यूपी के चुनावी समर के लिए पहला चरण बहुत खास है। अगर कहें कि इस चरण में बाजी मारने वाली पार्टी या गठबंधन के हाथ में देश के सबसे बड़े राज्य की सत्ता की चाबी होगी तो गलत न होगा। इस चरण में यह तय हो जाएगा कि भाजपा अपने 2014 के लोकसभा चुनावों के प्रदर्शन को दुहराती है या सपा-कांग्रेस गठबंधन को निर्णायक बढ़त मिल जाती है? वैसे त्रिकोण बना रहीं मायावती को भी हम नज़रअंदाज नहीं कर सकते, जो अपने परंपरागत वोटों के साथ-साथ इस चुनाव में मुस्लिम वोटरों की पहली पसंद बनकर रेस में आगे निकलने का दावा कर रही हैं।
गौरतलब है कि पहले चरण में जिन 73 सीटों पर मतदान हो रहा है, 2012 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने उनमें से मात्र 11 सीटें जीती थी, पर 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी ने सबको चौंकाते हुए 68 सीटों पर बढ़त बनाई थी। 2012 में भाजपा को जहाँ 16.2 प्रतिशत मत मिले थे, वहीं 2014 में उसका वोट प्रतिशत बढ़कर 50.4 हो गया। इस आलोक में अगर हम अबकी हो रहे चुनाव का विश्लेषण करें तो कहा जा सकता है कि अगर पार्टी इस चुनाव में 15 से 20 प्रतिशत वोट गंवा देती है, तब भी उसकी झोली में 30 से 35 प्रतिशत वोट आएंगे, जो 2012 में उसे मिले वोटों से लगभग दोगुना होंगे।
इसमें कोई दो राय नहीं कि इस बार भाजपा कुछ ऐसा ही मानकर चल भी रही थी लेकिन आज अगर पार्टी अपने प्रदर्शन को लेकर आश्वस्त नहीं हो पा रही तो उसकी वजह है अखिलेश और राहुल का एक साथ आ जाना। हालांकि सपा के लिए यह इलाका राज्य के बाकी हिस्सों के मुकाबले कमजोर रहा है। 2012 में जब उसे बहुमत मिला था तब भी इस इलाके की 73 में से 24 सीटें ही उसके हिस्से में आई थीं और उसका वोट प्रतिशत बसपा से 5.5 प्रतिशत कम था। पर इस बार सपा के साथ कांग्रेस का वोट बैंक जुड़ जाने के कारण भाजपा और बसपा को अपना-अपना खेल बिगड़ने का डर सता रहा है। बता दें कि कांग्रेस ने 2012 और 2014 का चुनाव अजित सिंह की आरएलडी के साथ लड़ा था, पर इस बार सपा के साथ होने से जाहिर है कि उसकी ‘प्रासंगिकता’ बढ़ गई है।
वैसे मायावती की पार्टी बसपा का पश्चिमी यूपी में खासा असर रहा है। पार्टी इस इलाके में राज्य के बाकी हिस्सों से ज्यादा मजबूत रही है। 2012 में उसे इन 73 सीटों पर सबसे ज्यादा वोट भी मिले थे। हालांकि सीटें उसे सपा के लगभग बराबर ही मिली थीं, पर बड़ी बात यह थी कि लगभग सारी सीटों पर बसपा मुख्य मुकाबले में थी। इसके बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के कारण पार्टी तीसरे नंबर पर चली गई थी। लेकिन इस बार के चुनाव में सांप्रदायिक तनाव काफी हद तक कम हो चुका है और ऐसे में मायावती को अपने दलित-मुस्लिम गठजोड़ के चल निकलने की उम्मीद थी। पर सपा और कांग्रेस ने एक साथ आकर मुस्लिमों को पहले से अधिक मजबूत विकल्प दे दिया है। जाहिर है कि इन परिस्थितियों में मायावती चैन से नहीं बैठ पा रहीं।
कुल मिलाकर यह कि पहले चरण के नतीजे जो भी हों, इस चरण को छूकर जो ‘हवा’ निकलेगी वो सत्ता के गलियारे की दिशा बता देगी, इसमें कोई दो राय नहीं।
‘मधेपुरा अबतक’ के लिए डॉ. ए. दीप