Smriti Irani

स्मृतिजी, आपके यूजीसी ने ‘मरहम’ लगाते-लगाते बहुत देर कर दी..!

एमफिल या पीएचडी में 11 जुलाई 2009 से पहले रजिस्ट्रेशन कराने वाले उम्मीदवारों को अब सहायक प्रोफेसर पद के आवेदन में राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (नेट) पास करने से छूट दी जाएगी। हालांकि इसके लिए कुछ शर्तें रखी गई हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के इस फैसले से उन हजारों पीएचडी डिग्री धारकों को लाभ होगा जो यूजीसी के 2009 के दिशानिर्देशों से प्रभावित हुए थे। इसके तहत कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में सहायक प्रोफेसर पद के आवेदन के लिए नेट और पीएचडी न्यूनतम योग्यता निर्धारित की गई थी।

मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने कहा कि 11 जुलाई 2009 से पूर्व एमफिल या पीएचडी में रजिस्ट्रेशन कराने वाले उम्मीदवारों के लिए शिक्षक नियुक्ति के पुराने नियम ही लागू होंगे। उन्हें नेट या समकक्ष राज्य की परीक्षा पास करने की जरूरत नहीं होगी। विश्वविद्यालय इसके बगैर भी सहायक प्रोफेसर नियुक्त कर सकेंगे।

सरकार के इस निर्णय से हजारों उम्मीदवारों को बड़ी राहत मिलेगी लेकिन इसके लिए कुछ शर्तें भी लगाई गई हैं। इन शर्तों के अनुसार सहायक प्रोफेसर की नियुक्ति के लिए पीएचडी डिग्री रेगुलर मोड में मिली होनी चाहिए। थीसिस के मूल्यांकन में दो बाहरी परीक्षकों को शामिल होना चाहिए। पीएचडी के लिए ओपन वायवा हुआ होना चाहिए। उम्मीदवार के दो शोधपत्र प्रस्तुत होने चाहिएं जिनमें से एक किसी जर्नल में प्रकाशित हो। इसके अलावा उम्मीदवार को कम से कम दो सेमीनार या कांफ्रेंस में प्रस्तुति (प्रेजेंटेशन) देने का अनुभव होना चाहिए। यही नहीं, उपरोक्त उपलब्धियां तभी मान्य होंगी जब कुलपति, प्रतिकुलपति या डीन उन्हें अभिप्रमाणित करेंगे।

यूजीसी के चेयरमैन वेद प्रकाश ने माना कि उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों की बेहद कमी है। यूजीसी के इस नए कदम से शैक्षिक पदों पर काफी संख्या में उम्मीदवारों को आवेदन का मौका मिलेगा। निश्चित तौर पर यूजीसी के इस निर्णय के लिए भारत की शिक्षा मंत्री और यूजीसी के चेयरमैन बधाई के पात्र हैं लेकिन क्या ये एक तरीके का भूल-सुधार नहीं है..? जुलाई 2009 के दिशा-निर्देशों में अगर कोई कमी नहीं रही होती तो क्या आज का ये निर्णय लिया जाता..? और सबसे बड़ा सवाल ये कि जो उम्मीदवार जुलाई 2009 के विवादास्पद दिशा-निर्देशों के कारण साक्षात्कार देने या नियुक्ति पाने से वंचित रह गए उनके भविष्य का क्या होगा..?

ताजा उदाहरण बिहार का ही लें। वर्षों के इन्तजार के बाद यहाँ सहायक प्रोफेसरों की नियुक्ति-प्रक्रिया शुरू हुई लेकिन हजारों उम्मीदवार जुलाई 2009 के अपरिपक्व और अव्यावहारिक दिशा-निर्देशों की बलि चढ़ गए। इन दिशा-निर्देशों में ये सोचा ही नहीं गया कि उन छात्रों का क्या होगा जो देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों से यूजीसी गाइडलाइन के अनुसार ही एमफिल या पीएचडी की डिग्री ले चुके थे..? इस तरह के दिशा-निर्देश आगे के उम्मीदवारों के लिए तो हो सकते थे लेकिन पूर्व के उम्मीदवारों को इनके दायरे में लाना समझ से परे था। सच तो ये है कि यूजीसी को आज किया जा रहा भूल-सुधार और पहले करना चाहिए था। खैर, देर से ही सही, अब जब ये सुधार किया ही जा रहा है तो क्या वैसे तमाम अभ्यर्थियों के लिए भावी नियुक्तियों में कोई वैकल्पिक व्यवस्था भी नहीं होनी चाहिए..?

मधेपुरा’ अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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