पांच राज्यों के चुनाव परिणामों के साथ लोकतंत्र में लोकप्रियता की नई इबारत लिख गए मोदी। किसने सोचा था कि ‘साइकिल’ की हवा इस कदर निकल जाएगी, ‘हाथ’ के हाथ में उंगलियों के बराबर भी सीटें नहीं आएंगी और ‘हाथी’ चलने से पहले ही हांफ जाएगा। यहां तक कि भाजपा के बड़े से बड़े भक्त ने भी नहीं सोचा होगा कि 1991 की राम-लहर पर भी भारी पड़ जाएगी 2017 की मोदी-लहर। तब भाजपा ने 221 सीटें जीती थीं जबकि उस वक्त उत्तराखंड भी उत्तर प्रदेश का ही हिस्सा था और इस बार भाजपा ने 312 सीटें जीती हैं। इसमें सहयोगियों की सीटें जोड़ दें तो आंकड़ा 325 का हो जाता है। एक यूपी (और बोनस के तौर पर उत्तराखंड भी) में भाजपा ने इतने जोर से ठहाका लगाया कि कांग्रेस की पंजाब (और साथ में मणिपुर और गोवा भी) की मुस्कान फीकी पड़ गई।
तमाम समीकरणों और एग्जिट पोल के सारे अनुमानों को ध्वस्त करते हुए भाजपा ने उत्तर प्रदेश में 2012 के मुकाबले इस बार छह गुना अधिक सीटें हासिल कीं। आखिर वे कौन से कारण हैं कि इस बार की होली के सारे अबीर केसरिया और सारे रंग मोदीमय हो गए? चलिए, जानने की कोशिश करते हैं कि क्या हैं भाजपा की इस प्रचंड जीत के पांच बड़े कारण?
- मोदी का मैजिक: महज तीन साल पहले गुजरात से राष्ट्रीय राजनीति में आए मोदी महज तीन साल में न केवल भाजपा के पर्याय बन गए हैं, बल्कि ने आम भारतीय जनता की ‘आस्था’ के नए केन्द्र बनकर उभरे हैं। आज की तारीख में वो जो कह रहे हैं, समाज का हर तबका (सामाजिक और आर्थिक दोनों) उसे गौर से सुन रहा है और बहुत हद तक मान भी रहा है। नोटबंदी का मुद्दा इस बात का जीता-जागता सबूत है। तमाम पार्टियों ने एटीएम के आगे लंबी-लंबी लाइनों की बात कर उनका विरोध किया और जनता ने उन्हें वोट देने को उससे भी बड़ी लाइन लगा दी।
- तिकोना मुकाबला: ये बात समझ से परे है कि बिहार में महागठबंधन के ताजा प्रयोग और उसकी सफलता को देखकर भी सपा, बसपा और कांग्रेस ने सीख क्यों न ली। सपा और कांग्रेस का गठबंधन वहां वैसा ही था जैसे बिहार में जेडीयू या आरजेडी में से किसी एक के साथ कांग्रेस का गठबंधन होता। अगर इस बार सपा, बसपा और कांग्रेस को मिले वोटों को एक जगह कर दें तो कोई आश्चर्य नहीं कि भाजपा की जगह इस गठबंधन के पास सवा तीन सौ सीटें होतीं।
- यादव-परिवार का गृहयुद्ध: यूपी में चुनाव से पहले जिस समय यादव-परिवार में गृहयुद्ध छिड़ा था, उस समय भाजपा पूरे राज्य में एक के बाद एक परिवर्तन रैली कर रही थी। उसे उसके सुनियोजित और क्रमबद्ध प्रचार का फायदा मिला। उधर सपा-कांग्रेस का गठबंधन एकदम आखिरी समय में हुआ। दोनों पार्टियों को साझा रणनीति और ग्रासरूट लेवल पर कार्यकर्ताओं का साझा मानस तैयार करने का वक्त ही नहीं मिला।
- अपने वोटबैंक पर फोकस: भाजपा ने पहले दिन से गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलित पर फोकस किया। ऊंची जातियों का वोट तो वैसे भी कांग्रेस से शिफ्ट होकर कमोबेश उसके पास आ ही चुका है। बचे मुसलमान, तो 403 में एक भी सीट मुसलमान को न देकर उसने नि:संकोच ‘हिन्दुत्व’ के एजेंडे आगे बढ़ाया।
- अमित शाह की व्यूह-रचना: यूपी की जीत में मोदी के चेहरे के बाद जिस चीज ने सबसे बड़ी भूमिका निभाई वो थी भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की सधी हुई रणनीति। इस चुनाव में उनके सारे दांव सही पड़े। एक ओर उन्होंने स्वामी प्रसाद मौर्य और सुखदेव राजभर जैसे नेताओं को जोड़कर यह संकेत दिया कि भाजपा सबको साथ लेकर चल सकती है, तो दूसरी ओर कई सीटों पर कार्यकर्ताओं की नाराजगी मोल लेकर भी बाहर से आए जिताऊ नेताओं को टिकट दिया। इनमें से अधिकतर नेताओं को जीत मिली। सच यह है कि इन पांच राज्यों के चुनाव के बाद शाह ने पार्टी के हर स्तर पर नेताओं की नई कतार खड़ी कर ली है और भाजपा को पूरी तरह मोदी-शाह-मय कर दिया है। बड़ी बात यह कि उनके किए पर जनता ने भी मुहर लगाई है।
‘मधेपुरा अबतक’ के लिए डॉ. ए. दीप