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आतंकवाद नहीं इस्लाम का विरोध करेंगे अमेरिका के अगले राष्ट्रपति..?

2008 में जब बराक हुसैन ओबामा को दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र अमेरिका ने अपना राष्ट्रपति चुना तब से पूरी दुनिया ने अमेरिका को एक अलग नजरिये से देखना शुरू किया। ओबामा ना केवल अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति थे बल्कि उनके नाम के ‘बराक’ और ‘ओबामा’ के बीच ‘हुसैन’ भी मौजूद था। ओबामा को चुनकर अमेरिकी जनता ने सचमुच एक ऐतिहासिक फैसला लिया था। अब अमेरिका की छवि केवल वैभवशाली गोरी चमड़ी वाले देश की नहीं रही। ओबामा के रूप में उसने अपना उदारवादी चेहरा दुनिया के सामने रखा और ओबामा ने लगातार दो कार्यकाल में अपने अत्यन्त सहज आचरण से अमेरिकी जनता के उस फैसले को सही साबित किया।

अमेरिका के राष्ट्रपति के रूप में सम्पूर्ण विश्व की दिशा और दशा को प्रभावित करने की ताकत और क्षमता रखने के बावजूद ओबामा ने ना तो अपनी वाणी का संयम खोया ना अपने व्यवहार का। यहाँ तक कि ओसामा बिन लादेन के खिलाफ अपने बड़े और सफल अभियान के बाद भी उनकी ‘छवि’ नहीं बदली। उन्होंने जो किया वो आतंक का पर्याय बन चुके ओसामा के खिलाफ था। उसका इस्लाम से कोई लेना-देना ना तो होना चाहिए था, ना था। लेकिन अब स्थितियां बदल गई हैं। कल का ओसामा आज आईएसआईएस के रूप में सामने है और ओबामा का दूसरा कार्यकाल पूरा होने को है। अमेरिकी संविधान के अनुसार तीसरी बार राष्ट्रपति नहीं हुआ जा सकता इसीलिए तय है कि ओबामा की जगह कोई और आएगा। ऐसे में ये प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि ओबामा का उत्तराधिकारी उनकी नीति और छवि को विस्तार देगा या उसे किसी नई दिशा में मोड़ेगा..?

ओबामा के ‘उत्तराधिकारी’ के तौर पर डेमोक्रेटिक पार्टी से हिलेरी क्लिंटन और रिपब्लिकन पार्टी से डोनाल्ड ट्रंप के नाम खास तौर पर उभर कर सामने आए हैं। जहाँ तक हिलेरी की बात है उनके सौम्य पर सशक्त व्यक्तित्व से दुनिया पहले से वाकिफ है। हिलेरी की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक व आर्थिक नीतियां कमोबेश ओबामा की तरह ही रहेंगी। पर रिपब्लिकन डोनाल्ड ट्रंप अगर सत्ता में आते हैं तब अमेरिका वो हरगिज नहीं रह जाएगा जो अभी है। आप पूछेंगे ऐसा क्यों..? चलिए जानने की कोशिश करते हैं।

डोनाल्ड ट्रंप… न्यूयॉर्क रियल एस्टेट की दुनिया में ये नाम स्टेटस का पर्याय माना जाता है। अगर आप न्यूयॉर्क में हैं और आपके पते में ‘ट्रंप टावर’, ‘ट्रंप प्लेस’, ‘ट्रंप प्लाजा’ या ‘ट्रंप पार्क’ लिखा है तो आप ‘खुशनसीब’ हैं। न्यूयॉर्क समेत अमेरिका के कई शहरों की शानदार गगनचुंबी इमारतें डोनाल्ड ट्रंप की सफलता की कहानी कहती हैं। साइंस ग्रेजुएट और कॉलेज के दिनों में छात्र नेता रहे 69 वर्षीय डोनाल्ड को रियल एस्टेट का कारोबार अपने पिता फ्रेडरिक ट्रंप से 40 साल पहले विरासत में मिला और आज वो करीब 100 कम्पनियों के मालिक हैं। फ्लोरिडा के पाम बीच पर बने बेहद आलीशान ‘ट्रंप पैलेस’ में रहने वाले डोनाल्ड की नज़र अब ‘व्हाइट हाउस’ पर है। डोनाल्ड अमेरिका की रिपब्लिकन पार्टी की ओर से राष्ट्रपति पद के प्रबल दावेदार हैं और चुनाव मैदान में उतरने से पहले ही अपने बयानों की वजह से अमेरिका समेत पूरी दुनिया में जाना-पहचाना नाम बन चुके हैं।

वैसे तो डोनाल्ड ट्रंप के कई बयान इन दिनों चर्चा में हैं पर जिस बयान ने पूरी दुनिया में हंगामा बरपा दिया वो है मुसलमानों को अमेरिका आने से रोकने वाला बयान। उन्होंने कहा कि अगर वो सत्ता में आए तो अमेरिका में मुसलमानों के आने पर प्रतिबंध लगा देंगे। देश को आतंकवाद से बचाने के लिए अमेरिका में मुसलमानों के डेटाबेस की व्यवस्था लागू की जाएगी। ट्रंप के अनुसार अमेरिका के मुसलमानों पर अभूतपूर्व निगरानी जरूरी है। यहाँ तक कि वो मस्जिदों पर भी निगाह रखने की बात कर रहे हैं।

डोनाल्ड जिस एजेंडा को लेकर मैदान में उतरने जा रहे हैं उसमें अमेरिका और मैक्सिको के बीच एक बड़ी दीवार बनाना भी शामिल है ताकि प्रवासी और सीरियाई शरणार्थी अमेरिका में ना घुस सकें। इसके अलावा वो अमेरिका में रह रहे लगभग एक करोड़ ‘अवैध’ प्रवासियों को भी वापस भेजना चाहते हैं। उनका दावा है कि अगर वो अमेरिका के राष्ट्रपति बने तो आतंकी संगठन आईएसआईएस (इस्लामिक स्टेट) पर इतनी कड़ी कार्रवाई करेंगे जितनी अब तक किसी ने नहीं की है।

आतंकवादियों का कोई ‘धर्म’ नहीं होता। उनके खिलाफ डोनाल्ड ट्रंप चाहे जैसी कार्रवाई करें पर मुसलमानों को लेकर दिया गया उनका बयान अमेरिकी मूल्यों और संविधान के खिलाफ है। उनके बयान वैसे ही हैं जैसे भारत में ‘योगी आदित्यनाथ’ या ‘असदउद्दीन ओवैसी’ के होते हैं। हैरानी तो इस बात से होती है कि ऐसे बयानों से वो अमेरिका के एक बड़े तबके का भरोसा जीतने में सफल हो चुके हैं। इसकी पुष्टि हाल ही में हुए एक सर्वेक्षण से होती है जिसमें 39% लोकप्रियता के साथ 11 अंक हासिल कर वो अपने बाकी प्रतिद्वंदियों टेड क्रूज, मार्को रूबियो और बेन कार्सन से काफी आगे निकल चुके हैं। उनकी बढ़ती लोकप्रियता के मूल में अमेरिका का वो कामकाजी तबका है जिसे मुसलमानों का ‘भय’ दिखाकर उन्होंने अपने पक्ष में कर लिया है। कट्टर विचारों वाले डोनाल्ड ट्रंप अत्यन्त कुशल वक्ता भी हैं और इसका उन्हें भरपूर लाभ मिल रहा है।

अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति बराक ओबामा, राष्ट्पति पद के लिए सम्भावित डेमोक्रेटिक उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन, फेसबुक के मार्क जुकरबर्ग, गूगल के सुंदर पिचाई समेत विश्व की कई जानी-मानी हस्तियों ने डोनाल्ड ट्रंप के बयानों की कड़ी आलोचना की है। अमेरिका की डेमोक्रेटिक नेशनल कमेटी के प्रमुख डेबी वासेरमैन शुल्ट्ज ने बिल्कुल सही कहा है कि यह एक खतरनाक और ‘गैरसमावेशी’ सोच है जिससे सात दशक पहले अमेरिका की महानतम पीढ़ी लड़ी और जीती थी। हो सकता है डोनाल्ड ट्रंप द्वारा मुसलमानों का विरोध चुनाव जीतने का ‘ट्रिक’ मात्र हो लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि ऐसी सोच का फिर से पनपना और अमेरिकी आवाम को इस्लाम-विरोध के रास्ते पर डालना अमेरिका समेत पूरी दुनिया के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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मोदी के ‘मैजिक’ से चीन हुआ हलकान, काशी में एक हुए भारत-जापान

काशी के दशाश्वमेघ घाट पर देव दीपावली की तरह हुई भव्य गंगा आरती में भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे एक साथ शामिल हुए और इन दो देशों के रिश्तों के अनगिनत दीप नई रोशनी से जगमगा उठे। इन दीपों की ‘जगमग’ कुछ ऐसी थी कि चीन की आँखें ‘चुंधिया’ गईं। आबे की भारत-यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच हुए ऐतिहासिक समझौतों को चीन अपने खिलाफ ‘गोलबंदी’ बता रहा है। वहाँ के सरकारी अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ ने चेतावनी के लहजे में लिखा कि भारत जापान के साथ मिलकर चीन के खिलाफ कोई ‘गोलबंदी’ ना करे। आखिर भारत-जापान की करीबी से क्यों तिलमिला उठा है चीन..?

चीन की ‘चिन्ता’ पर चर्चा से पहले भारत और जापान के बीच हुए अहम समझौतों को जानना जरूरी है जिनमें बुलेट ट्रेन से लेकर परमाणु समझौता तक शामिल है। सबसे पहले बात करते हैं बुलेट ट्रेन समझौते की। भारत में बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट के लिए जापान 90 हजार करोड़ रुपए की फंडिग करेगा। जापान की मदद से 503 किलोमीटर लम्बे मुंबई-अहमदाबाद रूट पर बुलेट ट्रेन दौड़ेगी जिसकी रफ्तार 300 किमी प्रति घंटे होगी। दूसरा महत्वपूर्ण समझौता भारत में जापानी लोगों के लिए ‘वीजा ऑन अराइवल’ का है जो भारत 1 मार्च 2016 से शुरू करेगा। अब जापान से आनेवाले पर्यटक एवं अन्य लोग भारत आकर वीजा ले पाएंगे। तीसरा समझौता असैन्य परमाणु सहयोग और चौथा रक्षा उपकरण और टेक्नोलॉजी के आदान-प्रदान को लेकर है। यही नहीं, भारत और अमेरिका के संयुक्त युद्धाभ्यास में अब जापान स्थायी रूप से शामिल रहेगा।

वैसे तो ये सारे समझौते चीन को खटक रहे हैं लेकिन पाँचवां समझौता उसे कुछ ज्यादा ही अखरा है। ये समझौता पूर्वोत्तर में सड़क निर्माण को लेकर है जो कि सामरिक दृष्टि से बहुत अहम है। इस समझौते के तहत जापान भारत के साथ मिलकर पूर्वोत्तर में चीन से सटी सीमा पर सड़क का निर्माण करेगा। इससे इस इलाके में भारत की ताकत बढ़ जाएगी।

भारत और जापान के बीच दोस्ती की इस नई और बड़ी कहानी की ईबारत पिछले साल लिखी गई थी जब प्रधानमंत्री मोदी जापान गए थे। चीन पाकिस्तान के साथ मिलकर लम्बे अरसे से भारत को घेरने की कोशिश करता रहा है। अब भारत ने जापान के साथ व्यापारिक, सामरिक और कूटनीतिक रिश्तों का नया अध्याय लिखकर चीन को सीधे जवाब देने की तैयारी कर ली है।

भारत, चीन और जापान के बीच रिश्तों के तानेबाने को समझने के लिए हमें इतिहास में भी झाँकना होगा। 1962 के युद्ध में चीन ने हमारी पीठ में छुरा घोंपा था और दूसरे विश्वयुद्ध में जापान ने चीन को रौंदा था। इतिहास की इस गाँठ को भूल पाना इन तीनों ही देशों के लिए संभव नहीं। हालांकि प्रधानमंत्री मोदी ने कूटनीतिक तौर पर चीन के साथ भी आहार-व्यवहार में कोई कमी नहीं रखी है। लेकिन साथ ही बड़ी सूझबूझ से “तू डाल-डाल, मैं पात-पात” की नीति पर भी अमल किया है।

अंत में एक बात और। शिंजो आबे ने प्रधानमंत्री मोदी को ‘बुलेट’ की रफ्तार से काम करनेवाला बताया है। उनके इस कथन में ये जोड़ना जरूरी है कि ‘कूटनीति’ के ईंधन से इस ‘बुलेट’ की रफ्तार और तेज हो गई है। साथ में मजे की बात ये कि मोदी कम-से-कम इस मामले में कोई ‘शोर’ नहीं मचाते और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग हों या जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे, ‘जैकेट’ सबको पहनाते हैं।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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बीबीसी और ‘मधेपुरा अबतक’ समेत दुनिया के चार हजार साईट हैक, स्थिति फिर हुई बहाल

‘मधेपुरा अबतक’ के सुधी पाठकों को हम सूचित करना चाहते हैं कि कल दोपहर के एक अप्रत्याशित घटनाक्रम में पाकिस्तान के हैकर ग्रुप ‘टीम साईबर असैसिन्स’ (Team Cyber Assassins) ने दुनिया के चार हजार महत्वपूर्ण साईट को हैक कर लिया जिनमें ( Madhepura Abtak ) भी शामिल था। हालांकि हमारे कुशल इंजीनियरों की टीम ने अत्यन्त तत्परता से कार्रवाई करते हुए देर शाम तक स्थिति फिर बहाल कर ली। बीच की अवधि में हमारे पाठकों को जो असुविधा हुई, हमें उसके लिए खेद है।

पाठकों को हम अवगत कराना चाहते हैं कि जिन चार हजार साईट को हैक किया गया उनमें प्रसिद्ध समाचार साईट ‘बीबीसी.कॉम’, यूएस आर्मी की साईट ‘आरटी.कॉम’ और ऑस्ट्रेलियन एडुकेशनल साईट ‘एबीसी.कॉम’ जैसे महत्वपूर्ण साईट शामिल हैं। ‘मधेपुरा अबतक’ ने महज कुछ माह में आप सबका जो प्यार हासिल किया है और जिस रफ्तार में इसे लाईक करने वालों की संख्या बढ़ रही है, सम्भवत: उसे देखते हुए ही इसे भी हैक किया गया।

हम किसी भी हैकर ग्रुप द्वारा किए जा रहे इस तरह के कुत्सित प्रयास की कड़ी निंदा करते हैं। ये पूरी दुनिया के अमन-चैन पर कुठाराघात है। हम आपको पूरे विश्वास के साथ कहना चाहते हैं कि चाहे कितनी ही बार इस तरह की घिनौनी कोशिश क्यों ना हो, हमारी ‘प्रतिबद्धता’ पर उसका रत्ती भर भी असर नहीं होगा। तमाम मुश्किलों को पार कर ‘मधेपुरा अबतक’ आपकी दिनचर्या का अंग बना रहेगा।

मधेपुरा अबतक

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क्या है इस्लामिक स्टेट (आईएस) और कौन है अबू बकर अल बगदादी ?

‘फैशन’ और ‘फैंटेसी’ का पर्याय फ्रांस आज लहूलुहान है। मुंबई के 26/11 हमलों की तर्ज पर बीते शुक्रवार को पेरिस में सात अलग-अलग स्थानों पर हुए सिलसिलेवार हमले के बाद पूरे देश में आपातकाल लागू है। इन हमलों में 158 लोग मारे गए और 300 से ज्यादा घायल हुए जिनमें 100 की हालत अत्यंत गंभीर बताई जाती है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद फ्रांस पर ये सबसे बड़ा हमला है। 1940 के बाद पहली बार ‘फैशन की राजधानी’ कर्फ्यू में कराह रही है। इस नृशंस घटना को ‘आईएस’ के आत्मघाती हमलावरों ने अंजाम दिया।

आतंक का पर्याय बन चुका ‘आईएस’ यानि ‘इस्लामिक स्टेट’ आज की तारीख में दुनिया का सबसे खतरनाक आतंकी संगठन है। इस चरमपंथी इस्लामिक संगठन को इससे पूर्व ‘आईएसआईएस’ यानि ‘इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया’ के नाम से जाना जाता था। अरबी भाषा में इस संगठन का नाम है “अल दौलतुल इस्लामिया फिल इराक वल शाम”। हिन्दी में इसका अर्थ होगा – “इराक एवं शाम का इस्लामी गणराज्य”। शाम सीरिया का प्राचीन नाम है।

आईएसआईएस ने सबसे पहले 2014 में इराक के मोसूल और तिकरीत शहरों समेत बड़े हिस्से पर कब्जा कर दुनिया भर का ध्यान अपनी ओर खींचा था। इराक और सीरिया में सक्रिय इस जेहादी समूह का गठन अप्रैल 2013 में हुआ। इस संगठन की अगुआई अबू बकर अल बगदादी कर रहा है। 29 जून 2014 को उसने खुद को समूचे इस्लामिक जगत का ‘खलीफा’ घोषित किया और मुस्लिम आबादी वाले विश्व के ज्यादा से ज्यादा क्षेत्रों को सीधे अपने राजनीतिक नियंत्रण में लेना उसके संगठन का लक्ष्य बन गया। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए बगदादी ने सबसे पहले ‘लेवेन्त’ कहे जाने वाले इलाके को अपने अधिकार में लेने का अभियान चलाया जिसके तहत जॉर्डन, इजरायल, फिलिस्तीन, लेबनान, कुवैत, साइप्रस और दक्षिणी तुर्की का कुछ भाग आता है।

माना जाता है कि बगदादी का जन्म उत्तरी बगदाद के समारा में 1971 में हुआ। 2003 में अमेरिका की अगुआई में हुए आक्रमण के बाद इराक में भड़के विद्रोह में वह शामिल हुआ और 2010 में इराकी अल कायदा के नेता के तौर पर उभरा। बगदादी युद्ध का अत्यंत कुशल रणनीतिकार और जेहादियों को अपने व्यक्तित्व से प्रभावित करने वाला कमांडर माना जाता है। प्रारम्भ में इस्लामिक स्टेट अल कायदा का ही एक घटक था लेकिन बगदादी के कारण धीरे-धीरे वह उससे ज्यादा आकर्षक, उससे ज्यादा प्रभावी और उससे ज्यादा खतरनाक हो गया। आज बगदादी के इशारे पर काम करने वाले लड़ाकों की संख्या दस हजार से ज्यादा है।

आईएस की गुरिल्ला फौज में इराक और अरब जगत के इस्लामिक कट्टरपंथियों के अलावे चेचेन्या, पाकिस्तान और यूरोपीय देशों ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी आदि के इस्लामिक कट्टरपंथी लड़ाके हैं। भारत के कुछ मुस्लिम युवाओं के भी आईएस में शामिल होने की खबरें आई हैं। इराक में इतनी तेजी से आईएस का प्रभुत्व बढ़ने के पीछे एक बड़ा कारण अमेरिकी आक्रमण के बाद इराकी सेना की ताकत और उसके मनोबल में भारी गिरावट भी रहा। वहाँ की सेना की कमर इस कदर टूट चुकी थी कि आईएस के लड़ाकों के सामने वो बेबस नजर आई। आईएस ने बड़ी आसानी से इराकी शहरों पर कब्जा किया, इराकी सेना के हथियारों से अपनी ताकत बढ़ाई और लूटपाट से अकूत दौलत भी अर्जित की। वहाँ के तेल के कुओं पर कब्जा करने से उसकी आर्थिक ताकत में बेहिसाब इजाफा हुआ। आज यह दुनिया का सबसे अमीर आतंकी संगठन है और एक अनुमान के मुताबिक इसका बजट दो अरब डॉलर का है।

फ्रांस की इस घटना से पहले भी आईएस के आतंक और उसकी बर्बरता के कई दृश्य दुनिया के सामने आ चुके हैं। आज दुनिया के ज्यादातर देश आईएस और उसके जैसे अन्य आतंकी संगठनों की जद में हैं। लेकिन ये सिक्के का केवल एक पहलू है। इस सिक्के का दूसरा पहलू अमेरिका जैसे पूंजीवादी देशों की दोहरी नीतियां हैं। आप इतिहास पलट कर देखें तो पाएंगे कि अपने आर्थिक साम्राज्य के विस्तार के लिए अमेरिका जैसे देशों ने ऐसे आतंकी संगठनों को कई बार शह दी है। जब तक उनका स्वार्थ सधता रहा तब तक आईएस जैसे संगठन और अबू बकर अल बगदादी जैसे नेता उनके लिए ‘अच्छे’ जेहादी रहे और जब ऐसे संगठनों की मह्त्वाकांक्षा उनके रास्ते आ गई तो वे ‘बुरे’ हो गए।  अभी हाल तक इस्लामिक स्टेट के जेहादी लड़ाके अमेरिकी, ब्रिटिश, फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों और अरब देशों में सउदी अरब और कुवैत जैसे उनके टट्टुओं की शह पर सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद का तख्तापलट करने की खातिर वहाँ जारी गृहयुद्ध में भाग ले रहे थे। आज अगर आईएस इतना ‘खराब’ है तो कल तक उसमें ये देश कौन सी ‘खूबी’ देख रहे थे..?

पूंजी का आतंक हथियार के आतंक से हरगिज कम नहीं। आज दुनिया इन दोनों आतंकों के बीच पिस रही है। ईस्ट इंडिया कम्पनी भारत में पहले पहल हथियार लेकर नहीं आई थी। उसका उद्देश्य शुरू में केवल व्यापार था। ज्यों-ज्यों उसका स्वार्थ बढ़ता गया, व्यापार के साथ हथियार जुड़ता गया। आईएस जैसे संगठनों को हम जरूर जड़ से खत्म करें लेकिन दुनिया भर में अलग-अलग चेहरों के साथ और पहले से ज्यादा फैल चुकी ‘ईस्ट इंडिया कम्पनी’ को ढूँढ़कर उनकी नापाक नीतियों का भी हिसाब करें। तभी ये दुनिया रहने लायक बन सकेगी और बनी रहेगी।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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तीन करोड़ युवाओं को दुल्हन की दरकार, आखिर झुकी चीन की सरकार

चीन में तीन करोड़ युवाओं को अगले पाँच सालों में दुल्हन नहीं मिलेगी… अगले दस सालों में वहाँ काम करने के लिए युवा नहीं होंगे… और अगले पन्द्रह सालों में वहाँ की 75 प्रतिशत आबादी बूढ़ी होगी… हैरतअंगेज आंकड़े हैं ये, लेकिन सच हैं। इन्हीं वजहों से 37 साल के बाद चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने ‘वन चाइल्ड पॉलिसी’ को खत्म कर दिया है। अब वहाँ भी भारत की तरह ‘हम दो, हमारे दो’ का सिद्धांत लागू होगा। हमारा देश इस सिद्धांत के प्रति कितना ‘गम्भीर’ है ये बहस का विषय है लेकिन चीन की जैसी ‘विस्फोटक’ स्थिति हो गई है, उसे देखते हुए कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी अगर वहाँ की सरकार दो बच्चों की नीति भी वैसी ही सख्ती से लागू करे जैसी सख्ती से ‘वन चाइल्ड पॉलिसी’ को लागू किया गया था। ये भी सम्भव है कि सरकार आने वाले दिनों में कुछ और ‘उदारता’ दिखाते हुए ‘दो से आगे’ जाने की छूट भी दे दे।

वर्तमान में 140 करोड़ की आबादी के साथ चीन दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला देश है। इस देश की ये आबादी तब है जब 1979 से वहाँ ‘वन चाइल्ड पॉलिसी’ बहुत कड़ाई के साथ लागू है और पिछले 37 साल में 40 करोड़ बच्चों का जन्म रोका गया। इस नीति के तहत ज्यादातर शहरी दम्पतियों को एक बच्चे और ज्यादातर ग्रामीण दम्पतियों को दो बच्चे तक सीमित कर दिया गया था। दूसरे बच्चे की इजाजत तभी थी जब पहला बच्चा लड़की हो। ये नीति शुरू से ही विवादास्पद थी क्योंकि इसके चलते हजारों की संख्या में गर्भपात होते थे। कुछ मूलभूत खामियों के बावजूद चीन की जनसंख्या जिस रफ्तार से बढ़ रही थी उसे देखते हुए तत्कालीन रुदोंग सरकार की ये नीति पूरी तरह गलत भी नहीं कही जा सकती। दुनिया जानती है कि चीन को इसका फायदा भी मिला। लेकिन समय-समय पर इसकी समीक्षा जरूरी थी। पर ऐसा नहीं हुआ और स्थिति बिगड़ती चली गई। हालात बद से बदतर होते देख वर्तमान सरकार ने लगातार चार दिन तक बैठक की और ये बड़ा निर्णय लिया।

चीन में प्रति 117 पुरुषों पर मात्र 100 महिलाएं हैं। लिंगानुपात बिगड़ने से सामाजिक ढाँचा किस हद तक चरमरा चुका है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वहाँ एक लड़की से दो से ज्यादा लड़के शादी कर रहे हैं। अविवाहित युवकों की बढ़ती संख्या देख चीनी इकोनॉमिस्ट शी जुओशी ने सुझाव दिया कि दो पुरुषों की एक महिला से शादी कानूनी करार देनी चाहिए। दूर-दराज इलाके में लोग बाकायदा ऐसा कर भी रहे हैं क्योंकि लड़कियों की बोली लग रही है।

ये तो हुई लिंगानुपात से जुड़ी समस्या। अब चीन की ‘असंतुलित’ जनसंख्या को कुछ और कोणों से समझें। 1960 के दशक में चीन में ‘बेबी बूम’ की वजह से श्रमिकों की संख्या बढ़ी थी। ये आबादी 2021 तक रिटायर हो जाएगी। बाद के दिनों में आबादी पर अंकुश था इसलिए रिटायर हो रहे श्रमिकों की जगह लेने के लिए अब पर्याप्त आबादी ही नहीं है। बहुत जल्द दिहाड़ी मजदूरों का वहाँ ‘अकाल’ पड़ने वाला है। कहने का अर्थ ये है कि 2025 तक चीन की अर्थव्यवस्था धाराशायी हो सकती है।

2014 में चीन की 21.2 करोड़ की आबादी 60 साल पार कर चुकी थी। 2013 में यह संख्या करीब 17.5 करोड़ थी। इतनी तेजी से दुनिया के किसी देश में बुजुर्गों की संख्या नहीं बढ़ी। ऐसा ही रहा तो 2030 तक चीन की 75 प्रतिशत आबादी बूढ़ी होगी। दरअसल चीन में जन्म दर 1.18 बच्चा प्रति दम्पति है जबकि वैश्विक आँकड़ा 2.5 है। यही कारण है कि यहाँ युवा होने की दर सबसे धीमी है।

2014 में सरकार को उम्मीद थी कि 2 करोड़ बच्चे पैदा होंगे। लेकिन 1.69 करोड़ बच्चे ही जन्मे। एक दिलचस्प आंकड़ा यह भी है कि 2014 में योग्य 1.1 करोड़ दम्पति में से 14.5 लाख ने ही दूसरे बच्चे के लिए आवेदन दिया। और इस साल सितम्बर तक यह आँकड़ा आश्चर्यजनक रूप से मात्र 55 हजार है। स्थिति यह है कि पिछले 15 सालों में देश के आधे से ज्यादा स्कूल बंद हो गए हैं। यानि ये समस्या दोतरफा है। सरकार की नीति ही केवल इसके लिए जिम्मेदार नहीं है बल्कि लोगों की दिलचस्पी भी दूसरे बच्चे में खत्म हो गई है।

खैर, देर से ही सही चीन की सरकार जागी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि वहाँ के लोग भी अब जागेंगे और ‘असंतुलित’ जनसंख्या की भीषण समस्या धीरे-धीरे सुलझ जाएगी। जरूरी है कि चीन में फिर बच्चों की ‘बहार’ हो पर ये भी देखना होगा कि ‘पुरानी गलती’ फिर ना इस बार हो।

 मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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मोदी अब दुनिया के सबसे बड़े ‘स्टाईल आइकॉन’, 42 राष्ट्राध्यक्ष पहनेंगे उनका परिधान

नरेन्द्र मोदी के विरोधी चाहे जो बोलें उनका जादू ना केवल दिन-ब-दिन बढ़ रहा है बल्कि अब तो लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा है। मोदी की विदेश नीति कितनी सफल है इस पर भले ही ‘विवाद’ की गुंजाइश हो लेकिन भारत समेत दुनिया भर में उनका कैसा ‘असर’ है ये देखने के लिए एक ही दृश्य काफी होगा। जी हाँ, कल्पना करें उस दृश्य की जब एक नहीं, दो नहीं पूरे 42 राष्ट्राध्यक्ष उनके परिधान में दिखेंगे।

दरअसल, 26 से 29 अक्टूबर तक नई दिल्ली में इंडो-अफ्रीकन फोरम समिट (आईएएफएस) – 2015 का आयोजन होने जा रहा है। इस समिट में शामिल होनेवाले सभी 42 राष्ट्राध्यक्षों को प्रधानमंत्री मोदी बहुत खास उपहार देने जा रहे हैं। ये उपहार है मोदी स्टाईल की बंडी (मोदी जैकेट) और ‘इक्कत’ कुर्ते का जिस पर अब उनकी छाप लग चुकी है।

जरा रुकिए, अभी ख़बर पूरी नहीं हुई। असली ख़बर तो ये है कि समिट के दौरान प्रधानमंत्री द्वारा दिए जानेवाले भोज में सभी राष्ट्राध्यक्ष ‘मोदी जैकेट’ में दिखेंगे। यही नहीं, अपने प्रवास के दौरान सभी राष्ट्राध्यक्ष मोदी स्टाईल के कुर्ते में भी दिखाई देंगे। इसके लिए सभी राष्ट्राध्यक्षों की पसंद को देखते हुए अलग-अलग रंग के कुर्ते बनाए जा रहे हैं। इससे पहले चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भी अपनी भारत-यात्रा के दौरान मोदी जैकेट में दिखे थे। बताया जाता है कि अफ्रीकी देशों के कई राजनेता मोदी के इस डिप्लोमेसी स्टाईल के कायल हो गए हैं।

यह पहला मौका है जब अफ्रीकी देशों के राष्ट्राध्यक्ष इतनी बड़ी संख्या में यहाँ मौजूद होंगे। राष्ट्राध्यक्षों के साथ-साथ इसमें अफ्रीकी देशों के 400 उद्योगपति भी शामिल हो रहे हैं। मोदी भविष्य की सम्भावनाओं के मद्देनज़र इस अवसर का महत्व जानते हैं। यही कारण है कि बिहार चुनाव को लेकर अपने अति व्यस्त कार्यक्रम के बावजूद वो इस अवसर को यादगार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते।

भारत और अफ्रीका के बीच ऐतिहासिक रिश्ता रहा है। भारत अफ्रीका में एक बड़ा निवेशक है और हाल के वर्षों में वहाँ इसका व्यापार बहुत तेजी से बढ़ा है। वर्तमान में अफ्रीका के साथ भारत का कारोबार 75 अरब डॉलर का है और भारत ने पिछले चार सालों में अफ्रीकी महाद्वीप को 7.4 अरब डॉलर का कर्ज दिया है जिसका उपयोग 41 देशों की 137 परियोजनाओं मे हो रहा है।

यह भी जानें कि तंजानिया, सूडान, मोजांबिक, केन्या, युगांडा समेत कई अफ्रीकी देशों के पास बड़े पैमाने पर तेल और गैस के भंडार हैं। भारत अपने आर्थिक विकास के लिए ईंधन में विशेष रूप से निवेश चाहता है। इसके अलावा भारत समुद्र क्षेत्र से जुड़े कारोबार में भी अहम साझेदारी चाहता है। यही नहीं, भारत अफ्रीकी देशों के साथ कृषि, ऊर्जा, स्वास्थ्य क्षेत्र, आधारभूत ढाँचे और तकनीक में विस्तार के लिए भी काम करने की इच्छा रखता है।

इन तमाम तथ्यों की पृष्ठभूमि में इंडो-अफ्रीकन फोरम समिट का महत्व सहज ही समझा जा सकता है। बहरहाल, कूटनीतिक सम्भावना अपनी जगह है, फिलहाल तो मोदी की ‘पर्सनल डिप्लोमेसी’ के कारण ये समिट पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींच रहा है।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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नोबेल विजेता सत्यार्थी बने ह्यूमैनिटेरियन अवार्ड पाने वाले पहले भारतीय

कैलाश सत्यार्थी के काम को एक और ‘सलाम’ मिला है। शांति के इस नोबेल पुरस्कार विजेता के नाम एक और प्रतिष्ठित पुरस्कार जुड़ गया है। पिछले सप्ताह उन्हें हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रतिष्ठित ‘हार्वर्ड ह्यूमैनिटेरियन ऑफ द ईयर’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्हें यह सम्मान बाल अधिकारों की रक्षा में उनके योगदान को देखते हुए दिया गया है। बता दें कि सत्यार्थी इस पुरस्कार को पाने वाले पहले भारतीय हैं।

‘ह्यूमैनिटेरियन’ पुरस्कार ऐसे व्यक्ति को दिया जाता है जिसने लोगों के जीवन की गुणवत्ता सुधारने की दिशा में उल्लेखनीय काम किया हो और लोगों को अपने काम से प्रेरित किया हो। सत्यार्थी ने हाल ही में संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों में बाल संरक्षण एवं कल्याण संबंधी प्रावधानों को शामिल कराने में महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त की है। इन प्रावधानों का लक्ष्य बच्चों की दासता, तस्करी, जबरन श्रम और हिंसा को समाप्त करना है।

सत्यार्थी ने पुरस्कार स्वीकार करते हुए कहा- उन लाखों वंचित बच्चों की ओर से विनम्रतापूर्वक यह पुरस्कार स्वीकार करता हूँ जिनके अधिकारों की रक्षा के लिए हम प्रयास कर रहे हैं। आओ, हम सब मिलकर विश्व से बाल दासता को समाप्त करने का प्रण लें। इस अवसर पर उन्होंने एक बड़े ‘सत्य’ को रेखांकित किया कि अमेरिका समेत विकसित देशों में भी सैकड़ों गुलाम बच्चे हैं जिन्हें श्रम करने के लिए मजबूर किया जाता है, देह व्यापार में धकेला जाता है या घरेलू श्रम के लिए उनकी तस्करी की जाती है। कहने का अर्थ ये है कि आज ये समस्या विश्वव्यापी है। तीसरी दुनिया कहे जाने वाले देश ही नहीं अपने ‘ऐश्वर्य’ पर इतराने वाले देश भी इससे अछूते नहीं। ऐसे में सत्यार्थी के काम की क्या अहमियत है, ये कहने की जरूरत नहीं।

कैलाश सत्यार्थी आज बालश्रम के विरुद्ध संघर्ष के प्रतीक बन चुके हैं। 1980 में उनके द्वारा शुरू किया गया ‘बचपन बचाओ आन्दोलन’ आज किसी परिचय का मोहताज नहीं। अपने इस आन्दोलन की बदौलत वो अब तक अस्सी हजार मासूमों की ज़िन्दगी संवार चुके हैं। कितनी बड़ी बात है कि इस ‘साधक’ ने इतनी बड़ी साधना अकेले अपने दम पे की, बिना किसी शोर-शराबे के। आज अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उनकी जो पहचान और स्वीकार्यता है उसके मूल में सिर्फ और सिर्फ उनका काम है, कोई सरकार, कोई सिफारिश, सोशल मीडिया पर चलाया गया कोई कैम्पेन या प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की कोई चकाचौंध नहीं। ‘विज्ञापन’ के युग में ये बातें उन्हें भीड़ से एकदम अलग करती हैं। नोबेल के बाद ‘हार्वर्ड ह्यूमैनिटेरियन ऑफ द ईयर’ पुरस्कार इस बात की एक और तस्दीक है।

इस पुरस्कार के महत्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सत्यार्थी से पहले यह पुरस्कार मार्टिन लूथर किंग सीनियर, संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिवों कोफी अन्नान, बुतरस बुतरस-घाली और ज़ेवियर पेरिज डी कुईयार, नोबेल पुरस्कार विजेताओं जोस रामोस-होर्ता, बिशप डेसमंड टूटू, जॉन ह्यूम और एली वेसल तथा संयुक्त राष्ट्र के वर्तमान महासचिव बान की मून जैसी हस्तियों को मिल चुका है।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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स्वेतलाना एलेक्सिएविच ने बढ़ाया साहित्य, नोबेल और नारी का दायरा

इतिहास केवल समय के बहाव और उस पर अंकित तारीखों में नहीं होता, इतिहास मानव-मन के भीतर हिलोड़ें लेती भावनाओं का भी हो सकता है। अगर भीतर के इस इतिहास को आकार लेते देखना हो तो एक बार स्वेतलाना एलेक्सिएविच को जरूर पढ़ें जिन्हें 2015 का साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला है। स्वेतलाना साहित्य का नोबेल पानेवाली चौदहवीं महिला और पहली पत्रकार हैं। उन्हें यह सम्मान भावनाओं के इतिहास को संकलित करने वाली उनकी खोजी किताबों के लिए दिया गया है जिनमें पूर्व सोवियत संघ के लोगों के जीवन को उन्होंने गजब की बारीकी से उकेरा है। आज जबकि पत्रकारिता ‘सेंशेसन’ में खोती जा रही है, स्वेतलाना हमें बहुत शिद्दत से बताती हैं कि उसे कैसे सृजन से नया आयाम दिया जा सकता है।

दुनिया के इस सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार के लिए इस साल 198 लोगों को नामांकित किया गया था लेकिन चुना गया 67 साल की स्वेतलाना एलेक्सिएविच को। स्वेतलाना के नाम की घोषणा करते हुए नोबेल कमिटी ने तीन चीजों को खास तौर से रेखांकित किया। स्वेतलाना को भीड़ से अलग करने वाली  वे तीन चीजें हैं – ‘विविधता से भरा लेखन’, ‘पीड़ा का स्मारक’ और ‘हमारे समय में साहस’। प्रत्यक्षदर्शियों की जुबान से कहानी कहने में महारत रखने वाली स्वेतलाना की कृतियां ‘वॉयसेस ऑफ यूटोपिया’ कही जाती हैं। स्वीडिश अकादमी, स्टॉकहोम की सचिव सैरा डैनियुस ने बिल्कुल सही चिह्नित किया है कि उनके लेखन में ‘ऐतिहासिक घटनाएं नहीं’ बल्कि ‘भावनाओं का इतिहास’ है।

स्वेतलाना का जन्म 31 मई, 1948 को यूक्रेन के शहर स्तानिस्लाव में हुआ। उन्होंने यूक्रेन, फ्रांस और बेलारूस में लम्बा समय बिताया। उनके पिता बेलारूस के थे और माँ यूक्रेन की। 1962 में स्वेतलाना अपने माता-पिता के साथ बेलारूस आ गईं और यहीं पर अपनी पढ़ाई पूरी की। इस नोबेल पुरस्कार विजेता ने एक स्थानीय अखबार में रिपोर्टिंग करने के लिए स्कूल की पढाई छोड़ दी थी। खैर, स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने पत्रकार व शिक्षिका के रूप में कार्य किया। इसी दौरान उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध, सोवियत-अफगान युद्ध, सोवियत संघ के पतन और चेरनोबिल आपदा जैसे विषयों पर लिखा। 1985 में उनकी पहली किताब ‘वॉर्स अनवुमेनली फेस’ आई जिसकी अब तक 20 लाख प्रतियां बिक चुकी हैं। खोजी प्रकृति की स्वेतलाना ने इस किताब के लिए द्वितीय विश्वयुद्ध में भाग लेने वाली सैकड़ों महिलाओं का इंटरव्यू लिया था।

विषय-चयन और पूर्वतैयारी की बात करें तो स्वेतलाना एलेक्सिएविच सधी हुई पत्रकार हैं और जब वो ‘ट्रीटमेंट’ और विश्लेषण पर आती हैं तो करुणा से ओतप्रोत साहित्यकार दिखेंगी। यूक्रेन के चेरनोबिल परमाणु संयंत्र में 1986 में हुए हादसे पर लिखी गई उनकी बहुचर्चित किताब ‘वॉयसेस ऑफ चेरनोबिल’ इसका लाजवाब उदाहरण है। उनकी एक और किताब है ‘सेकैंड हैंड टाइम’ जिसमें वो बड़ी संवेदना के साथ पड़ताल करते दिखेंगी कि सोवियत संघ के विघटन के बाद सोवियतकालीन पीढ़ियों ने खुद को नई दुनिया में कैसे ढाला। ‘जिंकी ब्वॉयज’, ‘द लास्ट विटनेसेज : द बुक ऑफ अनचाइल्डलाइक स्टोरीज’ तथा ‘एनचांटेड विथ डेथ’ उनकी अन्य कृतियां हैं।

स्वेतलाना की रचनाओं का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है। कई अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार उन्हें मिल चुके हैं। उनकी स्वीकार्यता आज दुनिया भर में है लेकिन ये तथ्य हैरान करता है कि रूसी भाषा में लिखी उनकी कुछ किताबें ‘विवादों’ का शिकार होकर उनके अपने ही देश में प्रकाशित नहीं हो पाईं। कारण जो भी हो, अभिव्यक्ति पर इस तरह की ‘बंदिश’ बताती है कि आज भले ही चाँद के बाद मंगल पर भी दस्तक दे दी हो हमने, पर सच ये है कि धरती पर रहना भी हम ठीक से नहीं सीख पाए अब तक। स्वेतलाना एलेक्सिएविच, सलमान रश्दी या तसलीमा नसरीन जैसों का महत्व इस कारण भी है कि वे हमें इस बात की याद दिलाते रहते हैं।

साहित्य में पत्रकारिता की इतनी प्रांजल और संवेदनशील उपस्थिति स्वेतलाना से पहले नहीं थी, स्वेतलाना से पहले किसी पत्रकार को साहित्य का नोबेल नहीं मिला था और लेखकीय प्रतिबद्धता के लिए किसी नारी के ऐसे संघर्ष का उदाहरण भी कदाचित् नहीं दिखता। कहने की जरूरत नहीं कि स्वेतलाना एलेक्सिएविच ने अकेले अपने दम पर साहित्य, नोबेल और नारी तीनों का दायरा एक साथ बढ़ाया है।

चलते-चलते

अगर आप जानने को उत्सुक हैं कि स्वेतलाना एलेक्सिएविच से पहले किन तेरह महिलाओं को साहित्य का नोबेल मिला तो ये रही पूरी सूची – 1909 में सेल्मा ओटालिया लोविसा लाजरोफ (स्वीडन), 1926 में ग्रेजिया डेलेड्डा (इटली), 1928 में सिगरिड उंडसेट (नॉर्वे), 1938 में पर्ल एस. बक (अमेरिका), 1945 में गेब्रिएला मिस्त्राल (चिली), 1966 में नेली साक्स (स्वीडन-जर्मनी), 1991 में नेडिन गोर्डिमर (दक्षिण अफ्रीका), 1993 में टोनी मॉरिसन (अमेरिका), 1996 में विस्लावा सिम्बोर्सका (पोलैंड), 2004 में एल्फ्रीड जेलिनेक (ऑस्ट्रिया), 2007 में डोरिस लेसिंग (इंग्लैंड), 2009 में हर्टा म्यूलर (जर्मनी-रूमानिया), 2013 में एलिस मुनरो (कनाडा) और 2015 में स्वेतलाना एलेक्सिएविच (बेलारूस)।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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नासा ने नहीं, लुजेन्द्र ओझा ने खोजा मंगल पर पानी

अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा ने 28 सितम्बर को एक बड़ा खुलासा किया। नासा ने कहा कि मंगल ग्रह पर बहते पानी के सबूत मिले हैं। इस खोज के बाद मंगल पर जीवन की सम्भावना बढ़ गई है। जब सोमवार को नासा अमेरिकी समय के हिसाब से दिन के 11.30 बजे अपने मुख्यालय के ‘जेम्स वेब ऑडिटोरियम’ में आयोजित प्रेस कांफ्रेस में ये ऐतिहासिक घोषणा कर रहा था तब नासा के ग्रह-विज्ञान निदेशक जिम ग्रीन, मंगल अन्वेषण कार्यक्रम के प्रमुख वैज्ञानिक माइकल मेयेर, नासा के एमेस अनुसंधान केन्द्र की मैरी बेथ विल्हेल्म और एरिजोना यूनिवर्सिटी में प्लैनेटरी जियोलॉजी के प्रोफेसर एल्फ्रेड माकईवेन के साथ पीएचडी का एक छात्र भी मौजूद था। उस ‘असाधारण’ छात्र का नाम है लुजेन्द्र ओझा। ‘असाधारण’ इसलिए कि मंगल पर बहते पानी को नासा से पहले इस छात्र ने देखा था।

मात्र 21 साल के लुजेन्द्र ओझा मूल रूप से काठमांडू (नेपाल) के हैं और अटलांटा के जॉर्जिया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में प्लैनेटरी साइंस में पीएचडी कर रहे हैं। इस युवा वैज्ञानिक ने माकईवेन के साथ मंगल ग्रह पर जल सक्रियता की सम्भावना का अध्ययन किया है। मंगल ग्रह पर देखी गई जिन गहरी लकीरों (मंगल की सतह पर दिखने वाले गड्ढ़ों की ढलान पर बनी उँगली जैसी रेखाएँ) को अब तरल पानी के सामयिक बहाव से जोड़कर देखा जा रहा है, उन्हें साल 2011 में डिग्री कोर्स के दौरान लुजेन्द्र द्वारा किए गए शोध से ही पहचाना गया था। विज्ञान और प्राविधि की साइट inverse.com ने अगर लुजेन्द्र को नासा के प्रेस-कांफ्रेस में मौजूद ‘अनोखा’ व्यक्ति कहा तो यह अकारण नहीं है।

बहरहाल, आप लुजेन्द्र ओझा के वेबसाइट www.lujendraojha.net  पर जाएं तो होम पेज पर आपको हाथ में गिटार लिए लंबे बालों वाला ‘रॉकस्टार’ दिखेगा। पहली नज़र में आपको लगेगा कि शायद आपने कोई गलत साइट लॉग इन कर दिया है। लेकिन जब थोड़ी देर ठहरकर आप होम पेज के बीचोंबीच लिखा ‘स्टेटमेंट’ पढ़ेंगे और बारी-बारी से बाकी पन्नों को खोलेंगे तब आप नैसर्गिक प्रतिभा के धनी एक युवा वैज्ञानिक के ‘अद्भुत संसार’ को देख रहे होंगे।

लुजेन्द्र ओझा उर्फ लुजु को एरिजोना यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान ‘संयोगवश’ इस बात के सबूत मिले थे कि मंगल पर पानी तरल रूप में मौजूद है। उन्हें मंगल की सतह की तस्वीरों के अध्ययन के बाद इस बात के सबूत मिले थे। इस खोज को ‘भाग्यशाली संयोग’ मानने वाले लुजेन्द्र शुरुआत में इसे समझ नहीं पाए। मंगल की सतह पर बने गड्ढ़ों का कई साल तक अध्ययन करने के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि इनकी ढलान पर बनी गहरी लकीरें बहते खारे पानी के कारण बनी हैं। ये ‘लकीरें’ गर्मियों में बढ़ जाती थीं और सर्दियां आते-आते गायब हो जाती थीं। सावधानीपूर्वक अध्ययन और विशलेषण के बाद अब वैज्ञानिक यह कहने को तैयार हैं कि ये लकीरें वास्तव में जलधाराएं हैं। इस तरह नासा ने लुजेन्द्र की बात पर ही मुहर लगाई है।

मंगल पर तरल पानी की मौजूदगी की पुष्टि होने के बाद ये तय हो गया है कि यह ग्रह भौगोलिक रूप से अब भी सक्रिय है। यही नहीं अब तो वहाँ माइक्रोब्स पाए जाने की सम्भावना भी जग गई है। साथ ही सतह के नजदीक पानी के स्रोतों की पहचान होने से भविष्य में मंगल ग्रह पर जाने वाले अंतरिक्ष यात्रियों का वहाँ रहना भी आसान हो सकता है। क्या पता कल होकर वहाँ मानव अपनी बस्तियाँ ही बसा ले।

साइंस फिक्शन में गहरी रुचि रखने वाले लुजेन्द्र ओझा स्ट्रिंग थ्योरी, मल्टीपल यूनिवर्स और टाइम ट्रेवल जैसे विचारों से खासा प्रभावित रहे हैं। अपने हाई स्कूल के दिनों में वे आगे चलकर ‘टाइम-मशीन’ का आविष्कार करने के बारे में सोचते थे। उनका ऐसा कोई आविष्कार तो अब तक सामने नहीं आया है लेकिन मंगल पर पानी की खोज में उन्होंने जो भूमिका निभाई है उसने विज्ञान की दुनिया में उनका सम्मानित स्थान तो सुरक्षित कर ही दिया है। सम्भावनाओं के इस उदीयमान पुंज को मधेपुरा अबतक की शुभकामनाएं।

  मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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केजरीवालजी..! मोदी ‘गिड़गिड़ाने’ नहीं गए थे अमेरिका

अरविन्द केजरीवाल… भारतीय राजनीति में इस नाम ने जैसा स्थान बनाया और जितनी तेजी से बनाया वो अपने आप में अनूठा है। पारदर्शी और जवाबदेह प्रशासन के लिए जब सन् 2000 में केजरीवाल ने दिल्ली में ‘परिवर्तन’ नाम से नागरिक आन्दोलन शुरू किया तब उन्होंने हरगिज ना सोचा होगा कि इस ‘परिवर्तन’ से एक दिन पूरी ‘दिल्ली’ परिवर्तित हो जाएगी। सूचना के अधिकार के लिए अपने संघर्ष और 2006 में ‘रमन मैग्सेसे’ मिलने के बाद वो चर्चा में आए, और छाए अन्ना हजारे के साथ जनलोकपाल आन्दोलन से। आगे चलकर 2012 में आम आदमी पार्टी के गठन से लेकर 2013 में दिल्ली के मुख्यमंत्री पद तक का उनका सफर किसी स्वप्न जैसा है। इतिहास में ‘संघर्ष’ होते रहे हैं और होते रहेंगे लेकिन ‘संघर्ष’ का इस तरह से ‘मुकाम’ पाना बार-बार होने की चीज नहीं है।

‘जंतर-मंतर’ से दिल्ली के मुख्यमंत्री के ‘दफ्तर’ का सफर अरविन्द केजरीवाल ने इतनी जल्दी तय किया था कि वे ‘शासन’ और ‘आन्दोलन’ में फर्क ही नहीं कर पाए। नतीजा यह हुआ कि दिल्ली का मुख्यमंत्री खुद बात-बात पर धरने पर बैठ जाता था। अपने वादों को भी वो आन्दोलन की तरह ही पूरा करना चाहता था, जो व्यवहार में सम्भव ना था। अंतत:  महज 49 दिनों में उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। दिल्ली की जनता ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया की और उन्हें अपने ‘भगोड़ेपन’ का अहसास हो गया। बिना देर किए ‘प्रायश्चित’ में उन्होंने पूरी ताकत झोंक दी और दिल्ली ने उन्हें माफ भी कर दिया। उदार और दिलदार दिल्ली ने 2015 में उन्हें 70 में से 67 सीटें दे दीं।

ऐसे मेनडेट के बाद दिल्ली और देश को भी केजरीवाल से कुछ अलग और कुछ ज्यादा अपेक्षा है तो ये अत्यन्त स्वाभाविक है। खुद से जुड़ी अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए उन्हें ना केवल अतिरिक्त मेहनत करनी होगी बल्कि अतिरिक्त गम्भीरता भी बरतनी होगी। लेकिन इस गम्भीरता की कमी केजरीवाल में ‘गम्भीर’ रूप से है। आए दिन अपने ‘अगम्भीर’ बयानों से केजरीवाल अपने चाहनेवालों को निराश करते रहते हैं। दिल्ली के एलजी नजीब जंग और नरेन्द्र मोदी के नेतृत्ववाली सरकार को लेकर उनके ज्यादातर बयान ऐसे ही होते हैं। चलिए मान लेते हैं कि नजीब जंग से उनकी ‘तनातनी’ दिल्ली सरकार के कामकाज या अधिकार-क्षेत्र को लेकर है और दिल्ली की सवा करोड़ जनता का प्रतिनिधि होने के नाते उन्हें बहुत हद तक बोलने का हक भी मिल जाता है। लेकिन सवा करोड़ जनता के प्रतिनिधि का सवा सौ करोड़ लोगों के प्रतिनिधि को लेकर अमर्यादित बयान देना सचमुच निराश करता है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अभी अमेरिका के दौरे पर थे। वहाँ 25 सितम्बर को उन्होंने सतत विकास शिखर सम्मेलन में विश्व भर के राष्ट्राध्यक्षों को संबोधित किया, जिसकी मेजबानी संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की-मून ने की। इस महत्वपूर्ण दौरे के अन्तिम दिन यानि 28 सितम्बर को अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ उनकी एक साल के भीतर तीसरी शिखर बैठक हुई। इस बैठक के अतिरिक्त संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में उच्च स्तरीय शांतिरक्षा शिखर सम्मेलन और विश्व के कई नेताओं – ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन, फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांसुआ ओलांद, कतर के अमीर शेख हमद बिन खलीफा अल थानी, मेक्सिको के राष्ट्रपति एनरीक पेना नीटो और फिलीस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास – से मोदी की द्विपक्षीय मुलाकातों का व्यस्त कार्यक्रम था। पर उनकी इस यात्रा में जो बात सबसे अधिक सुर्खियों में रही वो थी फेसबुक के सीईओ मार्क जुकरबर्ग, एप्पल के सीईओ टिम कुक, गूगल के सीईओ सुन्दर पिचाई और माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ सत्य नडेला से उनकी मुलाकात। विश्व के इन शीर्षस्थ ‘कार्यकारी अधिकारियों’ के साथ मोदी की मुलाकात ‘डिजिटल इंडिया’ और ‘मेक इन इंडिया’ की सम्भावनाओं के लिहाज से कितनी महत्वपूर्ण थी, ये कहने की जरूरत नहीं। मोदी ने इन दिग्गज कम्पनियों को भारत में निवेश के लिए आमंत्रित किया।

बहरहाल, पूरा देश इन मुलाकातों को लेकर उत्सुक था और उत्साहित भी कि इसी दरम्यान 27 सितम्बर को केजरीवाल का बयान आता है कि मोदी विदेश में ‘गिड़गिड़ा’ रहे हैं। उन्होंने बाकायदा ट्वीट करके कहा कि अगर हम मेक इंडिया कर लेंगे तो मेक इन इंडिया ऑटोमेटिक हो जाएगा। उन्होंने कहा कि अगर हम अपने देश को विकसित कर लेंगे तो दूसरे देश यहाँ खुद निवेश करने आएंगे। हमें उनके दरवाजों पर जाकर निवेश के लिए ‘गिड़गिड़ाना’ नहीं पड़ेगा।

सबसे पहली बात तो ये कि ‘मेक इंडिया’ को ‘मेक इन इंडिया’ से अलग करके देखा ही नहीं जा सकता। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दूसरे, नई सम्भावनाओं को तलाशना, अपने आयाम को बढ़ाना कहीं से भी गिड़गिड़ाना नहीं कहा जा सकता। तीसरे, मोदी वहाँ ‘व्यक्ति मोदी’ या ‘भाजपाई मोदी’ नहीं बल्कि ‘भारत के प्रधानमंत्री’ मोदी थे और यहाँ के सवा सौ करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। ऐसे में शब्दों के चयन में गरिमा और गम्भीरता निहायत जरूरी था।

केजरीवालजी को कुछ कहने से पहले ‘सिलिकॉन वैली’ से ‘सैप सेन्टर’ तक ‘मोदी-मोदी’ की गूंज जरूर सुननी चाहिए थी। ये गूंज किसी ‘गिड़गिड़ाने’ वाले के लिए नहीं, करोड़ों आँखों में 21वीं सदी के भारत के लिए उम्मीद और विश्वास जगाने वाले के लिए थी। उन्हें सुनना चाहिए था कि मोदी ‘उपनिषद’ से ‘उपग्रह’ की यात्रा को किस नजरिए से देखते हैं और अपनी तमाम ‘यात्राओं’ से उसे कैसा विस्तार देना चाहते हैं। ‘हाशिए’ पर खड़े भारत को ‘केन्द्रबिन्दु’ में लाना हो तो बात केवल ‘दिल्ली’ से नहीं बनेगी। पूरी दुनिया का भरोसा आपको जीतना होगा। मोदी नाम के इस शख्स ने अपने विज़न, अपने आत्मविश्वास, अपनी ऊर्जा से सात समुन्दर पार भी अपने लिए भरोसा पैदा किया है तो ये बड़ी बात है। देखा जाय दुनिया का ये भरोसा मोदी के बहाने (और मोदी के मुताबिक) उस भारत के लिए है जिसकी 65 प्रतिशत आबादी 35 साल से कम की है और जिसे अभी बहुत लम्बा सफर तय करना है।

अन्त में, बहुत विनम्रता से कहना चाहूँगा केजरीवालजी से कि कमेंट करने से कद बड़ा नहीं होता। कद केवल और केवल काम से बड़ा होता है। मोदी अपना काम कर रहे हैं और केजरीवाल अपना काम करें। कमेंट करने का काम ‘समय’ पर छोड़ दें। वो हर किसी पर और हर दम सही ‘कमेंट’ करता है।

पुनश्च :

आज से लगभग साल भर पहले मोदी अमेरिका गए थे। प्रधानमंत्री के रूप में यह उनकी अमेरिका की  पहली यात्रा थी। पाँच दिन की उस यात्रा के अंतिम दिन उपराष्ट्रपति जो बिडेन की तरफ से मोदी के सम्मान में लंच का आयोजन किया गया। उस मौके पर अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन कैरी ने कहा था कि हम चाहते हैं कि भारत के विकास में प्रधानमंत्री मोदी के योगदान और भारत की आजादी में महात्मा गांधी के योगदान को एक तरह से याद किया जाय। यहाँ इस वाकये को सुनाने का यह मतलब कतई नहीं कि मोदी को महात्मा गांधी के बराबर में खड़ा किया जाय या कैरी ने मोदी के लिए जो कहा वैसा ही कुछ केजरीवाल भी कहें लेकिन इतना कहना तो जरूर बनता है कि जब घर के ‘मुखिया’ को ‘बाहरवाले’ इज्जत दे रहे हों तो ‘घरवालों’ की भी इज्जत (और साख भी) बढ़ती है, किसी भी सूरत में घटती तो हरगिज नहीं।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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