भारत के कुछ पर्व-त्यौहार ऐसे हैं जिनमें सांप्रदायिकता के बंधन टूटते नजर आते हैं। ईद और छठ जैसे महापर्व की भी यही खासियत है। क्या हिंदू क्या मुस्लिम, सबकी आस्था ईद के चांद की तरह छठ के भगवान सूर्य की ओर झुक जाती है। गणेश चतुर्थी यानि चौर-चंदा में हिंदुओं द्वारा चांद देखने और पूजा करने की ओर का झुकाव भी तो इस बंधन को तोड़ता हुआ दिखता है। बापू के गांव में दुर्गा पूजा हो या मुहर्रम, सभी मिलकर मनाते हैं। एकता की खुशबू से सराबोर है बापू का गांव। गांव में नहीं दिखती धर्म की दीवार ! हिंदू-मुस्लिम मिलकर मनाते यह छठ का महात्योहार। इस व्रत के प्रति मुसलमानों की भी अगाध श्रद्धा देखी जाती है। कई गांव में तो सौ वर्षों से छठ व्रत करते आ रहे हैं वे।
बता दें कि यदि ऐसा नहीं होता तो पटना सिटी में हिंदू परिवारों के इस महापर्व छठ को इस कोरोना काल में अच्छी तरह संपन्न कराने में मुस्लिम महिलाओं द्वारा घाट की सफाई नहीं की जाती। जानिए कि यहां के आदर्श घाट पर मुस्लिम समुदाय की महिलाओं का झुंड लगातार कई सालों से छठ जैसे महापर्व के मौके पर सफाई करती आ रही है ताकि छठ व्रती महिलाओं को इस बाबत कोई परेशानी नहीं हो।
यह भी जानिए कि छठ हो या ईद, मुहर्रम हो या दुर्गा पूजा….. इन पर्वों में हिंदू-मुस्लिम नहीं होता है साहब, वो तो सिर्फ नेताओं के चुनावों में ही होता है…. वरना राष्ट्रपिता महात्मा गांधी अपने भजन में यह कभी नहीं बोलते- ईश्वर अल्लाह तेरो नाम सबको सम्मति दे भगवान…… या फिर संपूर्ण भारतीय डॉ.एपीजे अब्दुल कलाम अपने पिता के साथ मस्जिद में नमाज पढ़ने के बाद रामेश्वरम के शिव मंदिर की परिक्रमा हर रोज नहीं किया करते….. या फिर भारत रत्न डॉ.कलाम के अत्यंत करीबी रहे एवं छठ महापर्व को सांप्रदायिकता का बंधन तोड़ने वाला बताते रहने वाले डॉ.भूपेन्द्र नारायण यादव मधेपुरी का दृष्टिकोण इस प्रकार के पवित्र सोच की चर्चा कभी नहीं करता-
होली-ईद मनाओ मिलकर,
कभी रंग को भंग करो मत ।
भारत की सुंदरतम छवि को,
मधेपुरी बदरंग करो मत ।।