National Anthem Before Movie

क्या सिनेमाहॉल में बजने से बढ़ जाएगा राष्ट्रगान का सम्मान ?

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को अपने एक अहम फैसले में देश के सभी सिनेमाघरों में फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रीय गान ‘जन गण मन’ को बजाना अनिवार्य कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि  राष्ट्रीय गान बजाते समय सिनेमाहॉल के पर्दे पर राष्ट्रीय ध्वज भी दिखाना होगा और हॉल में मौजूद सभी लोगों को राष्ट्रगान के सम्मान में खड़ा होना पड़ेगा। सर्वोच्च न्यायालय का यह आदेश एक जनहित याचिका पर आया है जिसे मध्यप्रदेश निवासी श्याम नारायण चौकसे ने दायर की थी।

गौरतलब है कि इससे पूर्व सिनेमाहॉल संचालक अपने विवेकानुसार राष्ट्रगान बजाने या न बजाने का फैसला करते थे। कहीं राष्ट्रगान फिल्म शुरू होने से पहले बजाया जाता था तो कहीं खत्म होने के बाद और कई हॉल ऐसे भी थे जहाँ इसे बजाया ही नहीं जाता था। अब सुप्रीम कोर्ट न केवल इसे बजाना अनिवार्य करने के साथ-साथ इसका वक्त भी निर्धारित कर दिया है, बल्कि इससे संबंधित अन्य दिशा-निर्देश भी जारी किए हैं। मसलन, राष्ट्रगान के दौरान सिनेमाहॉल के दरवाजे पूरी तरह बंद रखे जाएंगे ताकि लोगों का हॉल में आना-जाना न चलता रहे। एक अन्य निर्देश के मुताबिक राष्ट्रगान के दौरान खड़ा होना अनिवार्य है लेकिन जो लोग शारीरिक या किसी अन्य मजबूरी के चलते खड़े होने की स्थिति में न हों, वे बैठकर भी राष्ट्रगान में हिस्सा ले सकते हैं।

व्यावहारिक तौर पर देखा जाय तो इससे पूर्व कई जगहों और अवसरों पर राष्ट्रगान या राष्ट्रीय ध्वज के प्रति यथोचित सम्मान न प्रदर्शित करने और उसके बाद उपजी अप्रिय स्थितियों की ख़बरें आती रही हैं। ऐसे में राष्ट्रगान को लेकर सुप्रीम कोर्ट के इस नए और स्पष्ट फैसले के बाद क्या यह उम्मीद की जानी चाहिए कि राष्ट्रगान के समय किसी तरह की अव्यवस्था या असमंजस की स्थिति नहीं बनेगी? सिनेमाहॉल के संचालक और कर्मचारी ही नहीं, दर्शक भी (जिनमें बच्चे भी शामिल होंगे) राष्ट्रगान के लिए मानसिक रूप से सजग और सतर्क रहेंगे?

यह सच है कि राष्ट्रगान या राष्ट्रीय ध्वज जैसे प्रतीकों के प्रति सम्मान सुनिश्चित करना हमारे राष्ट्रीय दायित्व का हिस्सा है, लेकिन हमें इन पर जरूरत से ज्यादा जोर देने को लेकर सचेत रहना चाहिए। देशभक्ति हमारे अन्दर से उपजती है। यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे जबरन किसी पर थोपा जा सके। हमारे रोजमर्रा की ज़िन्दगी में यह अनेक रूपों में प्रकट होती रहती है, ठीक वैसे ही जैसे मन्दिर-मस्जिद-चर्च-गुरुद्वारे जैसे धार्मिक प्रतीकों के प्रति या माता-पिता-गुरु जैसे श्रद्धेय जनों के प्रति। यह व्यवहार से ज्यादा संस्कार की चीज है। हाँ, राष्ट्रीय संकट की स्थिति में इसके रूप अलग जरूर हो सकते हैं।

एक बात और, राष्ट्रीय प्रतीकों के लिए सम्मान दर्शाना अगर मजबूरी हो जाए तो वह धीरे-धीरे रस्म-अदायगी का रूप ले सकता है। सिनेमाहॉल में राष्ट्रगान बजने की व्यवस्था अतीत में छोड़ी भी इसीलिए गई थी। बेहतर होगा कि एक विकसित समाज बनने की प्रक्रिया में हम प्रतीकात्मकता से ऊपर उठकर देशभक्ति को एक आंतरिक मूल्य के रूप में जिएं। वैसे भी जिन फिल्मों को आप परिवार के साथ देखने की स्थिति में नहीं होते, और आजकल सौ में से नब्बे फिल्में ऐसी ही होती हैं, उन फिल्मों से पहले राष्ट्रगान का बजना उसका सम्मान होगा या अपमान..? सर्वोच्च न्यायालय ने इस पहलू पर क्यों नहीं सोचा, ये समझ से परे है..!

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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