Nitish Kumar

इस जीत ने नीतीश को बनाया मोदी-भाजपा-एनडीए विरोधी राजनीति का ‘सर्वमान्य’ प्रतीक

न्यूटन की गति का तीसरा नियम कहता है कि हर क्रिया की बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती है। बिहार चुनाव में नरेन्द्र मोदी, भारतीय जनता पार्टी और एनडीए की जैसी ‘क्रिया’ थी, 20 नवंबर को पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में नीतीश का शपथ ग्रहण समारोह उसकी ठीक बराबर और विपरीत ‘प्रतिक्रिया’ है। बिहार चुनाव का परिणाम 8 नवंबर को आया लेकिन नीतीश ने शपथ ली 12 दिनों के बाद। यह विलंब अकारण नहीं था। नीतीश अपनी शपथ को मोदी-भाजपा-एनडीए विरोधी राजनीति की ‘महाशपथ’ बनाना चाहते थे और कश्मीर से कन्याकुमारी तथा महाराष्ट्र से अरुणाचल प्रदेश तक के नेताओं को जुटाकर उन्होंने यही किया।

किसी एक राज्य की सरकार के शपथ ग्रहण के लिए आयोजित समारोह में ‘अति विशिष्टों’ की ऐसी भीड़ आज तक नहीं जुटी थी। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, पूर्व प्रधानमंत्री व जेडीएस अध्यक्ष एचडी देवगौड़ा, लोकसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे, पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार, सीपीआईएम के महासचिव सीताराम येचुरी, सीपीआई के नेता डी राजा, एनसीपी प्रमुख शरद पवार और प्रफुल्ल पटेल, नेशनल कांफ्रेंस के फारूक अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला, डीएमके प्रमुख करुणानिधि के बेटे एमके स्टालिन और टीआर बालू, असम गण परिषद के प्रफुल्ल कुमार महंत, राष्ट्रीय लोकदल प्रमुख अजित सिंह और उनके बेटे जयंत सिंह और इंडियन नेशनल लोकदल के अभय चौटाला एक मंच पर थे। आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव और उनकी पत्नी व बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी तथा जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव और राष्ट्रीय महासचिव केसी त्यागी को तो खैर होना ही था।

नीतीश की ‘महाशपथ’ के साक्षी नौ राज्यों के मुख्यमंत्री भी बने। वे हैं ममता बनर्जी (पश्चिम बंगाल), अरविन्द केजरीवाल (दिल्ली), वीरभद्र सिंह (हिमाचल प्रदेश), सिद्धारमैया (कर्नाटक), ओमान चांडी (केरल), तरुण गोगोई (असम), पीके चामलिंग (सिक्किम), इबोबी सिंह (मणिपुर) और नबाम टुकी (अरुणाचल प्रदेश)। इनके अतिरिक्त दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित, हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा, छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी और झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी (झाविमो) व हेमंत सोरेन (झामुमो) ने भी अपनी मौजूदगी दर्ज कराई।

प्रधानमंत्री मोदी का प्रतिनिधित्व केन्द्रीय मंत्री वैंकेया नायडू और राजीव प्रताप रूडी ने किया और बिहार भाजपा की ओर से राजनीतिक शिष्टाचार निभाया पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी और वरिष्ठ नेता नंदकिशोर यादव ने। पंजाब के उपमुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल (अकाली दल), महाराष्ट्र के मंत्री रामदास कदम व सुभाष देसाई (दोनों शिवसेना) और झारखंड के मंत्री सरयू राय (भाजपा) भी अपनी-अपनी सरकार की ओर से सम्मिलित हुए। अकाली दल और शिवसेना भाजपा के सहयोगी जरूर हैं लेकिन उनके अलग ‘अस्तित्व’ से इंकार नहीं किया जा सकता।

नाम पढ़ते-पढ़ते शायद आप थक गए होंगे पर सूची यहीं खत्म नहीं होती। देश भर से आए 15 से ज्यादा दलों के नेता के साथ-साथ प्रसिद्ध वकील रामजेठ मलानी, वरिष्ठ पत्रकार एचके दुआ और अंबेडकर के पौत्र प्रकाश अंबेडकर जैसे नाम भी समारोह में शामिल होनेवालों में हैं। कई महत्वपूर्ण नाम अभी भी छूट रहे हैं लेकिन जिस बिन्दु पर हमें बात करनी है उसके लिए ऊपर के सारे नाम काफी हैं। हालांकि उनमें जो नाम कांग्रेस के हैं उनके लिए कहा जा सकता है कि वे शिष्टाचार के साथ-साथ महागठबंधन में शामिल अपनी पार्टी की हौसला आफजाई के लिए थे। भाजपा के लोग तो खैर विशुद्ध रूप से शिष्टाचारवश ही थे लेकिन ‘थे’ ये बात गौर करने की है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि नीतीश कुमार के लिए इस चुनाव का ‘हासिल’ पाँचवीं बार बिहार का मुख्यमंत्री होने से कहीं ज्यादा है। इस चुनाव के बाद उनका कद पूर्ण रूप से ‘राष्ट्रीय’ हो चुका है और उनकी ‘स्वीकार्यता’ बेहिसाब बढ़ी है। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि नीतीश के लिए सात राज्यों के धुर विरोधी भी एक मंच पर थे। दिल्ली से केजरीवाल-शीला दीक्षित, कर्नाटक से देवगौड़ा-सिद्धारमैया, हरियाणा से हुड्डा-अभय चौटाला, झारखंड से हेमंत सोरेन-बाबूलाल मरांडी, असम से तरुण गोगोई-प्रफुल्ल कुमार महंत, महाराष्ट्र से शरद पवार-रामदास कदम और पश्चिम बंगाल से ममता-येचुरी की एक साथ मौजूदगी बड़ी बात है। अब नीतीश मोदी-भाजपा-एनडीए विरोधी राजनीति के ‘सर्वमान्य’ प्रतीक हैं। आज नरेन्द्र मोदी बिहार की हार से जितने दुखी होंगे उससे कहीं अधिक ये बात उन्हें सालती होगी कि बिहार चुनाव को ‘पर्सनलाइज’ करने और “केन्द्र बनाम बिहार” का रूप देने से उनका कद जितना घटा उसी अनुपात में नीतीश का कद बढ़ गया है इस चुनाव के बाद।

नीतीश के शपथ-ग्रहण समारोह में ना केवल एक नए ‘ध्रुवीकरण’ या यूँ कहें कि ‘महागठबंधन’ के राष्ट्रीय स्वरूप का शंखनाद हुआ बल्कि फारूक अब्दुल्ला ने यह कहकर कि “नीतीश को अब देश की कमान संभालनी चाहिए”, एक कदम आगे का संकेत भी दे दिया। अब यह कहने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि गांधी मैदान से जो बात निकली है वो बहुत दूर तक जाने वाली है।

अगर नीतीश केन्द्र की ओर रुख करते हैं तो एक बड़ा सवाल लालू प्रसाद यादव को लेकर उठेगा कि वैसी स्थिति में उनकी क्या भूमिका होगी..? इसमें कोई दो राय नहीं कि लालू ने लम्बे समय के बाद ‘किंगमेकर’ के रूप में वापसी की है और केन्द्र की राजनीति में भी उनकी बड़ी भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन उसका स्वरूप कमोबेश वही होगा जो अभी है। यानि चुनावी राजनीति से दूर रहने की विवशता के कारण लालू के पास केन्द्र की राजनीति में भी ‘बड़े भाई’ की भूमिका निभाने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं है।

केन्द्र में लालू के लिए एक विकल्प कांग्रेस हो सकती थी लेकिन अब की परिस्थिति में नहीं। इसके तीन स्पष्ट कारण हैं। पहला, बिहार के शासन में बने रहने के लिए लालू के लिए नीतीश जरूरी होंगे, कांग्रेस नहीं। दूसरा, लालू और कांग्रेस के रिश्तों में अब पहले जैसी गरमाहट नहीं रह गई है क्योंकि महागठबंधन बनने से पूर्व राहुल की नजदीकियाँ नीतीश से बढ़ने लगी थीं। और तीसरा ये कि लालू मुख्यमंत्री पद के लिए नीतीश के नाम पर तैयार हुए थे, जेडीयू के नाम पर नहीं। अगर नीतीश केन्द्र की राजनीति में जाते हैं तो स्वाभाविक रूप से राजद के महागठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी होने के कारण मुख्यमंत्री की कुर्सी पर तेजस्वी ही बैठेंगे। तब उनके लिए ना तो कोई चुनौती होगी, ना लालू होने देंगे। इस तरह हर लिहाज से लालू नीतीश के लिए केन्द्र में भी ‘कृष्ण’ ही बने रहेंगे ताकि बिहार में उनके दोनों ‘तेज’ अभी से कहीं अधिक ‘चैन की बंसी’ बजा सकें।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

सम्बंधित खबरें