Holi

जोगीरा सा रा रा रा

केकर खातिर पान बनन बा, केकरे खातिर बांस

केकरे खातिर पूड़ी पूआ, केकर सत्यानास

जोगीरा सा रा रा रा

नेतवन खातिर पान बनल बा, पब्लिक खातिर बांस

अफसर काटें पूड़ी पूआ, सिस्टम सत्यानास

जोगीरा सा रा रा रा

ये है जोगीरा की एक बानगी, जिसे लिखा है कबीर की परम्परा के जनकवि आचार्य रामपलट दास ने। आप भारत में हों, होली के रंगों को पहचानते हों और आपके कानों में जोगीरा की थाप न पहुँची हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। जोगीरा ना हो तो होली कैसी..? होली का असली रंग तो जोगीरा के साथ ही चढ़ता है। आखिर दिल में उत्साह और दिमाग में सवाल उतार देने वाला, हमारी रग-रग में तैर जाने वाला ये जोगीरा है क्या?  चलिए, आज इसी पर बात करते हैं।

उत्तर भारत के जिन क्षेत्रों में नाथपंथी योगी (जोगी) सक्रिय रहे वहाँ जोगीरा गाने की परम्परा विशेष रूप से पाई जाती है। सम्भवत: इसकी उत्पत्ति जोगियों की हठ-साधना, वैराग्य और उलटबाँसियों का मजाक उड़ाने के लिए हुई हो। यह मूलत: एक समूह-गान है जिसमें प्रश्नोत्तर शैली में एक समूह सवाल पूछता है तो दूसरा उसका जवाब देता है। जवाब प्राय: चौंकाने वाले होते हैं।

समय बदला तो जोगीरा भी बदलता गया। धीरे-धीरे यह रोजमर्रा की घटनाओं से जुड़ता चला गया। घर का आंगन हो, गांव का चौपाल हो या फिर राजनीति का गलियारा इसने हर जगह अपनी पहुँच बना ली। सम्भ्रान्त और शासक वर्ग पर अपना गुस्सा निकालने या यूँ कहें कि उन्हें ‘गरियाने’ का अनूठा जरिया बन गया जोगीरा।

होली में तो वैसे भी खुलकर और खिलकर कहने की परम्परा है। यह एक तरह से सामूहिक विरेचन का पर्व है। आज इस परम्परा को स्वस्थ रूप देते हुए इसे फिर से व्यक्तिगत और संस्थागत, सामाजिक और राजनीतिक विडम्बनाओं और विद्रूपताओं पर कबीर की तरह तंज कसने और हमले करने के अवसर में बदलने की जरूरत है। आचार्य रामपलट दास के ही शब्दों में कुछ इस तरह –

चिन्नी चाउर महंग भइल, महंग भइल पिसान

मनरेगा का कारड ले के, चाटा साँझ बिहान

जोगीरा सा रा रा रा

या फिर कुछ ऐसे –

खूब चकाचक जीडीपी बा चर्चा बा भरपूर

चौराहा पर रोज सबेरे बिक जाला मजदूर

जोगीरा सा रा रा रा।

चलने से पहले हम ये न कहेंगे कि ‘बुरा न मानो होली है’। हम तो कहेंगे ‘अब बुरा मान भी लो होली है’… जोगीरा सा रा रा रा…

रंग और गुलाल के साथ –

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

 

सम्बंधित खबरें