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महागठबंधन की बड़ी जीत और भाजपा की बड़ी हार के पाँच बड़े कारण

इधर बिहार में महागठबंधन की महाजीत का महाजश्न हो रहा है, उधर भयभीत भाजपा में भूचाल आया हुआ है। महागठबंधन की जीत और भाजपा की हार के कारण ढूँढ़े जा रहे हैं। हर चुनाव में हारने वाली पार्टी अपने हारने और अपने प्रतिद्वंद्वी के जीतने का कारण ढूँढ़ती है और ढूँढ़ना चाहिए भी। इसीलिए भाजपा के ऐसा करने में कुछ नया नहीं है। नया इस बात में है कि सारे कारण बीच चुनाव में दिख गए थे लेकिन भाजपा देख नहीं पाई। गांव-गली की गंवई जनता ने जो देख लिया उसे भाजपा के ‘हाईटेक’ रणनीतिकार देखने से चूक गए। वे भूल गए कि लाख संचार-क्रांति हो जाए तब भी चुनाव के मैदान में आपका हाथ ‘माउस’ से ज्यादा जनता की नब्ज पर होना चाहिए। तो चलिए कारणों की ‘भीड़’ से निकाल कर पाँच बड़े कारणों को देखें।

  1. ‘विकास’ में ‘सामाजिक न्याय’ का तड़का

वर्षों की दूरी और तमाम मतभेदों को किनारे कर जिस दिन नीतीश और लालू एक साथ आए उसी दिन उन्होंने आधी लड़ाई जीत ली थी। वक्त की नजाकत देख जेपी के दोनों शिष्यों ने ना केवल कांग्रेस से हाथ मिलाया बल्कि अंत तक निभाया। समूचा एनडीए पूरे चुनाव में महागठबंधन को ‘महास्वार्थबंधन’, ‘महालठबंधन’ और ना जाने क्या-क्या कहता रहा लेकिन जनता की नज़र में ये परफेक्ट कम्बिनेशन साबित हुआ। जिसमें एक ओर नीतीश की ‘विकासपुरुष’ की निर्विवाद छवि थी तो दूसरी ओर लालू के ‘सामाजिक न्याय’ का मजबूत आधार। नीतीश और लालू के एक साथ आने से इस सामाजिक न्याय को 25 साल पहले वाली ‘धार’ मिल गई। ये केवल ‘माय’ तक सीमित नहीं रहा।

यही नहीं, मात्र 41 सीटों पर लड़ रही कांग्रेस ने भी महागठबंधन में बड़ी भूमिका निभाई जिसे नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। कांग्रेस के साथ आने से ना केवल उसके राष्ट्रीय ‘कैनवास’ का सांकेतिक जुड़ाव महागठबंधन से हुआ बल्कि अगड़ी जातियों में भी थोड़ी-बहुत सेंधमारी करने में महागठबंधन को सफलता मिली।

  1. नीतीश का ‘चेहरा’ और तगड़ा टीमवर्क

नेताओं की बड़ी फौज के बावजूद मुख्यमंत्री पद के लिए एक अदद चेहरा ना ढूँढ़ पाना एनडीए की बड़ी कमजोरी साबित हुई। इस मामले में भाजपा का रवैया जरूरत से ज्यादा ‘डिफेंसिव’ रहा। उधर नीतीश कुमार का तपा-तपाया, हर तरह से आजमाया और सर्वमान्य ‘चेहरा’ था। नीतीश को नेता मानने और हर मंच से उन्हें अपना मुख्यमंत्री बताने में लालू ने सचमुच बड़े भाई जैसी ‘उदारता’ दिखाई। सोनिया और राहुल ने भी अपने भाषणों में नीतीश के नाम और काम को आगे रखा। टिकट बंटवारे से लेकर चुनाव-प्रचार और पाँचों चरणों के मतदान तक कहीं भी महागठबंधन के टीमवर्क में कमी नहीं दिखी। जबकि एनडीए में ‘टीमवर्क’ नाम की चीज थी ही नहीं। टिकट में हिस्सेदारी को लेकर शुरू हुए पासवान, मांझी और कुशवाहा के आपसी मतभेद और खींचातानी ने अंतत: भाजपा की लुटिया डुबो दी।

सच तो ये है कि अपने साथियों को भाजपा ने उनकी ‘औकात’ से ज्यादा सीटें दीं। इससे उसकी अन्दरूनी कमजोरी दिखी। यही नहीं, आम जनता ने ये समझने में भी देर नहीं की कि पप्पू यादव भाजपा के द्वारा ‘स्पांसर्ड’ हैं, मुलायम सिंह के अचानक मुलायम पड़ने के पीछे स्पष्ट ‘डील’ है और ओवैसी का बिहार में अचानक कूद पड़ना भी ‘अकारण’ नहीं है।

  1. मोदी का ‘बड़े’ मंच से ‘छोटा’ व्यवहार

नरेन्द्र मोदी ने अपनी पार्टी द्वारा प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित होने से प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने तक और उसके बाद अपनी एक के बाद एक विदेश यात्राओं से दुनिया भर में जो सुर्खियां और तालियां बटोरीं और अपने कद में इजाफा किया उसे एकदम से दांव पर लगाने बिहार आ गए। वो नीतीश को हर मंच से अहंकारी कहते रहे लेकिन असल में अहंकार उनके बॉडी लैंग्वेज में था जिसे बिहार की जनता बहुत गहरे जाकर देख रही थी। उनके हाव-भाव से स्पष्ट दिख रहा था कि जिस नीतीश ने कभी प्रधानमंत्री पद के लिए मुझे चुनौती दी थी उसे मैं मुख्यमंत्री भी नहीं रहने दूंगा। उन्होंने बिहार चुनाव को इस कदर ‘पर्सनलाइज’ कर दिया कि भाजपा और एनडीए की जगह केवल वही दिख रहे थे। ये सचमुच दिखने की ‘अति’ थी। एक प्रधानमंत्री का और उसमें भी उनके कद के प्रधानमंत्री का एक राज्य के चुनाव लिए 26 रैलियां करना मन में कई तरह के सवाल खड़े करता है।

खैर, बात रैलियों तक रहती तो एक बात थी। रैलियों में उनका भाषण वो नहीं था जिसके लिए वो जाने जाते हैं। भाषण की भाषा और शैली तो हरगिज शोभा देने वाली नहीं थी। सबसे पहले उन्होंने नीतीश का ‘डीएनए’ खराब होने की बात कहकर और मुसीबत मोल लेने की शुरुआत कर दी। इसके बाद उन्होंने सवा लाख करोड़ का पैकेज दिया लेकिन जिस तरह से बोली लगा कर दिया उसने उनका और उस पैकेज दोनों का वजन कम कर दिया। इसी तरह राजद को बार-बार “रोजाना जंगलराज का डर” और जदयू को “जनता का दमन और उत्पीड़न” कहकर उन्होंने ‘हल्कापन’ दिखाया और अंतत: जनता का एक बड़ा ‘अस्वीकार’ उन्हें झेलना पड़ा। लोक -‘तांत्रिक’ वाली बात भी लोगों को हजम नहीं हुई। और हाँ, इन सबके बरक्स नीतीश ने अपने ‘संयम’ और ‘शालीनता’ से बिहार और बिहार के बाहर भी लोगों के दिल और दिमाग में जगह बनाई।

  1. आरक्षण, बीफ और पाकिस्तान में पटाखे

ऊपर के तीन कारण ही भाजपा की हार के लिए कम नहीं थे। जो कसर रही वो बीच चुनाव में मोहन भागवत के आरक्षण की समीक्षा वाले बयान, गिरिराज सिंह जैसे नेताओं का बेवजह ‘बीफ’ को मुद्दा बनाने और अंत में अमित शाह के “महागठबंधन के जीतने पर पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे” वाले बयान ने पूरी कर दी। इन नकारात्मक मुद्दों को बिहार की परिपक्व जनता ने खारिज कर पूरे देश में एक बड़ा मैसेज दिया। नीतीश और लालू ने इन मुद्दों से हवा को अपने पक्ष में करने में कोई चूक नहीं की। एनडीए जहाँ इन अनर्गल मुद्दों पर आक्रामक होने का ‘स्वांग’ करने में उलझा रहा वहीं महागठबंधन इन सबका जवाब देने के साथ-साथ ‘नीतीश के सात निश्चय’ को भी जनता के बीच पहुँचाने में सफल रहा। एनडीए की लाख कोशिशों के बावजूद लोगों के मन में ‘जंगलराज’ का डर तो नहीं बैठा लेकिन लालू वोटरों में ये डर बिठाने में कामयाब रहे कि बीजेपी को सत्ता दोगे तो आरक्षण छिन जाएगा।

  1. अगड़ों की ‘आग’ से पिछड़ों का पिघलना

भाजपा ने बड़ी रणनीति के तहत रामविलास पासवान, जीतनराम मांझी, उपेन्द्र कुशवाहा, रामकृपाल यादव, भूपेन्द्र यादव, मुकेश सहनी जैसे प्रतीकों को खड़ा किया। उसे उम्मीद थी कि ऐसा कर वो दलित-महादलित और पिछड़े-अतिपिछड़े वोटों में बड़ी सेंधमारी कर पाएगी। और तो और प्रधानमंत्री को पहले पिछड़ा और फिर अतिपिछड़ा बताने की कोशिश भी की गई। लेकिन इन तमाम कोशिशों पर भाजपा के ‘अगड़े’ नेताओं का नीतीश-लालू के खिलाफ उग्र से उग्रतर होते जाना और ‘अपशब्दों’ का धड़ल्ले से प्रयोग करना भारी पड़ गया। अगड़ों ने आग क्या उगली, पिछड़े पिघलकर महागठबंधन से जा मिले।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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लालू एवं नीतीश कुमार को बधाइयों का ताँता ……!!

बिहार में अगले पाँच साल ! केवल और केवल नीतीश कुमार !! ऐसी अदभुत जीत के लिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सहित महागठबंधन के सभी विजेताओं को डॉ.भूपेन्द्र मधेपुरी की कोटि-कोटि हार्दिक बधाई !

इस नतीजे का सही अर्थ बिहार के अन्दर और बाहर के लोगों की समझ में यही आया है कि ये सिर्फ और सिर्फ विकास,सुशासन और साम्प्रदायिक सदभाव की जीत है – केवल कहने के लिए है कि भाजपा का अहंकार ही उसे खा गया |

यह सार्वभौमिक सत्य है कि यदि कोई राजनेता सृजन के कार्यों में ध्यानमग्न होकर उसकी गहराइयों में पूर्णरूपेण उतरने लगता है तो उस विशेष कालावधि के लिए उसकी सारी ऊर्जा जनहित की योजनाओं को धरती पर उतारने में समाहित होने लगती है और वही राजनेता अहंकारमुक्त होने लगता है |

राजनीति के फिसलन भरे रास्ते पर बिना फिसले चलते रहना उतना ही कठिन है जितना तेज धारवाली नंगी तलवार पर नंगे पैर चलना कठिन है | फिरभी वैसे कठिन रास्ते पर चलकर “ बिहार के स्वाभिमान” और “ माय समीकरण” के उत्साह को चर्मोत्कर्ष पर पहुँचाकर बिहार वासियों के दिल को जीतने के लिए राजनेता द्वय नीतीश-लालू सहित पूरी टीम को हार्दिक बधाई |

नीतीश जी ! आप बिहार की राजनीति को अगले पाँच वर्षो तक नित्य नया संस्कार देते रहेंगे ताकि किसी अपनों को भी छठे वर्ष यह कहने का कोई अवसर ना मिले कि ‘आप’ को भी अहंकार छू गया बल्कि बिहार की सुशासनप्रिय तथा सांप्रदायिक सदभाव में विश्वास करने वाली विकासोन्मुखी जनता सहित राष्ट्रीय पार्टियों के अध्यक्ष – शरद यादव, लालू प्रसाद, सोनिया गाँधी….. यहाँ तक कि मुलायम सिंह यादव भी सम्मिलित रूप से यही कहने लगे…. और कहते रहे कि –

इस चन्द्रगुप्त की गद्दी पर
बैठो नीतीश तुम बार-बार !
इस बिहार की लोकभूमि पर
आना नीतीश तुम बार-बार !!

– डॉ.मधेपुरी की कलम से……

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मोदी-शाह की करारी हार, नीतीश-लालू का हुआ बिहार

बिहार में लालू-नीतीश की जोड़ी मोदी और शाह पर बहुत भारी पड़ी। चुनाव में ना मोदी का भाषण काम आया, ना शाह का मैनेजमेंट। प्रधानमंत्री ने चुनाव को “केन्द्र बनाम बिहार” बनाया, पूरे कैबिनेट को प्रचार में झोंका, अपने कद तक को दांव पर लगा दिया लेकिन हाथ कुछ ना आया। एनडीए को जैसी हार और महागठबंधन को जैसी जीत मिली उससे तमाम सर्वे और एग्जिट पोल धाराशायी हो गए।

बिहार चुनाव में महागठबंधन अत्यन्त भव्य और ऐतिहासिक जीत दर्ज करने जा रही है। उसे 243 में से 178 सीटें मिलने जा रही है। एनडीए महज 59 सीटों पर सिमटती दिख रही है। 80 सीटों के साथ राजद सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी है और इस तरह अपने राजनीतिक जीवन की निर्णायक लड़ाई लालू प्रसाद यादव ने बड़े शान से जीती है। ‘चेहरा’ और ‘सेहरा’ नीतीश कुमार का रहा लेकिन ‘मैन ऑफ द मैच’ लालू रहे, इसमें कोई दो राय नहीं।

भाजपा और उसके तमाम सहयोगी दलों ने पूरे चुनाव में नीतीश पर सबसे अधिक तंज इस बात के लिए कसा कि उन्होंने लालू और कांग्रेस (खासकर लालू) के साथ गठबंधन किया। नीतीश के घोर समर्थक भी दबी जुबान से कहते रहे कि लालू के साथ खड़ा होना उनकी राजनीतिक सेहत के लिए ठीक नहीं। उन्हें अकेले अपने दम पर चुनाव लड़ना चाहिए था। लेकिन बिहार की जनता ने जिस तरह अपने मत से महागठबंधन को निहाल किया है उससे तमाम आलोचक बस बगलें झाँक रहे हैं।

लालू, नीतीश और कांग्रेस ने टिकट बंटवारे से लेकर चुनाव-प्रचार तक बहुत समझदारी से काम लिया। एनडीए एक ओर मोदी के ‘आभामंडल’ से उपजे अतिआत्मविश्वास का शिकार हुआ तो दूसरी ओर सहयोगी दलों की खींचातानी में उलझा रहा। उधर महागठबंधन ने एक-एक कदम बड़ी सावधानी से रखा और लगातार ‘टीमवर्क’ किया। जेडीयू ने अपनी वो सीटें उदारता से कुर्बान कीं जिन पर राजद और कांग्रेस भाजपा से ज्यादा बेहतर लोहा ले सकती थीं। इसका लाभ सामने है। आज भले ही जेडीयू की अपनी सीटें कम हो गई हों लेकिन नीतीश की मुहर महागठबंधन की सारी 179 सीटों पर लगी हुई है।

2010 में जेडीयू की 115, राजद की 22 और कांग्रेस की 4 सीटें थीं। इस बार जेडीयू को 71, राजद को 80 और कांग्रेस को 27 सीटें मिल रही हैं। लालू-नीतीश का साथ पाकर मुरझायी कांग्रेस में एक बार फिर जान आ गई। एनडीए की बात करें तो भाजपा और उसके तमाम सहयोगी दल मिलकर भी अकेले लालू या अकेले नीतीश से पीछे हैं। भाजपा को छोड़ दें तो पासवान, मांझी और कुशवाहा की सीटें मिलाकर भी कल तक ‘बेचारी’ कही जाने वाली कांग्रेस तक से चौथाई से भी कम रह गई है। पिछली बार नीतीश के साथ भाजपा को 91 सीटें मिली थीं। इस बार उसका खाता 53 पर बन्द हो रहा है। लोजपा को 3, रालोसपा को 2 और हम को महज 1 सीट मिल रही हैं। पिछली बार भी लोजपा को 3 ही सीटें मिली थीं। हम और रालोसपा तब अस्तित्व में नहीं थीं। अन्य के खाते में 6 सीटें जाती दिख रही हैं। पूरा परिणाम आने पर ये सीटें हो सकता है और कम रह जाएं।

कोसी की बात करें तो यहाँ की 13 में से 12 सीटों पर महागठबंधन का कब्जा होने जा रहा है। आलगनगर से नरेन्द्र नारायण यादव, सुपौल से बिजेन्द्र प्रसाद यादव, सिमरी बख्तियारपुर से दिनेश चन्द्र यादव जीत का परचम फहरा रहे हैं। एनडीए की ओर से बस नीरज कुमार बबलू (छातापुर) ही मैदान में टिक पाए हैं। कोसी या सीमांचल में पप्पू फैक्टर की चर्चा पूरे चुनाव के दौरान रही। दावा तो पप्पू पूरे बिहार पर कर रहे थे। लेकिन उनके तमाम उम्मीदवार महागठबंधन के झोंके में उड़ गए। ज्यादातर सीटों पर उनके उम्मीदवार हजार का आंकड़ा छूने को भी तरस गए। महागठबंधन का साथ बीच राह में छोड़ने वाले मुलायम भी पूरे परिदृश्य से जैसे अदृश्य हो गए।

कुल मिलाकर ये कि बिहार ने केन्द्र के लिए भले ही नरेन्द्र मोदी को चुना हो लेकिन बिहार के लिए उसका ऐतबार अभी भी नीतीश कुमार पर है। ‘विकासपुरुष’ के काम को लोगों ने सम्मान दिया। ये साफ हो गया कि मतदान में महिलाओं की लम्बी कतार नीतीश के लिए थी। महादलितों ने भी मांझी से अधिक नीतीश को तरजीह दी। कमोबेश सभी जातियों के वोट महागठबंधन को मिले। मुस्लिम पूरी तरह उसके पक्ष में एकजुट रहे।

पूरे चुनाव में नीतीश ने जो शालीनता बरती उससे उनका कद राष्ट्रीय स्तर पर और बढ़ा है। लालू ने भी अपना खोया आत्मविश्वास इस चुनाव से हासिल किया है। कांग्रेस को भविष्य की राजनीति का सूत्र मिल गया। एनडीए के लिए अब बंगाल और उत्तर प्रदेश की डगर बहुत मुश्किल हो गई। मोदी और उनकी ‘अति आक्रामक’ टीम को अब समझना पड़ेगा कि सभाओं में भीड़ जुटना और भीड़ का वोट में तब्दील होना अलग-अलग बात है।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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बिहार में ‘कमल’ की बहार हो… पर नीतीशे कुमार हो..!

हेडलाईन पढ़कर जरूर चौंके होंगे आप। ये हेडलाईन जेडीयू के चुनाव-गीत “बिहार में बहार हो, फिर से नीतीशे कुमार हो” में ‘थोड़े’ पर ‘बहुत बड़े’ परिवर्तन के बाद बनी है। अगर कहा जाय कि रिकॉर्ड 60 प्रतिशत मतदान के साथ सम्पन्न हुए बिहार चुनाव के पाँचवें और अन्तिम चरण के उपरान्त तमाम न्यूज़ चैनलों पर दिखाए गए एग्जिट पोल का यही ‘वास्तविक’ निचोड़ है, तो गलत ना होगा। 2010 की तरह जेडीयू और भाजपा ने इस बार भी साथ चुनाव लड़ा होता तो 8 नवंबर को निकलकर आनेवाली तस्वीर बहुत कुछ वैसी ही दिखती जैसी हेडलाईन के साथ दी गई तस्वीर दिख रही है। जी हाँ, यही वो तस्वीर है जो बिहार की जनता देखना चाहती थी। केन्द्र में नरेन्द्र मोदी और बिहार में नीतीश कुमार। दोनों साथ-साथ। वहाँ भी और यहाँ भी।

बिहार की जनता का ‘द्वंद्व’ एग्जिट पोल से जैसे झाँक रहा है। हालाँकि सारे एग्जिट पोल का औसत निकाल कर देखें तो पलड़ा महागठबंधन का भारी है लेकिन अन्तिम समय में कौन बाजी मार ले जाएगा, कहना मुश्किल है। भोली-भाली जनता अब ‘चतुर’ हो गई है। उसने पूरी ‘पिक्चर’ को कुछ इस तरह निर्देशित किया है कि ‘सस्पेंस’ आखिरी दृश्य में ही खुलेगा। और वो ‘सस्पेंस’ उसके… केवल उसके मन का होगा… सारे नेता चाहे जो शोर मचाते रहें। बहरहाल, चलिए देखें कि एग्जिट पोल कह क्या रहे हैं।

एबीपी न्यूज़/नीलसन के अनुसार महागठबंधन को 130, एनडीएको 108 और अन्य को 5 सीटें मिल रही हैं। यानि स्पष्ट तौर पर महागठबंधन की सरकार बन रही है। एक और प्रमुख चैनल इंडिया टीवी/सी-वोटर्स ने महागठबंधन को 112-131, एनडीए को 101-121 और अन्य को 6-14 सीटें दी हैं। यानि सरकार महागठबंधन की बन रही है। न्यूज़ नेशन का आकलन भी कुछ ऐसा ही है। उसने अपने एग्जिट पोल में महागठबंधन को 125, एनडीए को 114 और अन्य को 4 सीटें दी हैं। न्यूज़ एक्स/सीएनएक्स ने महागठबंधन की जीत और बड़े फासले से होने की बात कही है। इस एग्जिट पोल में महागठबंधन को 130 से 140 सीटें मिल रही हैं, जबकि एनडीए के खाते में 90 से 100 सीटें ही जा रही हैं। अन्य को 7 सीटें मिल सकती हैं। टाइम्स नाउ/सी-वोटर के मुताबिक भी नीतीश की अगुआई वाला महागठबंधन आगे है। इस एग्जिट पोल में महागठबंधन को 112 से 132 सीटें मिलने का अनुमान है, भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए को 101 से 121 सीटें मिल सकती हैं और अन्य के खाते में 6 से 14 सीटें जाने की बात कही गई है।

एबीपी न्यूज़, इंडिया टीवी, न्यूज़ नेशन, न्यूज़ एक्स और टाइम्स नाउ – इन पाँच चैनलों के मुताबिक महागठबंधन की सरकार बन रही है। इसके बरक्स एक और तस्वीर है जो न्यूज़ 24/टूडेज चाणक्या के एग्जिट पोल से निकल कर आई है। इस एग्जिट पोल के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। इसमें एनडीए को 155, महागठबंधन को 83 और अन्य को 5 सीटें दी गई हैं। यानि पूर्ण बहुमत के साथ भाजपा के नेतृत्व में सरकार। बता दें कि दिल्ली चुनाव में ‘आप’ को दो तिहाई बहुमत की भविष्यवाणी भी न्यूज़ 24/चाणक्या ने ही की थी और वो सच साबित हुई थी।

अब एक नज़र आज तक पर दिखाए गए इंडिया टुडे/सिसरो के एग्जिट पोल पर डालें। इसमें एनडीए को 113 से 127, महागठबंधन को 111 से 123 और अन्य को 4-8 सीटें दी गई हैं। वोटों के प्रतिशत की बात करें तो इस एग्जिट पोल में एनडीए को 41, महागठबंधन को 40 और अन्य को 19 प्रतिशत वोट मिल रहे हैं। कहने का मतलब ये कि कड़े मुकाबले में एनडीए थोड़ा आगे है।

इस तरह इन सात चैनलों के एग्जिट पोल में पाँच के अनुसार महागठबंधन की सरकार बन रही है और दो के अनुसार भाजपा की अगुआई में नई सरकार बनने जा रही है। इन सभी एग्जिट पोल का औसत निकालें तो महागठबंधन को 119, एनडीए को 117 और अन्य को 7 सीटें मिलती हैं। यानि मुकाबला सचमुच काँटे का है। ये भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि कई सीटों पर वोटों का अन्तर बहुत कम होने की सम्भावना है। इस कारण भी ‘सस्पेंस’ अंत तक बना रहेगा।

8 नवंबर को चाहे जो हो, कम-से-कम एग्जिट पोल में तो महागठबंधन ने एनडीए को पटखनी दे ही दी है। अभी जितने सर्वे में महागठबंधन को आगे बताया गया है, सितम्बर-अक्टूबर के लगभग उतने ही प्री-पोल सर्वे में एनडीए की बढ़त थी।

चलिए, हमने सारे एग्जिट पोल को जान लिया। सीटों का जोड़-घटाव, गुणा-भाग कर लिया। लेकिन क्या इन सारे एग्जिट पोल में केवल सीटों का आंकड़ा ही देखा जाना चाहिए..? क्या इन सारे एग्जिट पोल से बिहार की जनता का ‘द्वंद्व’ नहीं झाँक रहा है..? क्या ये नहीं लग रहा कि बिहार भले ही नरेन्द्र मोदी में ‘सम्भावना’ देख रहा है लेकिन नीतीश कुमार में उसकी ‘आस्था’ अभी भी है। क्या ऊपर दी गई तस्वीर ही वो सच्चाई नहीं है जिसे दरअसल बिहार की जनता देखना चाहती थी..? अगर 2010 की तरह जेडीयू और भाजपा ने चुनाव साथ लड़ा होता तो शायद किसी एग्जिट पोल की जरूरत ही ना पड़ती। परिणाम सबको पता होता। खैर छोड़िए… चलिए 8 नवंबर का इंतजार करते हैं और देखते हैं कि होता क्या है..? समय बड़ा बलवान होता है, वो कब क्या कराएगा, कौन जानता है..?

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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बताइए अमित शाह..! बिहार में बीजेपी हारी तो पाकिस्तान में पटाखे क्यों जलेंगे..?

क्या बीजेपी ने बिहार में हार मान ली है और वो भी दो चरण शेष रहते..? पहले एक राज्य के चुनाव के लिए मोदी के कद के प्रधानमंत्री को तमाम जिलों और केन्द्र के दर्जनों मंत्रियों को गली-मुहल्लों तक उतार देना, दूसरे इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया का ‘अति’ आक्रामक उपयोग और तीसरे लालू और नीतीश पर जाति की राजनीति का आरोप लगाते-लगाते स्वयं उससे भी आगे निकल धर्म के नाम पर वोटों के ध्रुवीकरण की कोशिश कुछ ऐसा ही बयां करती है।

भाजपा की ‘हिन्दूवादी’ छवि कोई छिपी हुई या छिपाई जाने वाली चीज नहीं। अब तक अपनी इस छवि को ‘भुनाने’ का शायद ही कोई मौका पार्टी ने छोड़ा हो। लेकिन सभाओं और बयानों में ‘राजनीतिक समझदारी’ और ‘सामाजिक जिम्मेदारी’ बरतने में कोई कोताही नहीं बरती जाती थी। भाजपा के ‘मोदीयुग’ में भी वाजपेयी का ‘संस्कार’ बहुत हद तक बचा था। पर अब उस ‘धरोहर’ की धज्जियां उड़ रही हैं। ये काम कोई भी करे, निन्दनीय होगा लेकिन जब ये काम पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष करें तो बात निन्दा से आगे की हो जाएगी।

चौथे और पाँचवें चरण के प्रचार के क्रम में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह कल 29 अक्टूबर को बिहार के बेतिया में थे। यहाँ एक चुनावी जनसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि अगर बिहार में बीजेपी हारती है तो पटाखे पाकिस्तान में जलेंगे। शाह का कहना था कि बीजेपी के हारने पर सबसे ज्यादा खुश जेल में बंद शहाबुद्दीन होगा। चलिए मान लेते हैं कि आपराधिक छवि वाले बाहुबली नेता शहाबुद्दीन लालू की पार्टी से सांसद रह चुके हैं और इस कारण यहाँ तक जबरन उनकी बात का तुक निकाल लें तो भी इस बात का तुक भला कौन निकालेगा कि 8 नवंबर को परिणाम भले ही पटना में निकलेंगे लेकिन पटाखे पाकिस्तान में जलाए जाएंगे..?

क्या ‘पाकिस्तान’ से शाह का मतलब ‘मुसलमान’ से है..? अगर हाँ, तो क्या भाजपा के अध्यक्ष मान चुके हैं कि उनकी पार्टी को मुस्लिम मत बिल्कुल नहीं मिल रहे..? क्या ये हताशा नहीं है भाजपा की..? हाँ, इसे हताशा ही कहेंगे क्योंकि शाह का बयान जुबान फिसलने की सीमा से बहुत आगे की बात है।

सार्वजनिक मंच की एक अलग ‘गरिमा’ और ‘सीमा’ होती है और जब आप एक बड़े दल के बड़े नेता हों तो आपसे इन बातों की अतिरिक्त अपेक्षा होती है। अगर गरिमा और सीमा किसी कारण आप भूल भी रहे हों तब भी मूलभूत ‘समझदारी’ और ‘सभ्यता’ की उम्मीद तो आपसे की ही जाती है। पर ना जाने अमित शाह कैसे इस तरह की भूल कर बैठे..?

शाह उत्तर प्रदेश को दुहराने की प्रत्याशा में लम्बे समय से बिहार में कैम्प कर रहे हैं। पर अब लगता है कि उन्हें ‘दिल्ली’ की आशंका सताने लगी है। पिछले तीन चरणों में मतदान का जो प्रतिशत रहा है तथा जातियों की जिस तरह की गोलबंदी देखने को मिली है उससे भाजपा कुछ ज्यादा ही सशंकित हो गई है। भाजपा का खेल बिहार में अगर बिगड़ता है तो वो स्थानीय कारणों से कम और मोहन भागवत के आरक्षण पर दिए बयान और अब शाह के पाकिस्तान में पटाखे छूटने वाले बयान से ज्यादा बिगड़ेगा। अमित शाह इस तरह के बयानों से गुजरात के अपने ‘दागदार अतीत’ की याद बिहार को ना दिलाएं तो ही बेहतर होगा उनके लिए और उनकी पार्टी के लिए भी।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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मोदी अब दुनिया के सबसे बड़े ‘स्टाईल आइकॉन’, 42 राष्ट्राध्यक्ष पहनेंगे उनका परिधान

नरेन्द्र मोदी के विरोधी चाहे जो बोलें उनका जादू ना केवल दिन-ब-दिन बढ़ रहा है बल्कि अब तो लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा है। मोदी की विदेश नीति कितनी सफल है इस पर भले ही ‘विवाद’ की गुंजाइश हो लेकिन भारत समेत दुनिया भर में उनका कैसा ‘असर’ है ये देखने के लिए एक ही दृश्य काफी होगा। जी हाँ, कल्पना करें उस दृश्य की जब एक नहीं, दो नहीं पूरे 42 राष्ट्राध्यक्ष उनके परिधान में दिखेंगे।

दरअसल, 26 से 29 अक्टूबर तक नई दिल्ली में इंडो-अफ्रीकन फोरम समिट (आईएएफएस) – 2015 का आयोजन होने जा रहा है। इस समिट में शामिल होनेवाले सभी 42 राष्ट्राध्यक्षों को प्रधानमंत्री मोदी बहुत खास उपहार देने जा रहे हैं। ये उपहार है मोदी स्टाईल की बंडी (मोदी जैकेट) और ‘इक्कत’ कुर्ते का जिस पर अब उनकी छाप लग चुकी है।

जरा रुकिए, अभी ख़बर पूरी नहीं हुई। असली ख़बर तो ये है कि समिट के दौरान प्रधानमंत्री द्वारा दिए जानेवाले भोज में सभी राष्ट्राध्यक्ष ‘मोदी जैकेट’ में दिखेंगे। यही नहीं, अपने प्रवास के दौरान सभी राष्ट्राध्यक्ष मोदी स्टाईल के कुर्ते में भी दिखाई देंगे। इसके लिए सभी राष्ट्राध्यक्षों की पसंद को देखते हुए अलग-अलग रंग के कुर्ते बनाए जा रहे हैं। इससे पहले चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भी अपनी भारत-यात्रा के दौरान मोदी जैकेट में दिखे थे। बताया जाता है कि अफ्रीकी देशों के कई राजनेता मोदी के इस डिप्लोमेसी स्टाईल के कायल हो गए हैं।

यह पहला मौका है जब अफ्रीकी देशों के राष्ट्राध्यक्ष इतनी बड़ी संख्या में यहाँ मौजूद होंगे। राष्ट्राध्यक्षों के साथ-साथ इसमें अफ्रीकी देशों के 400 उद्योगपति भी शामिल हो रहे हैं। मोदी भविष्य की सम्भावनाओं के मद्देनज़र इस अवसर का महत्व जानते हैं। यही कारण है कि बिहार चुनाव को लेकर अपने अति व्यस्त कार्यक्रम के बावजूद वो इस अवसर को यादगार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते।

भारत और अफ्रीका के बीच ऐतिहासिक रिश्ता रहा है। भारत अफ्रीका में एक बड़ा निवेशक है और हाल के वर्षों में वहाँ इसका व्यापार बहुत तेजी से बढ़ा है। वर्तमान में अफ्रीका के साथ भारत का कारोबार 75 अरब डॉलर का है और भारत ने पिछले चार सालों में अफ्रीकी महाद्वीप को 7.4 अरब डॉलर का कर्ज दिया है जिसका उपयोग 41 देशों की 137 परियोजनाओं मे हो रहा है।

यह भी जानें कि तंजानिया, सूडान, मोजांबिक, केन्या, युगांडा समेत कई अफ्रीकी देशों के पास बड़े पैमाने पर तेल और गैस के भंडार हैं। भारत अपने आर्थिक विकास के लिए ईंधन में विशेष रूप से निवेश चाहता है। इसके अलावा भारत समुद्र क्षेत्र से जुड़े कारोबार में भी अहम साझेदारी चाहता है। यही नहीं, भारत अफ्रीकी देशों के साथ कृषि, ऊर्जा, स्वास्थ्य क्षेत्र, आधारभूत ढाँचे और तकनीक में विस्तार के लिए भी काम करने की इच्छा रखता है।

इन तमाम तथ्यों की पृष्ठभूमि में इंडो-अफ्रीकन फोरम समिट का महत्व सहज ही समझा जा सकता है। बहरहाल, कूटनीतिक सम्भावना अपनी जगह है, फिलहाल तो मोदी की ‘पर्सनल डिप्लोमेसी’ के कारण ये समिट पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींच रहा है।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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नोबेल विजेता सत्यार्थी बने ह्यूमैनिटेरियन अवार्ड पाने वाले पहले भारतीय

कैलाश सत्यार्थी के काम को एक और ‘सलाम’ मिला है। शांति के इस नोबेल पुरस्कार विजेता के नाम एक और प्रतिष्ठित पुरस्कार जुड़ गया है। पिछले सप्ताह उन्हें हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रतिष्ठित ‘हार्वर्ड ह्यूमैनिटेरियन ऑफ द ईयर’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्हें यह सम्मान बाल अधिकारों की रक्षा में उनके योगदान को देखते हुए दिया गया है। बता दें कि सत्यार्थी इस पुरस्कार को पाने वाले पहले भारतीय हैं।

‘ह्यूमैनिटेरियन’ पुरस्कार ऐसे व्यक्ति को दिया जाता है जिसने लोगों के जीवन की गुणवत्ता सुधारने की दिशा में उल्लेखनीय काम किया हो और लोगों को अपने काम से प्रेरित किया हो। सत्यार्थी ने हाल ही में संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों में बाल संरक्षण एवं कल्याण संबंधी प्रावधानों को शामिल कराने में महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त की है। इन प्रावधानों का लक्ष्य बच्चों की दासता, तस्करी, जबरन श्रम और हिंसा को समाप्त करना है।

सत्यार्थी ने पुरस्कार स्वीकार करते हुए कहा- उन लाखों वंचित बच्चों की ओर से विनम्रतापूर्वक यह पुरस्कार स्वीकार करता हूँ जिनके अधिकारों की रक्षा के लिए हम प्रयास कर रहे हैं। आओ, हम सब मिलकर विश्व से बाल दासता को समाप्त करने का प्रण लें। इस अवसर पर उन्होंने एक बड़े ‘सत्य’ को रेखांकित किया कि अमेरिका समेत विकसित देशों में भी सैकड़ों गुलाम बच्चे हैं जिन्हें श्रम करने के लिए मजबूर किया जाता है, देह व्यापार में धकेला जाता है या घरेलू श्रम के लिए उनकी तस्करी की जाती है। कहने का अर्थ ये है कि आज ये समस्या विश्वव्यापी है। तीसरी दुनिया कहे जाने वाले देश ही नहीं अपने ‘ऐश्वर्य’ पर इतराने वाले देश भी इससे अछूते नहीं। ऐसे में सत्यार्थी के काम की क्या अहमियत है, ये कहने की जरूरत नहीं।

कैलाश सत्यार्थी आज बालश्रम के विरुद्ध संघर्ष के प्रतीक बन चुके हैं। 1980 में उनके द्वारा शुरू किया गया ‘बचपन बचाओ आन्दोलन’ आज किसी परिचय का मोहताज नहीं। अपने इस आन्दोलन की बदौलत वो अब तक अस्सी हजार मासूमों की ज़िन्दगी संवार चुके हैं। कितनी बड़ी बात है कि इस ‘साधक’ ने इतनी बड़ी साधना अकेले अपने दम पे की, बिना किसी शोर-शराबे के। आज अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उनकी जो पहचान और स्वीकार्यता है उसके मूल में सिर्फ और सिर्फ उनका काम है, कोई सरकार, कोई सिफारिश, सोशल मीडिया पर चलाया गया कोई कैम्पेन या प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की कोई चकाचौंध नहीं। ‘विज्ञापन’ के युग में ये बातें उन्हें भीड़ से एकदम अलग करती हैं। नोबेल के बाद ‘हार्वर्ड ह्यूमैनिटेरियन ऑफ द ईयर’ पुरस्कार इस बात की एक और तस्दीक है।

इस पुरस्कार के महत्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सत्यार्थी से पहले यह पुरस्कार मार्टिन लूथर किंग सीनियर, संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिवों कोफी अन्नान, बुतरस बुतरस-घाली और ज़ेवियर पेरिज डी कुईयार, नोबेल पुरस्कार विजेताओं जोस रामोस-होर्ता, बिशप डेसमंड टूटू, जॉन ह्यूम और एली वेसल तथा संयुक्त राष्ट्र के वर्तमान महासचिव बान की मून जैसी हस्तियों को मिल चुका है।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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महात्मा गांधी और नोबेल पुरस्कार का सच

1964 में मार्टिन लूथर किंग जूनियर (अमेरिका), 1980 में अडोल्फो पेरेस एस्कुइवेल (अर्जेंटीना), 1989 में दलाई लामा (तिब्बत), 1991 में आंग सान सू की (बर्मा), 1993 में नेल्सन मंडेला (दक्षिण अफ्रीका), 2007 में अल गोर (अमेरिका) और 2009 में बराक ओबामा (अमेरिका) नोबेल शांति पुरस्कार से नवाजे गए। एक ही पुरस्कार से सम्मानित होने के अलावे भी इन सबमें एक समानता है और वो ये कि इन सभी को महात्मा गांधी के जीवन, उनके व्यक्तित्व और उनके विचारों ने प्रभावित किया था। क्या आपके मन में ये सवाल नहीं उठता कि इन सबके जिस ‘संघर्ष’ ने इन्हें नोबेल पुरस्कार तक पहुँचाया उस संघर्ष को ‘आकार’ देनेवाले गांधीजी को ही नोबेल नहीं मिला..? आगे चलकर 2014 में शांति का नोबेल भारत के कैलाश सत्यार्थी को मिला और उनके प्रशस्ति-पत्र में बाकायदा ये लिखा गया कि वे गांधी के मार्ग पर चले। कितने आश्चर्य की बात है कि जिस ‘गांधी’ के नाम के बिना एक नोबेल विजेता का ‘प्रशस्ति-पत्र’ पूरा नहीं होता उसी गांधी को नोबेल से वंचित रखा गया। इसे नोबेल की ‘भूल’ नहीं उसका ‘अपराध’ कहा जाना चाहिए।

हालांकि नोबेल कमिटी ने ये ‘अपराधबोध’ व्यक्त भी किया लेकिन गांधी की मृत्यु के 58 साल बाद। 2006 में दिए अपने सार्वजनिक वक्तव्य में नोबेल कमिटी ने कहा – “The greatest omission in our 106 year history is undoubtedly that Mahatma Gandhi never received the Nobel Peace prize. Gandhi could do without the Nobel Peace prize, whether Nobel committee can do without Gandhi is the question. (हमारे 106 साल के इतिहास में सबसे बड़ी चूक महात्मा गांधी को नोबेल शांति पुरस्कार नहीं दिया जाना है। गांधी तो बिना नोबेल पुरस्कार के रह सकते थे, पर बड़ा प्रश्न यह है कि क्या नोबेल शांति पुरस्कार कमिटी गांधी को बिना यह पुरस्कार प्रदान किए सहज है ?)”

नोबेल की ये ‘स्वीकारोक्ति’ गलत नहीं है। पूरी दुनिया जानती और मानती है कि महात्मा गांधी आधुनिक युग में अहिंसा और शांति के सबसे बड़े प्रतीक हैं। इतने बड़े कि गौतम बुद्ध और ईसा मसीह के बाद मानव-जाति पर ऐसा व्यापक प्रभाव अब तक नहीं देखा गया है। ऐसे गांधी को भला नोबेल की क्या जरूरत..? हाँ, उन्हें पाकर नोबेल का सम्मान जरूर और बढ़ जाता। लेकिन इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि दुनिया में किसी व्यक्ति को मिलने वाला यह सबसे बड़ा सम्मान है। ऐसे में ये प्रश्न उठना अत्यन्त स्वाभाविक है कि आखिर गांधीजी को क्यों नहीं… और वो भी एक बार नहीं, दो बार नहीं, पूरे पाँच बार नामांकित होने के बावजूद..!

जी हाँ, गांधीजी को नोबेल के लिए पूरे पाँच बार नामंकित किया गया था। 1937, 1938 और 1939 में लगातार तीन साल और इसके बाद भारत की स्वतंत्रता और विभाजन के वर्ष 1947 में उनका नामांकन हुआ। पाँचवीं बार उन्हें 1948 में नामांकित किया गया लेकिन नामांकन के महज चार दिनों के बाद उनकी हत्या हो गई।

बहुत दिनों तक माना गया कि गांधीजी को नोबेल देकर सम्भवत: नोबेल कमिटी अंग्रेजी साम्राज्य का ‘कोपभाजन’ नहीं बनना चाहती थी। लेकिन तत्कालीन दस्तावेजों से अब यह सत्य सामने आ चुका है कि नोबेल कमिटी पर ब्रिटिश सरकार की ओर से ऐसा कोई दबाव नहीं था। प्रश्न उठता है कि फिर उन्हें नोबेल देने के मार्ग में क्या कठिनाई थी..?

नोबेल पुरस्कार के लिए पहली बार गांधीजी का नाम नॉर्वे के एक सांसद ने सुझाया था लेकिन पुरस्कार देते समय उन्हें नज़रअंदाज कर दिया गया। नोबेल कमिटी के एक सलाहकार जैकब वारमुलर ने तब टिप्पणी की थी कि गांधी एक अच्छे, आदर्श और तपस्वी व्यक्ति हैं और सम्मान के योग्य हैं लेकिन ‘सुसंगत’ रूप से शांतिवादी नहीं हैं। जैकब के अनुसार गांधीजी को पता रहा होगा कि उनके कुछ अहिंसक आन्दोलन हिंसा और आतंक में बदल जाएंगे। ये बात उन्होंने 1920-1921 में गांधीजी द्वारा चलाए गए असहयोग आन्दोलन के संदर्भ में कही थी जब उत्तेजित भीड़ ने चौरीचौरा में एक पुलिस थाने को जला दिया था और कई पुलिसकर्मी मारे गए थे। करोड़ों की आबादी, सदियों का शोषण और एक भी ‘चौरीचौरा’ ना हो, ये कैसी अपेक्षा थी जैकब की..? ये गांधी ही थे कि भारत जैसे संवेदनशील और स्वाभिमानी देश में ‘चौरीचौरा’ की सैकड़ों-हजारों पुनरावृत्ति नहीं हुई।

 खैर, जैकब की अगली टिप्पणी भी कम दिलचस्प नहीं थी कि गांधीजी की राष्ट्रीयता भारतीय संदर्भों तक सीमित रही। यहाँ तक कि दक्षिण अफ्रीका में उनका आन्दोलन भी भारतीय लोगों तक सीमित रहा। उन्होंने कालों के लिए कुछ नहीं किया जो भारतीयों से भी बदतर ज़िन्दगी गुजार रहे थे। कैसी विडम्बना है कि आगे चलकर मार्टिन लूथर किंग जूनियर, नेल्सन मंडेला और बराक ओबामा इस पुरस्कार से नवाजे गए और ये तीनों ना केवल ‘काले’ थे बल्कि गांधी को अपना आदर्श और पथ-प्रदर्शक मानते थे।

1947 में नोबेल के लिए कुल छह लोग नामांकित थे और उनमें एक नाम गांधीजी का था। लेकिन भारत-विभाजन के बाद अखबारों में छपे गांधीजी के कुछ (तथाकथित) ‘विवादास्पद’ बयानों को आधार बनाकर यह पुरस्कार उनकी जगह मानवाधिकार आन्दोलन ‘क्वेकर (Quakers)’ (जिसका प्रतिनिधित्व फ्रेंड्स सर्विस काउंसिल, लंदन और अमेरिकन फ्रेंड्स सर्विस कमिटी, फिलाडेल्फिया नाम की दो संस्था कर रही थी) को दे दिया गया।

1948 में खुद क्वेकर ने शांति के नोबेल के लिए गांधीजी का नाम प्रस्तावित किया। लेकिन इसे दु:संयोग की पराकाष्ठा ही कहा जाएगा कि नामांकन की आखिरी तारीख के महज दो दिन पूर्व गांधीजी की हत्या हो गई। इस समय तक नोबेल कमिटी को गांधीजी के पक्ष में पाँच संस्तुतियां मिल चुकी थीं। लेकिन तब समस्या यह थी कि उस समय तक मरणोपरांत किसी को नोबेल पुरस्कार नहीं दिया जाता था। हालांकि ये कानूनी गुंजाइश थी कि विशेष स्थिति में मरणोपरांत भी यह पुरस्कार दिया जा सकता है। लेकिन यहाँ भी एक समस्या थी कि पुरस्कार की रकम आखिर किसे दी जाय क्योंकि गांधीजी का कोई संगठन या ट्रस्ट नहीं था। यहाँ तक कि उनकी कोई जायदाद भी नहीं थी और ना ही इस संबंध में उन्होंने कोई वसीयत ही छोड़ी थी। हालांकि यह इतनी बड़ी समस्या नहीं थी कि इसे सुलझाया ही नहीं जा सके। ऐसे में यही कहा जा सकता है कि ‘इतिहास’ रचने के लिए जो ‘इच्छाशक्ति’ होनी चाहिए थी वो नोबेल कमिटी के पास थी ही नहीं। अंतत: 1948 में ये पुरस्कार किसी को नहीं दिया गया और नोबेल कमिटी ने कहा कि इसके लिए कोई ‘योग्य जीवित उम्मीदवार’ नहीं है। ‘योग्य जीवित उम्मीदवार’ ना होने की बात सीधे तौर पर गांधीजी के ना रहने से जुड़ी हुई थी, इसमें रत्ती भर भी संदेह नहीं है।

अगर 1948 में गांधीजी की हत्या नहीं हुई होती तो ये पुरस्कार उन्हें मिल गया होता और नोबेल पर वो ‘दाग’ लगता ही नहीं जिसे ‘भूल’ या ‘चूक’ की किसी ‘स्वीकारोक्ति’ से कभी मिटाया नहीं जा सकता।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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केजरीवालजी..! मोदी ‘गिड़गिड़ाने’ नहीं गए थे अमेरिका

अरविन्द केजरीवाल… भारतीय राजनीति में इस नाम ने जैसा स्थान बनाया और जितनी तेजी से बनाया वो अपने आप में अनूठा है। पारदर्शी और जवाबदेह प्रशासन के लिए जब सन् 2000 में केजरीवाल ने दिल्ली में ‘परिवर्तन’ नाम से नागरिक आन्दोलन शुरू किया तब उन्होंने हरगिज ना सोचा होगा कि इस ‘परिवर्तन’ से एक दिन पूरी ‘दिल्ली’ परिवर्तित हो जाएगी। सूचना के अधिकार के लिए अपने संघर्ष और 2006 में ‘रमन मैग्सेसे’ मिलने के बाद वो चर्चा में आए, और छाए अन्ना हजारे के साथ जनलोकपाल आन्दोलन से। आगे चलकर 2012 में आम आदमी पार्टी के गठन से लेकर 2013 में दिल्ली के मुख्यमंत्री पद तक का उनका सफर किसी स्वप्न जैसा है। इतिहास में ‘संघर्ष’ होते रहे हैं और होते रहेंगे लेकिन ‘संघर्ष’ का इस तरह से ‘मुकाम’ पाना बार-बार होने की चीज नहीं है।

‘जंतर-मंतर’ से दिल्ली के मुख्यमंत्री के ‘दफ्तर’ का सफर अरविन्द केजरीवाल ने इतनी जल्दी तय किया था कि वे ‘शासन’ और ‘आन्दोलन’ में फर्क ही नहीं कर पाए। नतीजा यह हुआ कि दिल्ली का मुख्यमंत्री खुद बात-बात पर धरने पर बैठ जाता था। अपने वादों को भी वो आन्दोलन की तरह ही पूरा करना चाहता था, जो व्यवहार में सम्भव ना था। अंतत:  महज 49 दिनों में उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। दिल्ली की जनता ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया की और उन्हें अपने ‘भगोड़ेपन’ का अहसास हो गया। बिना देर किए ‘प्रायश्चित’ में उन्होंने पूरी ताकत झोंक दी और दिल्ली ने उन्हें माफ भी कर दिया। उदार और दिलदार दिल्ली ने 2015 में उन्हें 70 में से 67 सीटें दे दीं।

ऐसे मेनडेट के बाद दिल्ली और देश को भी केजरीवाल से कुछ अलग और कुछ ज्यादा अपेक्षा है तो ये अत्यन्त स्वाभाविक है। खुद से जुड़ी अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए उन्हें ना केवल अतिरिक्त मेहनत करनी होगी बल्कि अतिरिक्त गम्भीरता भी बरतनी होगी। लेकिन इस गम्भीरता की कमी केजरीवाल में ‘गम्भीर’ रूप से है। आए दिन अपने ‘अगम्भीर’ बयानों से केजरीवाल अपने चाहनेवालों को निराश करते रहते हैं। दिल्ली के एलजी नजीब जंग और नरेन्द्र मोदी के नेतृत्ववाली सरकार को लेकर उनके ज्यादातर बयान ऐसे ही होते हैं। चलिए मान लेते हैं कि नजीब जंग से उनकी ‘तनातनी’ दिल्ली सरकार के कामकाज या अधिकार-क्षेत्र को लेकर है और दिल्ली की सवा करोड़ जनता का प्रतिनिधि होने के नाते उन्हें बहुत हद तक बोलने का हक भी मिल जाता है। लेकिन सवा करोड़ जनता के प्रतिनिधि का सवा सौ करोड़ लोगों के प्रतिनिधि को लेकर अमर्यादित बयान देना सचमुच निराश करता है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अभी अमेरिका के दौरे पर थे। वहाँ 25 सितम्बर को उन्होंने सतत विकास शिखर सम्मेलन में विश्व भर के राष्ट्राध्यक्षों को संबोधित किया, जिसकी मेजबानी संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की-मून ने की। इस महत्वपूर्ण दौरे के अन्तिम दिन यानि 28 सितम्बर को अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ उनकी एक साल के भीतर तीसरी शिखर बैठक हुई। इस बैठक के अतिरिक्त संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में उच्च स्तरीय शांतिरक्षा शिखर सम्मेलन और विश्व के कई नेताओं – ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन, फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांसुआ ओलांद, कतर के अमीर शेख हमद बिन खलीफा अल थानी, मेक्सिको के राष्ट्रपति एनरीक पेना नीटो और फिलीस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास – से मोदी की द्विपक्षीय मुलाकातों का व्यस्त कार्यक्रम था। पर उनकी इस यात्रा में जो बात सबसे अधिक सुर्खियों में रही वो थी फेसबुक के सीईओ मार्क जुकरबर्ग, एप्पल के सीईओ टिम कुक, गूगल के सीईओ सुन्दर पिचाई और माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ सत्य नडेला से उनकी मुलाकात। विश्व के इन शीर्षस्थ ‘कार्यकारी अधिकारियों’ के साथ मोदी की मुलाकात ‘डिजिटल इंडिया’ और ‘मेक इन इंडिया’ की सम्भावनाओं के लिहाज से कितनी महत्वपूर्ण थी, ये कहने की जरूरत नहीं। मोदी ने इन दिग्गज कम्पनियों को भारत में निवेश के लिए आमंत्रित किया।

बहरहाल, पूरा देश इन मुलाकातों को लेकर उत्सुक था और उत्साहित भी कि इसी दरम्यान 27 सितम्बर को केजरीवाल का बयान आता है कि मोदी विदेश में ‘गिड़गिड़ा’ रहे हैं। उन्होंने बाकायदा ट्वीट करके कहा कि अगर हम मेक इंडिया कर लेंगे तो मेक इन इंडिया ऑटोमेटिक हो जाएगा। उन्होंने कहा कि अगर हम अपने देश को विकसित कर लेंगे तो दूसरे देश यहाँ खुद निवेश करने आएंगे। हमें उनके दरवाजों पर जाकर निवेश के लिए ‘गिड़गिड़ाना’ नहीं पड़ेगा।

सबसे पहली बात तो ये कि ‘मेक इंडिया’ को ‘मेक इन इंडिया’ से अलग करके देखा ही नहीं जा सकता। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दूसरे, नई सम्भावनाओं को तलाशना, अपने आयाम को बढ़ाना कहीं से भी गिड़गिड़ाना नहीं कहा जा सकता। तीसरे, मोदी वहाँ ‘व्यक्ति मोदी’ या ‘भाजपाई मोदी’ नहीं बल्कि ‘भारत के प्रधानमंत्री’ मोदी थे और यहाँ के सवा सौ करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। ऐसे में शब्दों के चयन में गरिमा और गम्भीरता निहायत जरूरी था।

केजरीवालजी को कुछ कहने से पहले ‘सिलिकॉन वैली’ से ‘सैप सेन्टर’ तक ‘मोदी-मोदी’ की गूंज जरूर सुननी चाहिए थी। ये गूंज किसी ‘गिड़गिड़ाने’ वाले के लिए नहीं, करोड़ों आँखों में 21वीं सदी के भारत के लिए उम्मीद और विश्वास जगाने वाले के लिए थी। उन्हें सुनना चाहिए था कि मोदी ‘उपनिषद’ से ‘उपग्रह’ की यात्रा को किस नजरिए से देखते हैं और अपनी तमाम ‘यात्राओं’ से उसे कैसा विस्तार देना चाहते हैं। ‘हाशिए’ पर खड़े भारत को ‘केन्द्रबिन्दु’ में लाना हो तो बात केवल ‘दिल्ली’ से नहीं बनेगी। पूरी दुनिया का भरोसा आपको जीतना होगा। मोदी नाम के इस शख्स ने अपने विज़न, अपने आत्मविश्वास, अपनी ऊर्जा से सात समुन्दर पार भी अपने लिए भरोसा पैदा किया है तो ये बड़ी बात है। देखा जाय दुनिया का ये भरोसा मोदी के बहाने (और मोदी के मुताबिक) उस भारत के लिए है जिसकी 65 प्रतिशत आबादी 35 साल से कम की है और जिसे अभी बहुत लम्बा सफर तय करना है।

अन्त में, बहुत विनम्रता से कहना चाहूँगा केजरीवालजी से कि कमेंट करने से कद बड़ा नहीं होता। कद केवल और केवल काम से बड़ा होता है। मोदी अपना काम कर रहे हैं और केजरीवाल अपना काम करें। कमेंट करने का काम ‘समय’ पर छोड़ दें। वो हर किसी पर और हर दम सही ‘कमेंट’ करता है।

पुनश्च :

आज से लगभग साल भर पहले मोदी अमेरिका गए थे। प्रधानमंत्री के रूप में यह उनकी अमेरिका की  पहली यात्रा थी। पाँच दिन की उस यात्रा के अंतिम दिन उपराष्ट्रपति जो बिडेन की तरफ से मोदी के सम्मान में लंच का आयोजन किया गया। उस मौके पर अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन कैरी ने कहा था कि हम चाहते हैं कि भारत के विकास में प्रधानमंत्री मोदी के योगदान और भारत की आजादी में महात्मा गांधी के योगदान को एक तरह से याद किया जाय। यहाँ इस वाकये को सुनाने का यह मतलब कतई नहीं कि मोदी को महात्मा गांधी के बराबर में खड़ा किया जाय या कैरी ने मोदी के लिए जो कहा वैसा ही कुछ केजरीवाल भी कहें लेकिन इतना कहना तो जरूर बनता है कि जब घर के ‘मुखिया’ को ‘बाहरवाले’ इज्जत दे रहे हों तो ‘घरवालों’ की भी इज्जत (और साख भी) बढ़ती है, किसी भी सूरत में घटती तो हरगिज नहीं।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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जी हाँ, मुकेश अंबानी से अधिक ‘अमीर’ हैं केरल के सनी वर्की..!

सनी वर्की, क्या आपने सुना है ये नाम..? अगर सुना भी हो तब भी ये जरूर मानेंगे कि भारत में सौ में से निन्यानवे आदमी इस नाम को नहीं जानते होंगे। दूसरी ओर मुकेश अंबानी हैं जिनका नाम भारत में बोलना सीख रहा बच्चा भी जानता है। जानने की वजह भी है। दुनिया की जानी-मानी पत्रिका ‘फोर्ब्स’ ने रिलायंस इंडस्ट्रीज़ के चेयरमैन मुकेश अंबानी को लगातार नौवें साल दुनिया का सबसे अमीर भारतीय घोषित किया है। ‘फोर्ब्स’ द्वारा जारी की गई दुनिया के सौ सबसे अमीर भारतीयों की सूची में 18.9 अरब डॉलर यानि 1255 अरब रुपये के साथ मुकेश पहले नंबर पर हैं। इस सूची में 18 अरब डॉलर यानि 1190 अरब रुपये के साथ सन फ़ार्मास्यूटिकल इंडस्ट्रीज़ के दिलीप सांघवी को दूसरा और 15.9 अरब डॉलर यानि 1052 अरब रुपये के साथ विप्रो के अज़ीम प्रेमजी को तीसरा स्थान मिला है। आप सोच रहे होंगे कि इन धनकुबेरों के सामने भला इस अनाम से शख्स सनी वर्की की क्या औकात..!

मुकेश अंबानी… जो ना केवल भारत बल्कि दुनिया के गिने-चुने अमीरों में एक हैं… जो 4 लाख वर्गफुट और 27 मंजिलों वाले दुनिया के सबसे महंगे मकान ‘अंतिलिया’ में रहते हैं… जिनकी सैलरी 15 करोड़ रुपये है और जिनकी कम्पनी रिलायंस इंडस्ट्रीज का मार्केट कैप 290,245.66 करोड़ है…. उनकी तुलना मैं सनी वर्की से कर रहा हूँ..! जी हाँ, कर रहा हूँ और पूरे होशोहवास में कर रहा हूँ। तुलना ही नहीं कर रहा बल्कि इस सनी वर्की को उनसे अधिक ‘अमीर’ बता रहा हूँ। पूरी बात जानकर शायद आप भी यही बोलेंगे।

जिस मशहूर पत्रिका ‘फोर्ब्स’ ने दुनिया के सौ सबसे अमीर भारतीयों की सूची प्रकाशित की है, उसी ने एशिया प्रशांत के 13 देशों के दानदाताओं की सूची भी प्रकाशित की है जिसमें सात भारतीय हैं। इन ‘दानवीर’ भारतीयों में पहला स्थान सनी वर्की का है। सनी वर्की केरल में जन्मे उद्योगपति हैं और दुबई स्थित जीईएमएस कम्पनी के संस्थापक हैं। यह कम्पनी 14 देशों में 70 निजी स्कूल चलाती है। वर्की ने इसी साल जून में अपनी 2.25 अरब डॉलर यानि लगभग 15 हजार करोड़ की सम्पत्ति का आधा हिस्सा दान में देने की घोषणा की। आपको बता दें कि ‘फोर्ब्स’ ने दानवीरों की यह सूची शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में योगदान के लिए बनाई है जिसमें वर्की के अलावे भारतीय आईटी कम्पनी इंफोसिस के तीन सहसंस्थापक सेनापथे गोपालकृष्णन, नंदन नीलकेणी और एसडी शिबूलाल, इंफोसिस के एक और सहसंस्थापक एन नारायणमूर्ति के पुत्र रोहन और लंदन में रहने वाले उद्योगपतियों सुरेश रामकृष्णन और रमेश रामकृष्णन के नाम शामिल हैं।

आप कहेंगे, सनी वर्की की सम्पत्ति 2.25 अरब डॉलर है और मुकेश अंबानी की 18.9 अरब डॉलर यानि 8 गुने से भी अधिक, तो फिर वर्की अंबानी से अधिक अमीर कैसे हो गए..? मेरे दोस्त, आज के इस भौतिकवादी युग में पैसे का ‘मोल’ किस हद तक बढ़ चुका है ये ना आपसे छिपा है ना मुझसे। पैसा आज हर चीज की परिभाषा तय कर रहा है। आज ‘अर्थ’ चाहे जो ‘अनर्थ’ करा दे, हम-आप मूक दर्शक बने रह जाएंगे। ऐसे में कोई वर्की आगे आता है और अपनी आधी सम्पत्ति यानि 1.25 अरब डॉलर यानि साढ़े सात हजार करोड़ रुपये शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए दान कर देता है..! जरा सोचिए, ऐसा करके क्या हासिल हुआ होगा उसे..? सड़क के किनारे या चलती ट्रेन में कितना भी लाचार भिखारी आ जाय, अगर हमारी जेब में एक या दो का सिक्का ना हो तो तमाम दया-धर्म के बावजूद दस का नोट तो दूर पाँच का सिक्का निकालने से पहले भी हम पाँच बार सोचते हैं। ऐसे में साढ़े सात हजार करोड़ रुपये दान करना कितनी बड़ी बात है ये शायद हम ठीक से सोच भी ना सकें। अब मैं आपसे पूछूँ कि मुकेश अंबानी अधिक अमीर हैं या सनी वर्की, तो आप क्या कहेंगे..?

आज जबकि मनुष्यता के पहले पायदान पर ही हम फिसल रहे हों, हर दिन एक नए तरीके से मानव-मूल्यों का अवमूल्यन हो रहा हो, ‘बाहर’ के चकाचौंध से ‘भीतर’ के विवेक और नैतिकता की अकाल मृत्यु हो रही हो और हर तरफ केवल ‘अनास्था’ का बोलबाला हो, ऐसे में सनी वर्की का ‘दान’ उसे इतना ‘धनवान’ तो बना ही देता है कि मुकेश अंबानी की अकूत सम्पत्ति भी कम पर जाय उसके सामने।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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