मधेपुरा के सांसद पप्पू यादव पर भारतीय मूल के अमेरिकी निर्देशक परम गिल बायोपिक फिल्म बनाएंगे। हाल के विधानसभा चुनाव में उन्हें मिले जख़्मों पर ये ख़बर मरहम का काम करेगी। चुनाव से पहले उन्होंने लालू यादव से ‘उत्तराधिकार’ मांगा और इस बेतुकी मांग के बदले राजद से निकाले गए। फिर उन्होंने ‘जन अधिकार पार्टी’ बनाई लेकिन उनकी पार्टी के ‘जन’ को जनता से भी कोई ‘अधिकार’ नहीं मिला। इसके बाद ख़बरों से नदारद थे पप्पू यादव। हाँ, बीच में उन्होंने अपने उस बड़बोले दावे पर माफी जरूर मांगी थी जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर लालूजी के दोनों बेटे चुनाव जीत जाते हैं तो वे राजनीति छोड़ देंगे। बहरहाल, लम्बे अन्तराल के बाद उनकी कोई ख़बर आई है। ख़बर… ‘गैर’राजनीतिक … और वो भी ‘अमेरिकी कनेक्शन’ के साथ।
पप्पू यादव पर बनने वाली फिल्म की कहानी बिहार (Bihar) के अमरनाथ झा की किताब पर आधारित है। उन्होंने ही इसका स्क्रीनप्ले भी लिखा है। पप्पू यादव की आत्मकथा ‘द्रोहकाल का पथिक’ में उन्हें ‘फिल्मी’ मैटेरियल दिखा था। किताब में एक ओर पप्पू यादव की ‘हीरो’ जैसी ज़िन्दगी थी तो दूसरी ओर एक खूबसूरत लव स्टोरी जिसमें रॉबिनहुड की छवि वाले राजनेता को एक सिख लड़की से प्यार हो जाता है। वो इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने किताब के राइट्स खरीद लिए।
प्रस्तावित फिल्म में पप्पू के जीवन के हर पहलू को दिखाने की कोशिश होगी। फिल्म के निर्देशक परम गिल का मानना है कि पप्पू यादव ने अपनी ज़िन्दगी में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। उन्होंने पिछड़ी जातियों के अधिकार के लिए संघर्ष किया है जिसे दुनिया के सामने आना चाहिए। गिल के अनुसार उनकी कहानी काफी ‘दिलचस्प’ है जिसे पर्दे पर उतारना ‘व्यावसायिक’ तौर पर भी ‘फायदेमंद’ होगा। फिलहाल वो फिल्म के लिए कलाकारों के चयन में जुटे हैं। बता दें कि परम गिल अपनी हॉलीवुड फिल्म ‘गोइंग टू अमेरिका’ के लिए जाने जाते हैं।
बिहार (Bihar) के कोसी और सीमांचल के इलाके में पप्पू यादव की अच्छी पैठ है पर विधानसभा चुनाव में वो सीधे “मैं बदलूँगा बिहार” के नारे के साथ उतर गए। एक तो उन्होंने एकदम से अपना ‘कैनवास’ बहुत बड़ा कर लिया, दूसरा उनके नारे का ‘मैं’ ज्यादातर लोगों के गले नहीं उतरा और तीसरा बीजेपी से उनकी ‘सांठगांठ’ छिपी ना रह सकी। सीधे मुकाबले में तो पप्पू वैसे भी नहीं थे पर वो ‘असर’ छोड़ेंगे ये उम्मीद जरूर थी। चुनाव के नतीजे आने पर इसके उलट पप्पू खासे ‘बेअसर’ साबित हुए। वो जान गए कि अपने लिए वोट मांगना और अपने नाम पर औरों के लिए वोट जुटाना दो अलग बातें हैं। यहाँ तक कि जिस इलाके पर वो अपनी ‘मुहर’ लगाकर चल रहे थे वहाँ से भी उन्हें यही सबक मिला। जाहिर है कि इतना सब कुछ होने के बाद पप्पू के लिए स्थितियां सहज नहीं रहीं और उन्होंने सुर्खियों से दूर रहना ही ठीक समझा। अब जबकि उनके ऊपर फिल्म बनने की ख़बर सामने आई है, पप्पू को नए सिरे से लोगों का सामना करने में ‘सहूलियत’ होगी।
राजनेताओं के सार्वजनिक जीवन को लेकर इससे पहले भी कई फिल्में बनी हैं। इससे नाम और चर्चा जो मिले लेकिन ये नहीँ भूलना चाहिए कि बायोपिक बनाना लोगों को किसी के निजी जीवन में झाँकने के लिए खुला आमंत्रण देना है। बशर्ते कि वो ईमानदारी से बने। जीवन को ज्यों का त्यों दिखा देना बहुत साहस और जोखिम का काम होता है। ये देखने की बात होगी कि पप्पू यादव इस पैमाने पर कितना खरा उतरते हैं। अभी उन्हें एक लम्बा राजनीतिक जीवन जीना है। ऐसे में वो निर्देशक को किस हद तक ‘रचनात्मक स्वतंत्रता’ देते हैं, इस पर आलोचकों की निगाह होगी। उनके साथ ‘बाहुबली’ का टैग क्यों जुड़ा, फिल्म इस पर क्या और कैसे कहती है, यह देखना दिलचस्प होगा और सांसद पत्नी रंजीत रंजन के संग उनके प्रेम-प्रसंगों को लेकर भी उत्सुकता रहेगी। सम्भवत: उनके जीवन के कुछ अनछुए पहलू भी दुनिया के सामने आएं।
पप्पू यादव की आत्मकथा ‘द्रोहकाल का पथिक’ पहले ही प्रकाशित हो चुकी है और अब उनके जीवन पर फिल्म बनने जा रही है। उनसे बड़ी विनम्रता के साथ एक सवाल करने को जी चाहता है कि क्या उन्हें स्वयं को थोड़ा और वक्त नहीं देना चाहिए था..? तब शायद उनके जीवन में बताने और साझा करने लायक कुछ और महत्वपूर्ण अध्याय जुड़ जाते..!
मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप