अरविन्द केजरीवाल… भारतीय राजनीति में इस नाम ने जैसा स्थान बनाया और जितनी तेजी से बनाया वो अपने आप में अनूठा है। पारदर्शी और जवाबदेह प्रशासन के लिए जब सन् 2000 में केजरीवाल ने दिल्ली में ‘परिवर्तन’ नाम से नागरिक आन्दोलन शुरू किया तब उन्होंने हरगिज ना सोचा होगा कि इस ‘परिवर्तन’ से एक दिन पूरी ‘दिल्ली’ परिवर्तित हो जाएगी। सूचना के अधिकार के लिए अपने संघर्ष और 2006 में ‘रमन मैग्सेसे’ मिलने के बाद वो चर्चा में आए, और छाए अन्ना हजारे के साथ जनलोकपाल आन्दोलन से। आगे चलकर 2012 में आम आदमी पार्टी के गठन से लेकर 2013 में दिल्ली के मुख्यमंत्री पद तक का उनका सफर किसी स्वप्न जैसा है। इतिहास में ‘संघर्ष’ होते रहे हैं और होते रहेंगे लेकिन ‘संघर्ष’ का इस तरह से ‘मुकाम’ पाना बार-बार होने की चीज नहीं है।
‘जंतर-मंतर’ से दिल्ली के मुख्यमंत्री के ‘दफ्तर’ का सफर अरविन्द केजरीवाल ने इतनी जल्दी तय किया था कि वे ‘शासन’ और ‘आन्दोलन’ में फर्क ही नहीं कर पाए। नतीजा यह हुआ कि दिल्ली का मुख्यमंत्री खुद बात-बात पर धरने पर बैठ जाता था। अपने वादों को भी वो आन्दोलन की तरह ही पूरा करना चाहता था, जो व्यवहार में सम्भव ना था। अंतत: महज 49 दिनों में उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। दिल्ली की जनता ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया की और उन्हें अपने ‘भगोड़ेपन’ का अहसास हो गया। बिना देर किए ‘प्रायश्चित’ में उन्होंने पूरी ताकत झोंक दी और दिल्ली ने उन्हें माफ भी कर दिया। उदार और दिलदार दिल्ली ने 2015 में उन्हें 70 में से 67 सीटें दे दीं।
ऐसे मेनडेट के बाद दिल्ली और देश को भी केजरीवाल से कुछ अलग और कुछ ज्यादा अपेक्षा है तो ये अत्यन्त स्वाभाविक है। खुद से जुड़ी अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए उन्हें ना केवल अतिरिक्त मेहनत करनी होगी बल्कि अतिरिक्त गम्भीरता भी बरतनी होगी। लेकिन इस गम्भीरता की कमी केजरीवाल में ‘गम्भीर’ रूप से है। आए दिन अपने ‘अगम्भीर’ बयानों से केजरीवाल अपने चाहनेवालों को निराश करते रहते हैं। दिल्ली के एलजी नजीब जंग और नरेन्द्र मोदी के नेतृत्ववाली सरकार को लेकर उनके ज्यादातर बयान ऐसे ही होते हैं। चलिए मान लेते हैं कि नजीब जंग से उनकी ‘तनातनी’ दिल्ली सरकार के कामकाज या अधिकार-क्षेत्र को लेकर है और दिल्ली की सवा करोड़ जनता का प्रतिनिधि होने के नाते उन्हें बहुत हद तक बोलने का हक भी मिल जाता है। लेकिन सवा करोड़ जनता के प्रतिनिधि का सवा सौ करोड़ लोगों के प्रतिनिधि को लेकर अमर्यादित बयान देना सचमुच निराश करता है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अभी अमेरिका के दौरे पर थे। वहाँ 25 सितम्बर को उन्होंने सतत विकास शिखर सम्मेलन में विश्व भर के राष्ट्राध्यक्षों को संबोधित किया, जिसकी मेजबानी संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की-मून ने की। इस महत्वपूर्ण दौरे के अन्तिम दिन यानि 28 सितम्बर को अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ उनकी एक साल के भीतर तीसरी शिखर बैठक हुई। इस बैठक के अतिरिक्त संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में उच्च स्तरीय शांतिरक्षा शिखर सम्मेलन और विश्व के कई नेताओं – ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन, फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांसुआ ओलांद, कतर के अमीर शेख हमद बिन खलीफा अल थानी, मेक्सिको के राष्ट्रपति एनरीक पेना नीटो और फिलीस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास – से मोदी की द्विपक्षीय मुलाकातों का व्यस्त कार्यक्रम था। पर उनकी इस यात्रा में जो बात सबसे अधिक सुर्खियों में रही वो थी फेसबुक के सीईओ मार्क जुकरबर्ग, एप्पल के सीईओ टिम कुक, गूगल के सीईओ सुन्दर पिचाई और माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ सत्य नडेला से उनकी मुलाकात। विश्व के इन शीर्षस्थ ‘कार्यकारी अधिकारियों’ के साथ मोदी की मुलाकात ‘डिजिटल इंडिया’ और ‘मेक इन इंडिया’ की सम्भावनाओं के लिहाज से कितनी महत्वपूर्ण थी, ये कहने की जरूरत नहीं। मोदी ने इन दिग्गज कम्पनियों को भारत में निवेश के लिए आमंत्रित किया।
बहरहाल, पूरा देश इन मुलाकातों को लेकर उत्सुक था और उत्साहित भी कि इसी दरम्यान 27 सितम्बर को केजरीवाल का बयान आता है कि मोदी विदेश में ‘गिड़गिड़ा’ रहे हैं। उन्होंने बाकायदा ट्वीट करके कहा कि अगर हम मेक इंडिया कर लेंगे तो मेक इन इंडिया ऑटोमेटिक हो जाएगा। उन्होंने कहा कि अगर हम अपने देश को विकसित कर लेंगे तो दूसरे देश यहाँ खुद निवेश करने आएंगे। हमें उनके दरवाजों पर जाकर निवेश के लिए ‘गिड़गिड़ाना’ नहीं पड़ेगा।
सबसे पहली बात तो ये कि ‘मेक इंडिया’ को ‘मेक इन इंडिया’ से अलग करके देखा ही नहीं जा सकता। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दूसरे, नई सम्भावनाओं को तलाशना, अपने आयाम को बढ़ाना कहीं से भी गिड़गिड़ाना नहीं कहा जा सकता। तीसरे, मोदी वहाँ ‘व्यक्ति मोदी’ या ‘भाजपाई मोदी’ नहीं बल्कि ‘भारत के प्रधानमंत्री’ मोदी थे और यहाँ के सवा सौ करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। ऐसे में शब्दों के चयन में गरिमा और गम्भीरता निहायत जरूरी था।
केजरीवालजी को कुछ कहने से पहले ‘सिलिकॉन वैली’ से ‘सैप सेन्टर’ तक ‘मोदी-मोदी’ की गूंज जरूर सुननी चाहिए थी। ये गूंज किसी ‘गिड़गिड़ाने’ वाले के लिए नहीं, करोड़ों आँखों में 21वीं सदी के भारत के लिए उम्मीद और विश्वास जगाने वाले के लिए थी। उन्हें सुनना चाहिए था कि मोदी ‘उपनिषद’ से ‘उपग्रह’ की यात्रा को किस नजरिए से देखते हैं और अपनी तमाम ‘यात्राओं’ से उसे कैसा विस्तार देना चाहते हैं। ‘हाशिए’ पर खड़े भारत को ‘केन्द्रबिन्दु’ में लाना हो तो बात केवल ‘दिल्ली’ से नहीं बनेगी। पूरी दुनिया का भरोसा आपको जीतना होगा। मोदी नाम के इस शख्स ने अपने विज़न, अपने आत्मविश्वास, अपनी ऊर्जा से सात समुन्दर पार भी अपने लिए भरोसा पैदा किया है तो ये बड़ी बात है। देखा जाय दुनिया का ये भरोसा मोदी के बहाने (और मोदी के मुताबिक) उस भारत के लिए है जिसकी 65 प्रतिशत आबादी 35 साल से कम की है और जिसे अभी बहुत लम्बा सफर तय करना है।
अन्त में, बहुत विनम्रता से कहना चाहूँगा केजरीवालजी से कि कमेंट करने से कद बड़ा नहीं होता। कद केवल और केवल काम से बड़ा होता है। मोदी अपना काम कर रहे हैं और केजरीवाल अपना काम करें। कमेंट करने का काम ‘समय’ पर छोड़ दें। वो हर किसी पर और हर दम सही ‘कमेंट’ करता है।
पुनश्च :
आज से लगभग साल भर पहले मोदी अमेरिका गए थे। प्रधानमंत्री के रूप में यह उनकी अमेरिका की पहली यात्रा थी। पाँच दिन की उस यात्रा के अंतिम दिन उपराष्ट्रपति जो बिडेन की तरफ से मोदी के सम्मान में लंच का आयोजन किया गया। उस मौके पर अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन कैरी ने कहा था कि हम चाहते हैं कि भारत के विकास में प्रधानमंत्री मोदी के योगदान और भारत की आजादी में महात्मा गांधी के योगदान को एक तरह से याद किया जाय। यहाँ इस वाकये को सुनाने का यह मतलब कतई नहीं कि मोदी को महात्मा गांधी के बराबर में खड़ा किया जाय या कैरी ने मोदी के लिए जो कहा वैसा ही कुछ केजरीवाल भी कहें लेकिन इतना कहना तो जरूर बनता है कि जब घर के ‘मुखिया’ को ‘बाहरवाले’ इज्जत दे रहे हों तो ‘घरवालों’ की भी इज्जत (और साख भी) बढ़ती है, किसी भी सूरत में घटती तो हरगिज नहीं।
मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप