नोट : डॉ. रवि की यह कविता 1994 में प्रकाशित उनके चर्चित काव्य-संग्रह ‘ओ समय !’ से ली गई है। कृष्ण के बहाने इस कविता में आज के समय, समाज और सियासत पर बड़ी महत्वपूर्ण टिप्पणी की है कवि ने।
डॉ. रवि : पूरा नाम डॉ. रमेन्द्र कुमार यादव रवि। जन्म : 3 जनवरी 1943 को मधेपुरा जिला के चतरा गाँव में। कुल बारह पुस्तकें प्रकाशित। भारत के लगभग तमाम प्रतिष्ठित पुस्तकालयों के साथ-साथ संसार के एक सौ दस देशों में रचनाएं मौजूद। विधानसभा, लोकसभा और राज्यसभा के सदस्य तथा भूपेन्द्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा के संस्थापक कुलपति रहे। साहित्यिक, सांस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों में लगातार सक्रिय।
ओ कृष्ण ..!
ओ कन्हैया ..!!
ओ काले ..!!!
सुना है तुम
बार-बार
हर बार
घुप्प अंधेरे में ही
जन्म लेते हो !
हम जो नाशवान हैं
एक बार जन्म लेते हैं
पाप और पुण्यों के बीच
मथित, पीड़ित
अपरिभाषित ही
दम तोड़ देते हैं।
सुना है
राहें पनाली
रेतीली थीं
हाथ को हाथ
नहीं सूझता था
ऐसी अंधियारी थी।
ओ कन्हैया ..!
विगत कष्टों
हिंसाओं
के दौर में
अधर्म
अनीति
और
अन्याय से बचाने
तुम अवतरित हुए।
इतनी बार
सृष्टि ने
तुम्हें जना
फिर क्यों
ओ काले..!
यह कुत्सा है
कुबास है
कड़वाहट है..?
तेरे जन्मकाल में
हाथ को हाथ
नहीं दिखता था
अब तो
श्वेत भी निशा है
स्नेह भी शनि है
और
दिव्यदृष्टि से
अन्तर
चर्म चक्षु से बाहर
शायद
तब दिखता हो –
अब तो आंखें ही नहीं रहीं
विवेक बिक गया
यह भारत
यह माता
अब
बांझ और बोझिल है
नहीं तो
इतनी बार
जन्म लेने पर भी
यह घुप्प अंधेरा क्यों ..?
ओ कृष्ण ..!
ओ कर्ता.. !!
ओ अष्टकारक ..!!!
क्यों यह अरिष्ट है
क्यों यह अष्टग्रह
शस्य श्यामला धरती
क्यों आज उदास
स्याह और सर्द है ..?
निशीथ की आजादी
जन्म तेरा निशीथ का
सीलन से भरा समाज
यह स्याह सियासती जंग
इन सर्द जिजीविषाओं से
नासमझ समझौतों को
क्या
तेरा सुदर्शन
चीर नहीं सकता ..?
लील नहीं सकता ..?
[मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. रवि से साभार]