जन्माष्टमी यानि कृष्ण का जन्मदिवस और शिक्षक दिवस… दोनों एक दिन… इससे अधिक सुखद संयोग हो ही नहीं सकता। कृष्ण सभी गुणों, सारी कलाओं और समस्त लीलाओं में पूर्ण हैं। विष्णु के जितने भी अवतार हैं, उनमें ‘पूर्ण’ केवल कृष्ण हैं। लेकिन जब ‘पूर्णता’ की बात आती है तब उनके ‘प्रेमी’, ‘सखा’ या ‘सारथी’ रूपों की चर्चा तो होती है, उनके शिक्षक रूप की नहीं। जबकि सच तो ये है कि कृष्ण से बड़ा ‘शिक्षक’ सम्पूर्ण मानव-सभ्यता में हुआ ही नहीं। गीता से बड़ा अवदान और उससे बड़ा ज्ञान ना तो किसी शिक्षक ने दिया है, ना देगा। अर्जुन तो निमित्त मात्र थे, वास्तव में उन्हें सम्पूर्ण मानव-सभ्यता को ‘कर्मयोग’ का ज्ञान देना था। तब भले ही द्वापर हो और सामने महाभारत का युद्ध, उन्हें पता था कि आनेवाले समस्त युगों में जीवन का हर ‘युद्ध’ इसी ‘कर्मयोग’ से लड़ा जाना है।
आधुनिक युग में इस ‘कर्मयोग’ के कई ‘व्याख्याता’ हुए। लेकिन व्याख्या वही पूर्ण है जो कलम के साथ-साथ कर्म से भी की गई हो। इस कसौटी पर भी कई नाम खरे उतरते हैं लेकिन एक आखिरी कसौटी भी है जिस पर बिरले ही खरे उतर पाते हैं और वो है अपने कर्म को मानवमात्र के कल्याण से जोड़ देने की नैसर्गिक कला। ये कला सिर्फ एक सच्चे शिक्षक में हो सकती है। सिर्फ वही ‘शिक्षक’ कृष्ण की गौरवशाली परम्परा से जुड़ सकता है। इस कसौटी पर मैं चार नाम लूंगा और वो नाम हैं – महात्मा गांधी, रवीन्द्रनाथ टैगोर, सर्वपल्ली राधाकृष्णन और एपीजे अब्दुल कलाम। इन चारों ने अपने जीवन का हर क्षण ‘कर्म’ के योग, जीवन में उसके प्रयोग और मानवजाति के लिए उसके उपयोग में बिताया था। इन सबने आदर्श ‘शिक्षक’ का धर्म आजीवन निभाया था।
शिक्षक होने के लिए किसी स्कूल-कॉलेज-यूनिवर्सिटी का होना जरूरी नहीं। इस तरह तो कृष्ण भी शिक्षक नहीं कहलाएंगे। देखा जाय तो, महात्मा गांधी पेशे से वकील थे, टैगोर साहित्य और कला के साधक और कलाम ‘मिसाइलमैन’। इन सबमें राधाकृष्णन जरूर पेशे से शिक्षक थे। लेकिन ये सब जो भी रहे हों, जिस भी रूप में रहे हों, जहाँ भी रहे हों, सबसे पहले ‘शिक्षक’ थे क्योंकि इन सभी में अपने कर्म को मानवमात्र के कल्याण से जोड़ देने की नैसर्गिक कला थी। गांधी और टैगोर की बात करें तो ‘साबरमती आश्रम’ और ‘शांति निकेतन’ अपने-अपने उद्देश्यों के साथ अपने समय में ‘शिक्षा’ के सबसे बड़े केन्द्र थे। उधर राधाकृष्णन और कलाम राष्ट्रपति भवन में रहते हुए भी अपनी असल भूमिका नहीं भूले बल्कि और बड़े मंच से उसे विस्तार ही दिया।
कृष्ण से कलाम को और इनके बीच की कड़ियों गांधी, टैगोर, राधाकृष्णन को कुछ जोड़ता है तो वो है केवल और केवल इनका ‘कर्म’, जो इतना पारदर्शी है कि कोई भी उसमें अपनी छवि देख ले। ‘व्यष्टि’ लीन हो जाय ‘समष्टि’ में और आपको पता भी ना चले। आज टीवी, मोबाइल और इंटरनेट जैसे जोड़ने और जुड़ने के बहुतेरे साधन हैं जिनकी पहले कल्पना भी सम्भव नहीं थी लेकिन क्या ऐसा कोई साधन है जो आपको स्वयं से और आपके कर्म को मानव-मर्म से जोड़ दे..? और इस तरह जुड़-जुड़कर एक दिन इतने विराट हो जायें आप कि पूरी सृष्टि ही अपनी परछाई लगे..? ऐसा हो सकता है, अगर आपको कर्मयोग तक ले जानेवाला कोई कृष्ण या उनकी राह पर चलनेवाला कोई कर्मयोगी शिक्षक मिल जाय।
आपने कभी सोचा कि राधाकृष्णन का जन्मदिवस ही शिक्षक दिवस क्यों है..? राधाकृष्णन को चाहनेवाले उनके जन्मदिन को खास तौर पर मनाना चाहते थे और राधाकृष्णन ये सम्मान अपने ‘शिक्षक’ को देना चाहते थे। उन्होंने अपने जीवन को शिक्षक-धर्म से एकाकार कर लिया था, इसीलिए उनका जन्मदिवस शिक्षक दिवस है। उस कर्मयोगी को पता था कि जब-जब दुनिया राह भटकेगी तब-तब किसी ‘शिक्षक’ को ही राह दिखाने आना होगा। इसी सत्य को शाश्वत रखने का पर्व है ‘शिक्षक दिवस’ और इसके सबसे बड़े प्रतीक हैं संसार को ‘गीता’ की शिक्षा देनेवाले ‘कर्मयोगी कृष्ण’।
- मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप