आपका नाम क्या है, मुझे नहीं पूछना… आप किस दल से जुड़े हैं, कोई फर्क नहीं पड़ता… आप किस जाति के हैं, किस प्रांत से आते हैं, कौन-सी भाषा बोलते हैं, कुछ भी जानना जरूरी नहीं… लेकिन अगर आप भारतीय हैं तो आज आपको उस व्यक्ति को बधाई जरूर देनी चाहिए जिसका नाम नरेन्द्र मोदी है। बधाई इसलिए कि आज उनका जन्मदिन है। आप असहमत हो सकते हैं उनसे, राजनीतिक तौर पर विरोध कर सकते हैं उनका लेकिन अगर आपको धरती के उस विशाल टुकड़े, जिसका नाम भारत है, की पहचान और सम्मान की चिन्ता है तो आपको इस व्यक्ति के स्वस्थ और दीर्घायु होने की कामना जरूर करनी चाहिए।
मुझे पता है, संविधान का कोई पन्ना और कानून की कोई किताब किसी को बधाई और शुभकामना देने के लिए आपको बाध्य नहीं कर सकती। आप एक लोकतांत्रिक देश में रह रहे हैं और अपना विचार रखने और व्यक्त करने की पूरी आज़ादी है आपको। फिर मैं ऐसा क्यों लिख रहा हूँ..? क्या इसलिए कि मोदी प्रधानमंत्री हैं… बहुत ‘शक्तिशाली’ प्रधानमंत्री..? या इसलिए कि कमाल का बोलता है ये आदमी और इसी के दम पर भाजपा अपने स्वर्णिम दौर में है और दुनिया की ‘सबसे बड़ी’ पार्टी बन गई है..? या फिर इसलिए कि मीडिया आज मोदीमय है और तमाम सुर्खियां ये एक शख्स़ उड़ा ले जाता है और मैं चमत्कृत हूँ इस बात से..? नहीं… बिल्कुल नहीं।
गुजरात जैसे किसी बड़े प्रांत का मुख्यमंत्री बनने और एक बार नहीं, दो बार नहीं, लगातार तीन बार बनने के बाद किसी की भी महत्वाकांक्षा हो सकती है प्रधानमंत्री बनने की। मान लेते हैं मोदी की भी यही महत्वाकांक्षा थी, परिस्थितियों ने साथ दिया उनका और बन भी गए वो। बने और प्रचंड बहुमत के साथ बने। तो फिर अब भी बेचैन क्यों हैं वो। उन्हें तो अभी ‘इंज्वाय’ करना चाहिए था अपना ‘पद’ और ‘रुतबा’। जाहिर है कोई भी ऐसा कहकर नहीं करेगा। तो फिर कम-से-कम चेहरे पर तो ‘आत्मसंतोष’ या ‘मुग्धता’ दिख ही सकती थी। लेकिन ये क्या..! इतना कुछ पाकर और बेचैन क्यों हो गया ये शख्स़..? क्या वजह है इस बेचैनी की..? यही वो ‘बिन्दु’ है जहाँ मैं आपको लाना चाहता था। जी हाँ, यही वो बिन्दु है जहाँ आकर आप नरेन्द्र मोदी को बधाई और शुभकामना दिए बिना नहीं रहेंगे।
‘प्रधानमंत्री कार्यालय’ में पैर रखते ही मोदी ने बता दिया कि ये तो बस एक ‘रनवे’ है उनके लिए। अभी तो बहुत लम्बी उड़ान भरनी है उनको। चुनाव के दौरान पूरे भारत का तूफानी दौरा कर चुके थे वो। प्रधानमंत्री बनने के बाद उनकी निगाह सबसे पहले ‘पड़ोसी’ मुल्कों पर गई और कुछ इस तरह गई कि लगा कि सारा ‘शेड्यूल’ तय था पहले से। ‘छोटे’ भूटान और नेपाल से लेकर ‘बड़े’ चीन और जापान तक और दूसरी ओर श्रीलंका से पाकिस्तान तक – तमाम पड़ोसियों से हमारे सम्बन्ध नए सिरे से ‘परिभाषित’ होने लग गए। ‘महाशक्तिशाली’ अमेरिका को उन्होंने बहुत सलीके से साधा। पहली बार लगा कि अमेरिका बराबरी पर बात कर रहा है हमसे। 28 साल तक जिस ऑस्ट्रेलिया को बिसराए रहे हम, सम्भावनाओं की तलाश में मोदी वहाँ भी पहुँचे। मॉरीशस, सिंगापुर, फ्रांस, जर्मनी, कनाडा, दक्षिण कोरिया – हर जगह मोदी दिखे और मोदी से अधिक भारत दिखा, विश्व-पटल पर अपने अस्तित्व को नए सिरे से तलाशता। कहीं हम संबंध बना रहे थे, कहीं समझौता कर रहे थे, कहीं व्यापार की संभावनाएं तलाशी जा रही थीं तो फिजी और मंगोलिया जैसे देशों को हम दिल खोलकर ‘दे’ भी रहे थे। हर जगह चर्चा में था भारत।
उनके विदेश दौरों पर टिप्णियां हुईं, काला धन के मुद्दे पर घेरने की कोशिश की गई, उन्हें ‘सूट-बूट’ की सरकार कहा गया, ललित मोदी और व्यापम को लेकर संसद भवन गूंजता रहा – वे खामोशी से सुनते रहे। उन्हें पता था कि समस्याएं हैं और केवल और केवल काम करके ही ‘जवाब’ दिया जा सकता है। चुनाव से पूर्व उन्होंने जो कहा वो सब ‘कर दिया’, ऐसा नहीं है लेकिन ‘कर देंगे’ का विश्वास उन्होंने जरूर हासिल किया है और ये बड़ी बात है। ये सचमुच बड़ी बात है कि भारत का प्रधानमंत्री ‘मन की बात’ कर रहा हो और पूरा देश उसे ‘मन’ से सुन रहा हो।
नेहरू के बाद लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, वीपी सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी, नरसिम्हा राव, मनमोहन सिंह जैसे प्रधानमंत्री हुए। सबके कार्यकाल की अपनी-अपनी उपलब्धियां रहीं। इन सबमें इंदिरा गाँधी और अटल बिहारी वाजपेयी नेहरू के बाद और मोदी के पहले के दो ऐसे नाम हैं जिनकी स्वीकार्यता दलगत सीमा से ऊपर और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की थी। आज मोदी का कद भी दल और देश की सीमा को पार कर चुका है लेकिन ये जितने कम समय में और जितनी गहराई और जितने विस्तार से हुआ है, वो सचमुच अविश्वसनीय लगता है। आज उनकी उपस्थिति पूरे देश में एक समान है… राष्ट्रीय ही नहीं, राज्य स्तर के भी हर दल उन्हें देखकर अपनी रणनीति बना या बदल रहे हैं… भारत के भविष्य का ‘रूप’ गढ़ने में वो केवल मौजूद ही नहीं रहते, अपने ‘विज़न’ के साथ मौजूद रहते हैं… और देश के बाहर कहीं भी जाने पर वो भारत के प्रधानमंत्री कम और हमारे ‘प्रतिनिधि’ ज्यादा लगते हैं। हमारा सोचा हुआ हमें उनके मुँह से सुनने को मिल जाता है, ऐसा पहले या तो बहुत कम होता था या फिर होता ही नहीं था।
ये स्पष्ट हो चुका है कि मोदी की राजनीति केवल प्रधानमंत्री बनने या बने रहने के लिए नहीं है। वो अपना ‘कैनवास’ अपनी तरह से रच रहे हैं। अपने ‘कार्यकाल’ पर नहीं अपने ‘युग’ पर अपनी छाप छोड़ रहे हैं वो। जिस गुजरात से आते हैं मोदी वहाँ से सीख कर आए हैं वो कि ‘राष्ट्रपिता’ और ‘लौहपुरुष’ का कद किसी भी पद से बड़ा होता है और ये भी कि ऐसी ‘विरासत’ को संजोने और उस ‘कड़ी’ से जुड़ने का ‘व्रत’ कितना कठिन होता है। मोदी को पता है कि ‘राज’ से बड़ी चीज है ‘नीति’ और ‘नीति’ से बड़ा होता है ‘विचार’। विचारों से ‘संस्कार’ बनता है और संस्कार से बनती है ‘संस्कृति’। उन्हें ये भी पता है कि इन सबको एक साथ साधने के लिए उन्हें थोड़ा विवेकानन्द, थोड़ा पटेल और थोड़ा अटल बनना होगा। उन्हें अपनी संस्कृति के तारों से ‘डिजिटल’ इंडिया को बुनना होगा। बहरहाल, आज़ाद भारत के लिए जो नेहरू ने किया था वही मोदी कर रहे हैं इक्कीसवीं सदी के भारत के लिए। इसीलिए बधाई तो बनती है उनके लिए और वो भी नेहरू के बराबर।
मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप