पटना में आयोजित प्रकाश-पर्व अपनी अनूठे आतिथ्य और अभूतपूर्व भव्यता के साथ दो और कारणों से चर्चा में है – पहला, मोदी-नीतीश की जुगलबंदी से निकले नए सुर और दूसरा, लालू को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, राज्यपाल रामनाथ कोविंद, पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल, केन्द्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद और मेजबान नीतीश कुमार के साथ मंच पर जगह नहीं मिलना, जबकि लालू अपने दोनों बेटों के साथ मंच के सामने ही विराजमान थे। बात अगर केवल मोदी और नीतीश द्वारा एक-दूसरे की तारीफ करने तक ही सीमित रहती तो थोड़ी देर के लिए कुछ और भी सोचा-समझा जा सकता था। लेकिन एक तरफ वे दोनों एक-दूसरे की प्रशंसा के पुल बांध रहे थे और दूसरी तरफ राज्य के मुख्यमंत्री और केन्द्र में रेलमंत्री रह चुके और वर्तमान में सत्तारूढ़ महागठबंधन के सबसे बड़े दल के सर्वेसर्वा लालू प्रसाद यादव अपने दोनों ‘लाल’ के साथ अपनी ‘असह्य अनदेखी’ से अपमान का दंश झेल रहे थे। जाहिर है, बात करने वाले बात करेंगे ही।
प्रश्न उठता है, ऐसा क्यों हुआ? क्या लालू की शख्सियत इतनी आसानी से नज़रअंदाज कर दी जाने वाली है, और वो भी बिहार में? कायदे से मंच पर उनकी जगह तो बननी ही चाहिए थी, पदानुसार उनके उपमुख्यमंत्री बेटे तेजस्वी को भी वहाँ होना चाहिए था। पर बाप-बेटे दोनों नदारद। मंच से भी और मोदी और नीतीश के संबोधन से भी। हालांकि प्रशासन के लोग ये तर्क दे रहे हैं कि केन्द्र के मंत्रियों को मंच पर जगह मिलनी चाहिए, ये पीएमओ की ओर से कहा गया था। चलिए ये मान लेते हैं। तो क्या ये भी मान लिया जाय कि लालू और तेजस्वी को मंच पर जगह न मिले, इसका भी निर्देश ‘ऊपर’ से ही था? क्या मेजबान नीतीश अपने विवेक का प्रयोग कर कम-से-कम लालू को मंच पर नहीं बुला सकते थे, जबकि मंच पर पर्याप्त जगह थी?
अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब मोदी और नीतीश एक-दूसरे को फूटी आँख देखना पसंद नहीं करते थे। 17 साल तक एनडीए के साथ सत्ता का सुख भोग चुके नीतीश ने मोदी को प्रधानंमत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने के साथ गठबंधन रिश्ते तोड़ डाले थे। बिहार के चुनाव में एक-दूसरे पर निशाना साधने में दोनों ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। मोदी ने नीतीश पर अपने सामने से ‘थाली’ खींच लेने का आरोप लगाया तो नीतीश ने ‘डीएनए’ को मुद्दा बनाकर बकायदा हस्ताक्षर अभियान चलाया था। ऐसे में दोनों के बीच रिश्तों में आई ‘गर्माहट’ से अटकलबाजियों का बाज़ार गर्म होना स्वाभाविक है।
गौरतलब है कि आरजेडी और जेडीयू में भले ही गठबंधन हो, लेकिन दागी आरजेडी विधायक राजवल्लभ से लेकर सांसद शहाबुद्दीन तक के मामलों पर दोनों दलों का टकराव सामने आ चुका है। जमानत पर कुछ दिन के लिए बाहर निकले शहाबुद्दीन ने नीतीश को अपना नेता मानने से ही इनकार कर दिया था। वरिष्ठ आरजेडी नेता रघुवंश प्रसाद सिंह खुलेआम कई बार नीतीश पर निशाना साध चुके हैं। नोटबंदी पर विपक्ष के एकजुट होने के प्रस्ताव पर जेडीयू के अलग होने पर भी आरजेडी सुप्रीमो लालू ने परोक्ष रूप से निशाना साधते हुए इसे ‘इगो’ की समस्या कहा था।
राजनीति के जानकार मानते हैं कि नीतीश का ताजा रुख लालू पर राजनीतिक दवाब कायम करने की कवायद हो सकती है। नीतीश लालू को मैसेज देना चाहते हैं कि उनके सामने विकल्प खुले हुए हैं। उधर भाजपा को लगता है कि उसे स्वाभाविक तौर पर एक अतिरिक्त सहयोगी मिल जाय तो हर्ज ही क्या है? राज्यसभा में केन्द्र के सत्ताधारी गठबंधन का कम संख्याबल भी भाजपा को जेडीयू से नजदीकी बढ़ाने को प्रेरित करता है। कई अहम बिल वहाँ पास होने हैं। ऐसे में अगर आने वाले समय में मोदी और नीतीश का एक-दूसरे के लिए उपजा ‘प्रेम’ और प्रगाढ़ हो जाय तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।
‘मधेपुरा अबतक’ के लिए डॉ. ए. दीप