलता। देश को इकलौता ‘एंग्री यंग मैन’ नहीं मिलता। अमिताभ बच्चन नहीं होते, तो फिल्में थोड़ी कम अपनी लगतीं। हमें यह सब लिखने के लिए उपयुक्त इंसान नहीं मिलता। हम और हमारा देश, जितने हैं उतने, फिल्मी नहीं होते।
‘मधेपुरा अबतक’ के लिए डॉ. ए. दीप
[‘सत्याग्रह’ में प्रकाशित शुभम उपाध्याय के एक आलेख पर आधारित]