Hindu devotees offer prayers to the Sun god during the Hindu religious festival Chhat

… इसीलिए छठ ‘महापर्व’ है..!

समय के साथ सब कुछ बदलता है। आपके तौर-तरीके ही नहीं, त्योहार तक बदल जाते हैं। तकनीक ने हमें बाहर जितना विस्तार दिया, भीतर उसी अनुपात में सिमटते गए हम और इस ‘संकुचन’ को बड़ी बेशर्मी से ‘आधुनिकता’ का नाम दिया हमने। आयातित बोली, आयातित शिक्षा, आयातित परिधान, आयातित संगीत, आयातित नृत्य, आयातित साहित्य, आयातित सिनेमा, आयातित उपकरण… इस आधुनिकता में सब कुछ आयातित था। आयात-आधारित इस आधुनिकता में हम विचारधारा भी आयात करने लगे और अब तो त्योहार आयात करने में भी संकोच नहीं होता हमें। इसे हम समय के साथ बदलना कहने लगे हैं।

इस ‘आधुनिकता’ की होड़ में गांव बड़ी तेजी से शहरों में खोते जा रहे हैं। डिब्बाबंद दूध, ‘डेलिवर’ किए गए फास्ट फूड और बोतलबंद पानी पर बड़ी हुई पीढ़ी ‘ईएमआई’ चुकाना भले सीख ले, मिट्टी का ‘कर्ज’ चुकाने के संस्कार से वो कोसों दूर रहेगी। हम गौर से देखें, जड़ तक जाकर पड़ताल करें तो पाएंगे कि हमारे सारे व्रत और त्योहार हमारी मिट्टी से जुड़े हैं। हम आजीवन अपनी मिट्टी से जो लेते हैं दरअसल व्रत रखकर और त्योहार मनाकर उसी का आभार जताते हैं हम। पर लानत है हम पर कि अब हम अपनी मिट्टी तक में ‘मिलावट’ करने लगे हैं। इसी का परिणाम है कि होली, दीपावाली जैसे त्योहारों का बड़ी तेजी से ‘शहरीकरण’ होने लगा है। या यूँ कहें कि अब इन त्योहारों को हम ‘आधुनिक’ तरीके से मनाने लगे हैं।

आधुनिकता की इस चकाचौंध में भी अगर हमारी आँखें पूरी तरह चुंधिया नहीं गई हैं तो इसका बहुत बड़ा श्रेय छठ को जाता है। अपनी जड़ों से कटकर महानगरों के आसमान में उड़ना सीख गए बच्चे होली-दीपावली चाहे जहाँ मना लें पर छठ के लिए वे अपने ‘घोंसले’ को लौट आते हैं। उन बच्चों के बच्चे जान पाते हैं कि ‘टू बेडरूम फ्लैट’ से बाहर की दुनिया कितनी बड़ी होती है और दो इकाईयों के साथ रहने से बने परिवार और कई परिवारों के जुड़ने से बने परिवार में क्या फर्क होता है। वे समझ पाते हैं कि ‘डिस्कवरी’ पर नदियों को देखना और उसे छूकर महसूसना कितना अलग होता है। वे जान पाते हैं कि क्या होता है सूप, कैसा होता है दौउरा, कौन बनाते हैं इन चीजों को और समाज के कितने अभिन्न अंग हैं वे। छठ ही बताता है उन्हें डाभ, चकोतरा (टाब नींबू), सिंघाड़ा, अल्हुआ और सुथनी जैसे फलों का अस्तित्व।

छठ धर्म से ज्यादा समाज का, सामूहिकता का और समानता का त्योहार है। समाजवाद का सबसे जीवंत दृश्य आपको छठ घाट पर दिखेगा। मालिक और मजदूर दोनों एक समान सिर पर प्रसाद का दौउरा ढोते मिलेंगे आपको। सबके सूप का मोल-महत्व एक समान होगा। कोई आडम्बर नहीं। किसी को भी पुरोहित की ‘मध्यस्थता’ नहीं चाहिए होती। बस आस्था होनी चाहिए, आपकी पूजा सीधे छठी मईया तक पहुँच जाती है। हिन्दू-मुसलमान के बीच खड़ी ‘दीवार’ भी इस आस्था के आगे सिर झुकाती है। ऐसा कोई बाज़ार नहीं जिसमें छठ की पूजन सामग्री बेचने वालों में मुस्लिम समाज के लोग ना हों। उनकी श्रद्धा और उत्साह में रत्ती भर भी कमी निकाल कर दिखा दें आप। और तो और आप शिद्दत से ढूँढेंगे तो कुछ घाट ऐसे भी होंगे जहाँ अर्ध्य देतीं मुस्लिम माताएं और बहनें भी दिख जाएंगी आपको।

अगर छठ ना हो तो आज के युग में ‘डूबते सूरज’ को प्रणाम करना हम सीख ही नहीं पाएंगे। बेटियों को कोख में ही मार देने वाले कभी नहीं जान पाएंगे कि किसी पर्व में बेटियों की भी मन्नत मांगी जाती है। हिन्दू समाज का ये सम्भवत: एकमात्र पर्व है जिसमें अराधना के लिए किसी ‘मूर्ति’ की जरूरत नहीं पड़ती। व्रत करने वाली हर नारी छठी मईया का रूप होती है और उम्र में आपसे छोटी ही क्यों ना हों उनके पैर छूकर ही प्रसाद ग्रहण करना होता है आपको। नारी-सशक्तिकरण के किसी नारे में इतनी ताकत हो तो बताएं।

कोई पर्व एक साथ इतनी विलक्षण खूबियों को अपने में नहीं समा सकता, इसीलिए छठ ‘महापर्व’ है। हमारी आस्था का, हमारे संस्कार का, हमारी पवित्रता का, हमारे विस्तार का ‘महापर्व’। मिट्टी के सोंधेपन से सने छठ के गीत सुनकर जब तक आपके रोम-रोम झंकृत होते रहेंगे तब तक समझिए अपनी जड़ से जुड़े हैं आप और तथाकथित ‘आधुनिकता’ की कैसी भी आंधी क्यों ना हो बहुत मजबूती से टिके हैं आप।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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