कृष्ण को सभी जानते हैं, पर महत्वपूर्ण यह है कि कितना जानते हैं। आप ही बताएं कि क्या हैं कृष्ण? देवकीसुत, यशोदानंदन या राधाकांत? सुदामा के सखा, अर्जुन के सारथि या द्वारका के अधिपति? महाभारत की धुरी, गीता के उपदेशक या विष्णु के अवतार? कृष्ण के अनंत रूप हैं और हर रूप की अनगिनत छवियां हैं। हम अपने मिथक से लेकर इतिहास तक खंगाल लें, कृष्ण से अधिक पूर्ण, कृष्ण से अधिक जीवंत, कृष्ण से अधिक विराट व्यक्तित्व ना तो हुआ है, ना होगा।
कृष्ण को जानने के लिए हमें श्रीमद्भागवत का ये प्रसंग जरूर जानना चाहिए। कृष्ण की इच्छा थी कि उनके देह-विसर्जन के पश्चात् द्वारकावासी अर्जुन की सुरक्षा में हस्तिनापुर चले जाएं। सो अर्जुन अन्त:पुर की स्त्रियों और प्रजा को लेकर जा रहे थे। रास्ते में डाकुओं ने लूटमार शुरू कर दी। यह देख अर्जुन ने तत्काल गाण्डीव के लिए हाथ बढ़ाया। पर यह क्या! गाण्डीव तो इतना भारी हो गया था कि प्रत्यंचा खींचना तो दूर, धनुष को उठाना तक संभव नहीं हो पा रहा था। महाभारत के विजेता, सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी विवश होकर अपनी आँखों के सामने अपना काफिला लुटता देख रहे थे। विश्वास कर पाना मुश्किल था कि ये वही अर्जुन हैं जिन्होंने अजेय योद्धाओं को मार गिराया था। अर्जुन अचरज में डूबे थे कि तभी कृष्ण के शब्द बिजली की कौंध की तरह उनके कानों में गूंजे – “तुम तो निमित्त मात्र हो पार्थ।”
श्रीमद्भागवत का ये प्रसंग अकारण नहीं है। यहाँ अर्जुन को माध्यम बना हमें इस अखंड सत्य से अवगत कराया गया है कि जीवन में जब-जब ‘कृष्ण तत्व’ अनुपस्थित होता है, तब-तब मनुष्य इसी तरह ऊर्जारहित हो जाता है। कृष्ण के ना रहने का अर्थ है – जीवन में शाश्वत मूल्यों का ह्रास। प्राणी हो या प्रकृति, ‘प्राणवायु’ कृष्ण ही थे, कृष्ण ही हैं, कृष्ण ही रहेंगे।
कृष्ण का अवतरण मानवता के लिए एक क्रान्तिकारी घटना थी। वे हुए तो अतीत में लेकिन हैं भविष्य के। इतना अनूठा था उनका व्यक्तित्व कि हम आज भी उनके समसामयिक नहीं बन सके हैं। मनुष्य अभी भी इस योग्य नहीं कि उसकी सोच और समझ में कृष्ण अंट जाएं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि कृष्ण अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो धर्म की परम गहराइयों और ऊंचाइयों पर होकर भी गंभीर नहीं हैं। किसी भी बिन्दु पर रत्ती भर भी और पल भर के लिए भी उदास नहीं होते कृष्ण। उन्हें आप हमेशा हंसते हुए, नाचते हुए, जीवन का गीत गाते हुए पाएंगे। कृष्ण को छोड़ दें तो अतीत का सारा धर्म दुखवादी था। उदास और आँसुओं से भरा था। हंसता हुआ धर्म, जीवन को समग्र रूप से स्वीकार करने वाला धर्म अभी पैदा होने को है। जाहिर है कि वैसा जीवंत धर्म कृष्ण-तत्व से ही संभव है।
कृष्ण अकेले हैं जो समग्र जीवन को पूरा ही स्वीकार कर लेते हैं। जीवन की समग्रता की स्वीकृति उन्हीं के व्यक्तित्व में फलित हुई है। इसीलिए इस देश ने सभी अवतारों को आंशिक अवतार कहा है और कृष्ण को पूर्ण अवतार। राम भी अंश ही हैं परमात्मा के लेकिन कृष्ण पूरे ही परमात्मा हैं। पुरानी मनुष्य-जाति के इतिहास में वे अकेले हैं जो दमनवादी नहीं हैं। उन्होंने जीवन के सब रंगों को स्वीकार कर लिया है। वे प्रेम से भागते नहीं। वे पुरुष होकर स्त्री से पलायन नहीं करते। वे करुणा और प्रेम से भरे होकर भी युद्ध में लड़ने की सामर्थ्य रखते हैं। अमृत की स्वीकृति है उन्हें लेकिन विष से कोई भय भी नहीं है।
हम जब-जब ‘पूर्णता’ की बात करेंगे, हमारे सामने ‘कृष्ण’ ही होंगे, क्योंकि पूर्णता के पूर्ण प्रतिमान केवल वही हैं, और जिसे हम ‘जन्माष्टमी’ कहते हैं, वो वास्तव में उसी पूर्णता का प्रतीक पर्व है। वर्ष में एक बार ये दिन आता है तो हमें ये एहसास दिलाने कि ‘अधूरेपन’ से लड़ने की ताकत हममें से हर किसी में है और जब तक कृष्ण हैं ‘पूर्णता’ की हर संभावना शेष है। मजे की बात तो यह कि पूर्णता की ये यात्रा ‘कृष्ण’ के साथ है और ‘कृष्ण’ तक ही पहुँचने के लिए है।
‘मधेपुरा अबतक’ के लिए डॉ. ए. दीप