इतिहास केवल समय के बहाव और उस पर अंकित तारीखों में नहीं होता, इतिहास मानव-मन के भीतर हिलोड़ें लेती भावनाओं का भी हो सकता है। अगर भीतर के इस इतिहास को आकार लेते देखना हो तो एक बार स्वेतलाना एलेक्सिएविच को जरूर पढ़ें जिन्हें 2015 का साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला है। स्वेतलाना साहित्य का नोबेल पानेवाली चौदहवीं महिला और पहली पत्रकार हैं। उन्हें यह सम्मान भावनाओं के इतिहास को संकलित करने वाली उनकी खोजी किताबों के लिए दिया गया है जिनमें पूर्व सोवियत संघ के लोगों के जीवन को उन्होंने गजब की बारीकी से उकेरा है। आज जबकि पत्रकारिता ‘सेंशेसन’ में खोती जा रही है, स्वेतलाना हमें बहुत शिद्दत से बताती हैं कि उसे कैसे सृजन से नया आयाम दिया जा सकता है।
दुनिया के इस सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार के लिए इस साल 198 लोगों को नामांकित किया गया था लेकिन चुना गया 67 साल की स्वेतलाना एलेक्सिएविच को। स्वेतलाना के नाम की घोषणा करते हुए नोबेल कमिटी ने तीन चीजों को खास तौर से रेखांकित किया। स्वेतलाना को भीड़ से अलग करने वाली वे तीन चीजें हैं – ‘विविधता से भरा लेखन’, ‘पीड़ा का स्मारक’ और ‘हमारे समय में साहस’। प्रत्यक्षदर्शियों की जुबान से कहानी कहने में महारत रखने वाली स्वेतलाना की कृतियां ‘वॉयसेस ऑफ यूटोपिया’ कही जाती हैं। स्वीडिश अकादमी, स्टॉकहोम की सचिव सैरा डैनियुस ने बिल्कुल सही चिह्नित किया है कि उनके लेखन में ‘ऐतिहासिक घटनाएं नहीं’ बल्कि ‘भावनाओं का इतिहास’ है।
स्वेतलाना का जन्म 31 मई, 1948 को यूक्रेन के शहर स्तानिस्लाव में हुआ। उन्होंने यूक्रेन, फ्रांस और बेलारूस में लम्बा समय बिताया। उनके पिता बेलारूस के थे और माँ यूक्रेन की। 1962 में स्वेतलाना अपने माता-पिता के साथ बेलारूस आ गईं और यहीं पर अपनी पढ़ाई पूरी की। इस नोबेल पुरस्कार विजेता ने एक स्थानीय अखबार में रिपोर्टिंग करने के लिए स्कूल की पढाई छोड़ दी थी। खैर, स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने पत्रकार व शिक्षिका के रूप में कार्य किया। इसी दौरान उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध, सोवियत-अफगान युद्ध, सोवियत संघ के पतन और चेरनोबिल आपदा जैसे विषयों पर लिखा। 1985 में उनकी पहली किताब ‘वॉर्स अनवुमेनली फेस’ आई जिसकी अब तक 20 लाख प्रतियां बिक चुकी हैं। खोजी प्रकृति की स्वेतलाना ने इस किताब के लिए द्वितीय विश्वयुद्ध में भाग लेने वाली सैकड़ों महिलाओं का इंटरव्यू लिया था।
विषय-चयन और पूर्वतैयारी की बात करें तो स्वेतलाना एलेक्सिएविच सधी हुई पत्रकार हैं और जब वो ‘ट्रीटमेंट’ और विश्लेषण पर आती हैं तो करुणा से ओतप्रोत साहित्यकार दिखेंगी। यूक्रेन के चेरनोबिल परमाणु संयंत्र में 1986 में हुए हादसे पर लिखी गई उनकी बहुचर्चित किताब ‘वॉयसेस ऑफ चेरनोबिल’ इसका लाजवाब उदाहरण है। उनकी एक और किताब है ‘सेकैंड हैंड टाइम’ जिसमें वो बड़ी संवेदना के साथ पड़ताल करते दिखेंगी कि सोवियत संघ के विघटन के बाद सोवियतकालीन पीढ़ियों ने खुद को नई दुनिया में कैसे ढाला। ‘जिंकी ब्वॉयज’, ‘द लास्ट विटनेसेज : द बुक ऑफ अनचाइल्डलाइक स्टोरीज’ तथा ‘एनचांटेड विथ डेथ’ उनकी अन्य कृतियां हैं।
स्वेतलाना की रचनाओं का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है। कई अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार उन्हें मिल चुके हैं। उनकी स्वीकार्यता आज दुनिया भर में है लेकिन ये तथ्य हैरान करता है कि रूसी भाषा में लिखी उनकी कुछ किताबें ‘विवादों’ का शिकार होकर उनके अपने ही देश में प्रकाशित नहीं हो पाईं। कारण जो भी हो, अभिव्यक्ति पर इस तरह की ‘बंदिश’ बताती है कि आज भले ही चाँद के बाद मंगल पर भी दस्तक दे दी हो हमने, पर सच ये है कि धरती पर रहना भी हम ठीक से नहीं सीख पाए अब तक। स्वेतलाना एलेक्सिएविच, सलमान रश्दी या तसलीमा नसरीन जैसों का महत्व इस कारण भी है कि वे हमें इस बात की याद दिलाते रहते हैं।
साहित्य में पत्रकारिता की इतनी प्रांजल और संवेदनशील उपस्थिति स्वेतलाना से पहले नहीं थी, स्वेतलाना से पहले किसी पत्रकार को साहित्य का नोबेल नहीं मिला था और लेखकीय प्रतिबद्धता के लिए किसी नारी के ऐसे संघर्ष का उदाहरण भी कदाचित् नहीं दिखता। कहने की जरूरत नहीं कि स्वेतलाना एलेक्सिएविच ने अकेले अपने दम पर साहित्य, नोबेल और नारी तीनों का दायरा एक साथ बढ़ाया है।
चलते-चलते
अगर आप जानने को उत्सुक हैं कि स्वेतलाना एलेक्सिएविच से पहले किन तेरह महिलाओं को साहित्य का नोबेल मिला तो ये रही पूरी सूची – 1909 में सेल्मा ओटालिया लोविसा लाजरोफ (स्वीडन), 1926 में ग्रेजिया डेलेड्डा (इटली), 1928 में सिगरिड उंडसेट (नॉर्वे), 1938 में पर्ल एस. बक (अमेरिका), 1945 में गेब्रिएला मिस्त्राल (चिली), 1966 में नेली साक्स (स्वीडन-जर्मनी), 1991 में नेडिन गोर्डिमर (दक्षिण अफ्रीका), 1993 में टोनी मॉरिसन (अमेरिका), 1996 में विस्लावा सिम्बोर्सका (पोलैंड), 2004 में एल्फ्रीड जेलिनेक (ऑस्ट्रिया), 2007 में डोरिस लेसिंग (इंग्लैंड), 2009 में हर्टा म्यूलर (जर्मनी-रूमानिया), 2013 में एलिस मुनरो (कनाडा) और 2015 में स्वेतलाना एलेक्सिएविच (बेलारूस)।
मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप