हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी / जिसको भी देखना हो कई बार देखना – निदा फ़ाज़ली ने ये पंक्तियां आज के आदमी के लिए कही हैं पर ये आज के समाज और पूरे समय के लिए भी उतनी ही मौजू हैं और सबसे अधिक मौजू हैं आज की राजनीति के लिए। आज राजनीति ऐसी हो चुकी है कि आप जो चेहरा लेकर सुबह निकलते हैं, शाम उसी चेहरे के साथ वापस नहीं आते। आपके कितने चेहरे हैं और कितने हो सकते हैं ये स्वयं आप भी नहीं जान रहे होते। ये स्थिति सचमुच बहुत खतरनाक है। आज हम मुखौटों के युग में रह रहे हैं और मुखौटे ही हमारा चेहरा हैं। बस जरूरत के अनुसार आप अपना मुखौटा बदलते रहिए, गिनने की क्या जरूरत है कि आपके भीतर आदमी दस-बीस हैं या उससे भी ज्यादा।
बहरहाल, मुद्दे पर आते हैं और बिहार चलते हैं जहाँ ‘मुखौटों’ के लिए सबसे माकूल मौसम चल रहा है अभी। कहने की जरूरत नहीं कि मुखौटों की फसल चुनाव के मौसम में लहलहाने लगती है। क्या पार्टी, क्या नेता, क्या कार्यकर्ता सभी ताबड़तोड़ मुखौटा उपजाते दिख जाएंगे आपको। पर मजे की बात तो ये है कि मुखौटों की भीड़ में सबसे बड़ा मुखौटा ये होता है कि मैं तो बिना मुखौटे के खड़ा हूँ, आप तो बस सामनेवाले को पकड़िए जिसने फलां मुखौटा पहना हुआ है।
अगर कहा जाय कि बिहार में असली लड़ाई ‘मुखौटे’ को लेकर है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इधर महागठबंधन शोर मचा रहा है कि भाजपा पार्टी नहीं, आरएसएस का मुखौटा है केवल तो उधर एनडीए चिल्ला-चिल्ला कर बोल रहा है कि नीतीश तो मुखौटा हैं केवल, पीछे लालू का जंगलराज पार्ट-2 है। अब ये जनता पर है कि वो किसके मुखौटे को उतारेगी। जिसका मुखौटा उतरेगा वो मैदान से बाहर।
लालू लम्बे समय से भाजपा पर संघ का मुखौटा होने का आरोप लगाते रहे हैं। और अब भाजपा से रिश्ता टूटने के बाद नीतीश भी उनके सुर में सुर मिलाने लगे हैं। संघप्रमुख मोहन भागवत ने बीच चुनाव में आरक्षण की ‘समीक्षा’ की बात कहकर इन दोनों को और ताल ठोकने का मौका दे दिया। अब दोनों ललकार कर कह रहे हैं कि हिम्मत है तो आरक्षण खत्म करके दिखाएं। वे लोगों को समझा रहे हैं कि भाजपा आरएसएस का राजनीतिक संगठन है, जो आरएसएस का विचार है वही भाजपा का विचार है। भाजपा अगर बिहार में सत्ता में आई तो आरक्षण खत्म कर देगी। शुरू में भाजपा इस मुद्दे पर बैकफुट पर जाते दिखी लेकिन जल्द ही उसके सारे नेता ये विश्वास दिलाने में जुट गए कि भाजपा भी आरक्षण का समर्थन करती है और इसमें कोई बदलाव नहीं होगा। भाजपा ने एक तरफ ‘डैमेज कंट्रोल’ तो दूसरी तरफ हमला तेज करने की नीति बनाई। अमित शाह गरजकर कहने लगे कि नीतीश के मुखौटे के पीछे लालू का ‘जंगलराज’ खड़ा है। नीतीश विकास की बात कर लोगों को गुमराह कर रहे हैं। बोलते-बोलते वो यहाँ तक बोल गए कि अब नीतीश के लिए बिहार में कोई जगह नहीं है। साथ में ये भी कि 8 नवंबर यानि मतगणना के दिन वो अपना इस्तीफा तैयार रखें। अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष के नक्शेकदम पर सुशील मोदी समेत बिहार के बाकी नेता भी अपने-अपने तरीके से मुखौटे की बात दोहराते हैं। और इस तरह, ‘मंच’ हो कोई भी, दोनों गठबंधन बस ‘मुखौटे’ का गीत गाते हैं।
कहने की जरूरत नहीं कि मुखौटे की माया बहुत बड़ी है। इस माया से सर्वथा मुक्त होना सम्भव भी नहीं। चुनाव में चाहे जो जीते, राज तो कोई ‘मुखौटा’ ही करेगा। मुखौटे का ही ‘राज’ और मुखौटे का ही ‘धर्म’। (पत्रकार से पॉलिटिशियन बने आशुतोष ने अपनी किताब का नाम ‘मुखौटे का राजधर्म’ बहुत सोचकर रखा होगा..!) लेकिन अपने-अपने मुखौटे पर इतराते नेताओं और कार्यकर्ताओं को एकबारगी ये भी सोच लेना चाहिए कि जिस जनता के बीच वो मुखौटा पहने घूम रहे हैं वो भी मुखौटे में हो सकती है और जिस दिन जनता मुखौटा पहन लेगी वो कहीं के नहीं रहेंगे। फिर तो करोड़ों मुखौटे मिलकर उनके चेहरे पर एक पर एक चढ़े मुखौटों को उतारेंगे जैसे प्याज को उघेरते हैं परत-दर-परत।
मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप