कन्हैया कुमार… पिछले दस दिनों से देश की सारी सुर्खियाँ बस इस एक नाम के इर्द-गिर्द हैं। टीवी, अख़बार और सोशल मीडिया की सारी बहसें मंझोले कद के, दुबले-पतले-से, दाढ़ी वाले इस शख़्स को लेकर हो रही हैं। फिलहाल दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद इस शख़्स की रिहाई के लिए जेएनयू और दिल्ली विश्वविद्यालय ही नहीं गुजरात के वडोदरा विश्वविद्यालय और आंध्रप्रदेश की हैदराबाद सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी तक के छात्र प्रदर्शन कर रहे हैं। एक ओर उसके नाम पर पटना की सड़कों पर झड़पें हो रही हैं तो दूसरी ओर उसका नाम केरल की विधानसभा में गूंज रहा है। गुआहाटी में पूरब के बुद्धिजीवी और कलाकार सड़कों पर उतर आए हैं तो चेन्नई में तमिल लोकगायक कोवान कन्हैया के लिए ‘गीत’ गाते हुए हिरासत में लिए जा रहे हैं। एक ओर अपार समर्थन मिल रहा है उसे तो दूसरी ओर गृहमंत्री उसे देश के लिए ‘खतरा’ बता रहे हैं और उस पर ‘देशद्रोह’ का मुकदमा चलाने की बात हो रही है। आखिर कौन है ये कन्हैया कुमार..? और उससे भी बड़ा सवाल ये कि क्यों है उसके नाम पर इतना बड़ा विरोधाभास..?
बिहार के बेगूसराय जिला स्थित बीहट गांव के बेहद गरीब परिवार से आते हैं कन्हैया कुमार। बीहट से निकलकर मोकामा और फिर पटना के कॉमर्स कॉलेज होते हुए जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष पद तक पहुँचना कतई आसान नहीं था उनके लिए। क्रांतिकारियों-सा जज्बा और कम्यूनिस्ट विचारधारा के प्रति ‘नि:स्वार्थ’ समर्पण उन्हें विरासत में मिला। कभी मजदूर रहे और अब लकवाग्रस्त हो चुके पिता का पुत्र जिसका घर आंगनबाड़ी सेविका माँ की नाममात्र कमाई से चल रहा हो उसका ना तो ‘संघर्ष’ झूठा हो सकता है और ना ही उसके कुछ कर गुजरने की ‘ललक’ में लेशमात्र छलावा हो सकता है। फिर क्यों इस कन्हैया के नाम पर ‘राजनीति’ की रोटियां सेकी जा रही हैं..?
सौ आने ‘सच्ची’ है कन्हैया के भीतर की ‘आग’ पर जब आग की लपटें ज्यादा तेज हों और उसे ‘आवारा’ हवा की थोड़ी भी संगत मिल जाए तो ‘दिशा’ भटक जाना कोई बड़ी बात नहीं। बस यही और इतना ही ‘कसूर’ था कन्हैया कुमार का। करीब 22 मिनट के उस विवादित दिन के वीडियो को गौर से देखें। इसमें कन्हैया संविधान, लोकतंत्र और तिरंगे के सम्मान की बात कर रहे हैं। व्यवस्था से शिकायत है उन्हें और बदलाव की जरूरत बता रहे हैं वो। हाँ, उन्होंने आरएसएस, भाजपा और मनुवाद की मुखालफत की बात भी की लेकिन क्या इसके लिए उन पर ‘देशद्रोह’ का मुकदमा ठोक दिया जाय..? नहीं, हरगिज नहीं। बात यहीं तक रहती तो ठीक था। पर अपनी ‘रौ’ में कन्हैया ये भी कह गए कि कौन है कसाब..? कौन है अफजल गुरु..? कौन हैं ये लोग जो अपने शरीर में बम बांधकर हत्या करने को तैयार हैं..? इन पर यूनिवर्सिटी में बहस होनी चाहिए।
अगर कन्हैया का विरोध “फांसी’ के लिए था और वो इस पर ‘बहस’ चाहते थे तो उन्हें बस वहीं तक रहना चाहिए था। उनके प्रति पूरी सहानुभूति होने के बावजूद कसाब या अफजल तक उनका पहुँचना अखरता है। वो बेजोड़ और जोशीले वक्ता हैं इसमें कोई दो राय नहीं लेकिन जोश के साथ होश का ख्याल उन्हें हर हाल में रखना चाहिए था। तब तो और भी ज्यादा जब मुद्दा इतना संवेदनशील हो, कैंपस जेएनयू का हो और वो स्वयं छात्रसंघ के अध्यक्ष की हैसियत से बोल रहे हों। उस वक्त किसी भी तरह के ‘अतिवाद’ से बचने की नैतिक जिम्मेदारी बनती थी उनकी। माना कन्हैया से ‘भूल’ हुई लेकिन उस ‘भूल’ को ‘अपराध’ कहना और ‘देशद्रोह’ करार देना उससे भी बड़ी ‘भूल’ होगी। ऐसी कोशिश करने वालों को आँखें खोलकर देखना और सोचना चाहिए कि कन्हैया के समर्थन में हो रहे प्रदर्शनों में ‘भगत सिंह’ और ‘रोहित वेमुला’ की तस्वीरों वाली तख्तियां क्यों हैं..?
जेएनयू कैंपस में हुए 9 फरवरी के उस विवादित कार्यक्रम के ‘अलग-अलग’ विडियो सामने लाए जा रहे हैं। तस्वीरों से ‘छेड़छाड़’ की जा रही है। ये साबित करने की कोशिश की जा रही है कि कन्हैया ने देशविरोधी नारे लगाए और वो ‘देशद्रोही’ हैं। ये सारी कवायद तकलीफदेह है। जरूरत इस बात की है कि कन्हैया जैसे छात्रों की ‘धार’ से बदहाल व्यवस्था के ढाँचे और साँचे को तराशा जाय। उनके भीतर की ‘आग’ से देश के लिए ‘ऊर्जा’ पैदा की जाय। वामपंथ या दक्षिणपंथ का चश्मा लगाकर हम किसी ‘कन्हैया’ को करीब से नहीं जान पाएंगे। पहले हम ऐसे किसी भी चश्मे को उतारें, फिर देखें कि बिहार के बीहट से कितनी बड़ी ‘संभावना’ ने जन्म लिया है।
मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप