सम्पूर्ण समाजवादी महापर्व है छठ

शुचिता, स्वच्छता और समर्पण का महापर्व है छठ। घर-घर में महिलाएं अपने परिवार व बच्चों की कुशलता की कामना लेकर पूरी निष्ठा से करती हैं इस व्रत को। कुछ घरों में तो पुरुष भी रखते हैं यह व्रत। गौर करने की बात है कि छठ ही एकमात्र पर्व है जिसमें बिना किसी कर्मकांड या पंडितों की सहायता के ही श्रद्धालु व्रती चार दिनों तक चलने वाला व्रत करते हैं।
लोकआस्था का यह महापर्व छठ सामाजिक एकता का अद्वितीय प्रतीक है। तभी तो बिहार के कटिहार, नालंदा आदि जिलों के कुछ मुस्लिम परिवार भी वर्षों से इस व्रत को करते आ रहे हैं। भला क्यों नहीं, सूर्यदेव सबसे जुड़े जो हैं और साथ ही जोड़ते भी हैं सबको। बिना किसी भेद-भाव के विभिन्न घाटों पर सभी एक साथ मिलकर सूर्य देव को प्रणाम करते हैं। सभी जानते और मानते हैं कि सूर्य से ही जीवन है और सूर्य से ही प्रकृति और पर्यावरण का अस्तित्व संभव है। तभी तो इस महापर्व में डूबते सूर्य की भी पूजा समान श्रद्धा से होती है।
धार्मिक आस्था से जुड़े महापर्व छठ का आर्थिक पक्ष भी है। जी हाँ, हमें जानना चाहिए कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को जीवित रखने में इस पर्व का बड़ा योगदान रहा है। यदि बाजार में इस पर्व में उपयोग में लाई जाने वाली चीजों पर नज़र डालें तो 90 से 95 प्रतिशत सामान गांवों के छोटे-छोटे किसानों के खेत से या फिर कास्तकारों के हाथों के हुनर से बनकर आते हैं। इस पर्व में इस्तेमाल होने वाली चीजों – हल्दी, अदरख, केला, अमरूद, अल्हुआ, सुथनी आदि – का करोड़ों का कारोबार हो जाता है। मधेपुरा की ही बात करें तो केवल इस जिले में ही हल्दी-अदरख का कारोबार तीन से चार करोड़ तक पहुँच जाता है। छठ पूजन की अन्य सामग्रियों को जोड़ दें तो जिले का कुल कारोबार 90 से 95 करोड़ तक पहुँच जाता है। कहने की जरूरत नहीं कि इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था को कितनी मजबूती मिलती है।
कुल मिलाकर कहना गलत न होगा कि समाज के हर वर्ग को एक समान लाभ और महत्व देने वाला यह पर्व समाजवाद की सच्ची परिभाषा प्रस्तुत करता है। इस तरह से सम्पूर्ण समाजवादी महापर्व है छठ।

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