Mother Teresa

4 सितंबर को ‘संत’ घोषित होंगी ‘संतों की संत’ मदर टेरेसा..!

मानवता की अनमोल धरोहर मदर टेरेसा को ‘संत’ की उपाधि दिए जाने पर आखिरी मुहर लग गई। पोप फ्रांसिस ने आज कार्डिनल्स की बैठक के बाद नोबेल पुरस्कार से सम्मानित मदर टेरेसा को रोमन कैथोलिक संत का दर्जा दिए जाने को स्वीकृति दे दी। वेटिकन सिटी में रोमन कैथोलिक चर्च 4 सितंबर को इसकी औपचारिक घोषणा करेगा।

बता दें कि कैथोलिक परम्परा के मुताबिक ‘संत’ बनने के लिए दो चमत्कार जरूरी हैं। 2002 में वेटिकन ने मदर टेरेसा के चमत्कार के तौर पर मोनिका बेसरा के केस को स्वीकार किया था। बंगाली आदिवासी महिला मोनिका पेट के ट्यूमर से पीड़ित थीं। मदर टेरेसा के निधन के बाद 1998 में वो ठीक हो गईं और इसका श्रेय मदर टेरेसा को दिया गया। दूसरा चमत्कार ब्राजील का है। 2008 में मस्तिष्क में कई ट्यूमर की समस्या से ग्रसित ब्राजील का एक युवक ठीक हो गया था। पिछले साल वेटिकन ने इसका श्रेय भी मदर को दिया। कहा गया कि वह युवक मदर की प्रार्थनाओं और उनकी तस्वीर देखने से ठीक हुआ।

पहले चमत्कार की पुष्टि के बाद 2003 में तत्कालीन पोप जॉन पॉल द्वितीय ने मदर को ‘बियाटिफाइड’ (धन्य) घोषित किया था। ‘बियैटिफिकेशन’ ‘संत’ की उपाधि की तरफ पहला कदम होता है। वहीं मदर के दूसरे चमत्कार को पिछले साल पोप फ्रांसिस ने मान्यता दी थी। दूसरे चमत्कार को मान्यता मिलने के साथ ही मदर टेरेसा को ‘संत’ घोषित करने का रास्ता साफ हो गया था।

अपना पूरा जीवन गरीबों और असहायों की सेवा में न्योछावर कर देने वाली मदर टेरेसा का जन्म मेसोडोनिया गणराज्य में हुआ था। करुणा और दया की ये प्रतिमूर्ति 1948 में भारत आई और फिर यहीं की होकर रह गई। उन्होंने कोलकाता में ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ की स्थापना की। 1997 में मदर टेरेसा का निधन हो गया पर यह संस्था आज भी दुनिया भर में मानवता की सेवा के पर्याय के तौर पर जानी जाती है।

मदर टेरेसा को लोग ‘गटरों की संत’ कहते हैं। जिनका कोई नहीं होता था उन्हें मदर गले लगाती थीं। वेटिकन ने भले ही ‘संत’ घोषित करने की प्रक्रिया के तहत उनके दो चमत्कारों को मान्यता दी हो, लेकिन सच यह है कि मदर के जीवन में कोई एक बार झाँक भर ले तो उसे असंख्य ‘चमत्कार’ दिखेंगे। पर वो चमत्कार ‘सेवा का’ और ‘सेवा से’ था। मदर टेरेसा स्वयं किसी ‘चमत्कार’ में विश्वास नहीं करती थीं। रोग तन का हो या मन का, उन्होंने उसका समाधान केवल और केवल ‘सेवा’ में ढूंढ़ा। झाड़-फूंक, तंत्र-मंत्र जैसी चीजों के लिए ना तो उनके ‘कर्म’ में कोई जगह थी, ना उनके ‘धर्म’ में।

कोलकाता की सड़कों पर गरीबों, रोगियों और अनाथों की सेवा में जीवन के 45 साल लगा देने वाली इस ‘मदर’ ने स्वार्थ में जकड़ी दुनिया को आत्मा के उत्थान की राह दिखाई। उनका अवदान इतना बड़ा है कि मानो ‘मदर’ शब्द का सृजन ही उनके लिए हुआ हो। काश कि रोमन कैथोलिक चर्च केवल उनकी मानव-सेवा के आधार पर उन्हें ‘संत’ घोषित करता ! ऐसा कर पोप फ्रांसिस ना केवल ‘संतों की संत’ मदर टेरेसा को सच्चा सम्मान दे पाते बल्कि इस नई परम्परा की नींव रख वे धर्म की वास्तविक और व्यावहारिक परिभाषा भी गढ़ पाते जिसकी आज के समय में कितनी जरूरत है ये कहने की बात नहीं।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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