कुछ लोग होते हैं जिन्हें ईश्वर विशेष तौर पर हमारे बीच भेजते हैं… हमें सींचने… हमें संस्कारित करने… हमें और हमारी कई पीढ़ियों को सम्हालने। ऐसे लोगों के भी होते और दिखते दो ही हाथ हैं हमारी तरह लेकिन जब वे नहीं रहते हमारे बीच तब हम उनके ‘अवदान’ को गिनने बैठते हैं और जब गिनते-गिनते थक जाते हैं तो सोचते हैं, पता नहीं ना दिखने वाले कितने हाथ थे उनके। जी हाँ, ऐसे लोग हमें कई-कई हाथों से, कई-कई रूपों में देते हैं और जीवन-पर्यन्त देते ही रहते हैं। ऐसे ही थे डॉ. (मेजर) उपेन्द्र नारायण मंडल… हम सबके ‘मेजर साहब’, जिन्होंने मधेपुरा की एक नहीं, दो नहीं, पूरी पाँच पीढ़ियों को दिया और ‘बहुत कुछ’ दिया। 17 सितंबर… भगवान विश्वकर्मा का दिन… इसी दिन मधेपुरा को भले ही अपनी सीमा में लेकिन अपनी तरह गढ़ने वाले इस ‘विश्वकर्मा’ का जन्मदिन था… कुल मिलाकर 90वां और हमारे बीच उनके ना रहने के बाद पहला जन्मदिन।
पेशे से चिकित्सक, व्यक्तित्व से मेजर, व्यवहार से समाजसेवी और संस्कार से संत – ये थे डॉ. (मेजर) उपेन्द्र नारायण मंडल, जिन्हें मधेपुरा ने उनकी जयंती पर बड़ी शिद्दत और श्रद्धा से याद किया। इसी वर्ष 29 जनवरी को 89 वर्ष की उम्र में उनका देहावसान हुआ था।
मेजर साहब का जन्म 17 सितम्बर 1926 को मधेपुरा के तुनियाही गाँव में हुआ था। अपने जमाने के प्रसिद्ध व अनुशासनप्रिय अधिवक्ता बाबू रघुनंदन प्रसाद मंडल के वे बड़े पुत्र थे। एमबीबीएस करने के बाद 1955 से 1960 तक वे बिहार सरकार की सेवा में रहे। 1961 में उन्होंने मेडिकल ऑफिसर के तौर पर इंडियन आर्मी ज्वाइन की। इस इलाके से ‘मेजर’ होने वाले वे पहले शख़्स थे। 1975 में जब वे सेना से सेवानिवृत्त हुए, उनके पास भारत-चीन और भारत-पाकिस्तान युद्ध समेत कई बड़े अवसरों के गौरवशाली संस्मरण थे।
आर्मी में उनका काम पूरा हो गया था लेकिन ‘युद्ध’ के लिए नई भूमि तैयार थी उनके लिए। 1975 में मधेपुरा आकर उन्होंने ‘जयश्री क्लिनिक’ (जयश्री उनकी धर्मपत्नी का नाम था) की शुरुआत की। वैसे गरीब और असहाय जो अब तक चिकित्सा के लिए भगवान भरोसे थे, उनके बीच सचमुच का ‘भगवान’ आ गया था। ऐसे लोगों से उन्होंने ‘फीस’ कभी मांगी नहीं और किसी ने दी तो गिनी नहीं। अहले सुबह से देर रात तक लोगों की कतार लगी रहती थी और ये सैनिक अपनी ‘युद्धभूमि’ में डटा रहता था। ये सिलसिला अनवरत 40 वर्षों तक चलता रहा, 89 वर्ष की उम्र में बाथरूम में फिसलने पर पेल्विक बोन टूट जाने तक।
मेजर साहब जहाँ एक ओर लाजवाब चिकित्सक और आईएमए, मधेपुरा के अध्यक्ष थे, वहीं दूसरी ओर परमहंस महर्षि मेंहीदास के अनन्य शिष्य और अखिल भारतीय संत मत के उपाध्यक्ष भी। अध्यात्म की जैसी सर्वग्राह्य व्याख्या उनके पास थी, वो अन्यत्र दुर्लभ है। ईश्वर-भक्ति और शिक्षा की ‘लौ’ वो एक साथ जलाते रहे। रघुनंदन प्रसाद मंडल इंटर व डिग्री कॉलेज की स्थापना इसी का परिणाम थी। वो इन दोनों कॉलेजों के संस्थापक सचिव थे। तुनियाही में माध्यमिक विद्यालय की स्थापना भी उन्होंने की। यही नहीं, इस इलाके की शायद ही कोई सांस्कृतिक या सामाजिक गतिविधि ऐसी होती हो जिससे उनका प्रत्यक्ष या परोक्ष जुड़ाव ना रहता हो। बता दें कि मेजर साहब विश्व हिन्दू परिषद्, मधेपुरा के अध्यक्ष और बिहार के उपाध्यक्ष भी थे।
अनुशासनप्रिय वे अपने पिता के समान थे। कर्तव्यनिष्ठ ऐसे कि उनकी कसमें खाते थे लोग। जीवन में किसी भी चीज का ‘अपव्यय’ करते उन्हें ना किसी ने देखा ना सुना। एक बहुत खास बात और, सत्संग उनकी दिनचर्या ही नहीं, उनके पूरे व्यक्तित्व का अनिवार्य अंग था। इतना अनिवार्य कि जन्मदिन हो या पुण्यतिथि, सत्संग के बिना कोई ‘अवसर’ पूरा नहीं होता था उनके लिए। अपना हर जन्मदिन वो सत्संग करके मनाते थे और उनकी इच्छा के मुताबिक उनके ना रहने पर भी सत्संग करके ही उनकी जयंती मनाई गई। उन्हीं के आवास पर और वो भी बहुत सादगी से। उनके परिवार के तमाम लोगों के साथ-साथ उनके चाहने वालों का तांता लगा रहा दिन भर। सबको विश्वास था मानो कि सत्संग है तो मेजर साहब भी होंगे ही, और रहेंगे ही ‘ना रहकर’ भी। मधेपुरा के ‘तन’ और ‘मन’ की एक साथ चिकित्सा करनेवाले उस कर्मयोगी सैनिक-संत को मधेपुरा अबतक का शत् शत् नमन।
मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप