इधर बिहार में महागठबंधन की महाजीत का महाजश्न हो रहा है, उधर भयभीत भाजपा में भूचाल आया हुआ है। महागठबंधन की जीत और भाजपा की हार के कारण ढूँढ़े जा रहे हैं। हर चुनाव में हारने वाली पार्टी अपने हारने और अपने प्रतिद्वंद्वी के जीतने का कारण ढूँढ़ती है और ढूँढ़ना चाहिए भी। इसीलिए भाजपा के ऐसा करने में कुछ नया नहीं है। नया इस बात में है कि सारे कारण बीच चुनाव में दिख गए थे लेकिन भाजपा देख नहीं पाई। गांव-गली की गंवई जनता ने जो देख लिया उसे भाजपा के ‘हाईटेक’ रणनीतिकार देखने से चूक गए। वे भूल गए कि लाख संचार-क्रांति हो जाए तब भी चुनाव के मैदान में आपका हाथ ‘माउस’ से ज्यादा जनता की नब्ज पर होना चाहिए। तो चलिए कारणों की ‘भीड़’ से निकाल कर पाँच बड़े कारणों को देखें।
- ‘विकास’ में ‘सामाजिक न्याय’ का तड़का
वर्षों की दूरी और तमाम मतभेदों को किनारे कर जिस दिन नीतीश और लालू एक साथ आए उसी दिन उन्होंने आधी लड़ाई जीत ली थी। वक्त की नजाकत देख जेपी के दोनों शिष्यों ने ना केवल कांग्रेस से हाथ मिलाया बल्कि अंत तक निभाया। समूचा एनडीए पूरे चुनाव में महागठबंधन को ‘महास्वार्थबंधन’, ‘महालठबंधन’ और ना जाने क्या-क्या कहता रहा लेकिन जनता की नज़र में ये परफेक्ट कम्बिनेशन साबित हुआ। जिसमें एक ओर नीतीश की ‘विकासपुरुष’ की निर्विवाद छवि थी तो दूसरी ओर लालू के ‘सामाजिक न्याय’ का मजबूत आधार। नीतीश और लालू के एक साथ आने से इस सामाजिक न्याय को 25 साल पहले वाली ‘धार’ मिल गई। ये केवल ‘माय’ तक सीमित नहीं रहा।
यही नहीं, मात्र 41 सीटों पर लड़ रही कांग्रेस ने भी महागठबंधन में बड़ी भूमिका निभाई जिसे नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। कांग्रेस के साथ आने से ना केवल उसके राष्ट्रीय ‘कैनवास’ का सांकेतिक जुड़ाव महागठबंधन से हुआ बल्कि अगड़ी जातियों में भी थोड़ी-बहुत सेंधमारी करने में महागठबंधन को सफलता मिली।
- नीतीश का ‘चेहरा’ और तगड़ा टीमवर्क
नेताओं की बड़ी फौज के बावजूद मुख्यमंत्री पद के लिए एक अदद चेहरा ना ढूँढ़ पाना एनडीए की बड़ी कमजोरी साबित हुई। इस मामले में भाजपा का रवैया जरूरत से ज्यादा ‘डिफेंसिव’ रहा। उधर नीतीश कुमार का तपा-तपाया, हर तरह से आजमाया और सर्वमान्य ‘चेहरा’ था। नीतीश को नेता मानने और हर मंच से उन्हें अपना मुख्यमंत्री बताने में लालू ने सचमुच बड़े भाई जैसी ‘उदारता’ दिखाई। सोनिया और राहुल ने भी अपने भाषणों में नीतीश के नाम और काम को आगे रखा। टिकट बंटवारे से लेकर चुनाव-प्रचार और पाँचों चरणों के मतदान तक कहीं भी महागठबंधन के टीमवर्क में कमी नहीं दिखी। जबकि एनडीए में ‘टीमवर्क’ नाम की चीज थी ही नहीं। टिकट में हिस्सेदारी को लेकर शुरू हुए पासवान, मांझी और कुशवाहा के आपसी मतभेद और खींचातानी ने अंतत: भाजपा की लुटिया डुबो दी।
सच तो ये है कि अपने साथियों को भाजपा ने उनकी ‘औकात’ से ज्यादा सीटें दीं। इससे उसकी अन्दरूनी कमजोरी दिखी। यही नहीं, आम जनता ने ये समझने में भी देर नहीं की कि पप्पू यादव भाजपा के द्वारा ‘स्पांसर्ड’ हैं, मुलायम सिंह के अचानक मुलायम पड़ने के पीछे स्पष्ट ‘डील’ है और ओवैसी का बिहार में अचानक कूद पड़ना भी ‘अकारण’ नहीं है।
- मोदी का ‘बड़े’ मंच से ‘छोटा’ व्यवहार
नरेन्द्र मोदी ने अपनी पार्टी द्वारा प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित होने से प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने तक और उसके बाद अपनी एक के बाद एक विदेश यात्राओं से दुनिया भर में जो सुर्खियां और तालियां बटोरीं और अपने कद में इजाफा किया उसे एकदम से दांव पर लगाने बिहार आ गए। वो नीतीश को हर मंच से अहंकारी कहते रहे लेकिन असल में अहंकार उनके बॉडी लैंग्वेज में था जिसे बिहार की जनता बहुत गहरे जाकर देख रही थी। उनके हाव-भाव से स्पष्ट दिख रहा था कि जिस नीतीश ने कभी प्रधानमंत्री पद के लिए मुझे चुनौती दी थी उसे मैं मुख्यमंत्री भी नहीं रहने दूंगा। उन्होंने बिहार चुनाव को इस कदर ‘पर्सनलाइज’ कर दिया कि भाजपा और एनडीए की जगह केवल वही दिख रहे थे। ये सचमुच दिखने की ‘अति’ थी। एक प्रधानमंत्री का और उसमें भी उनके कद के प्रधानमंत्री का एक राज्य के चुनाव लिए 26 रैलियां करना मन में कई तरह के सवाल खड़े करता है।
खैर, बात रैलियों तक रहती तो एक बात थी। रैलियों में उनका भाषण वो नहीं था जिसके लिए वो जाने जाते हैं। भाषण की भाषा और शैली तो हरगिज शोभा देने वाली नहीं थी। सबसे पहले उन्होंने नीतीश का ‘डीएनए’ खराब होने की बात कहकर और मुसीबत मोल लेने की शुरुआत कर दी। इसके बाद उन्होंने सवा लाख करोड़ का पैकेज दिया लेकिन जिस तरह से बोली लगा कर दिया उसने उनका और उस पैकेज दोनों का वजन कम कर दिया। इसी तरह राजद को बार-बार “रोजाना जंगलराज का डर” और जदयू को “जनता का दमन और उत्पीड़न” कहकर उन्होंने ‘हल्कापन’ दिखाया और अंतत: जनता का एक बड़ा ‘अस्वीकार’ उन्हें झेलना पड़ा। लोक -‘तांत्रिक’ वाली बात भी लोगों को हजम नहीं हुई। और हाँ, इन सबके बरक्स नीतीश ने अपने ‘संयम’ और ‘शालीनता’ से बिहार और बिहार के बाहर भी लोगों के दिल और दिमाग में जगह बनाई।
- आरक्षण, बीफ और पाकिस्तान में पटाखे
ऊपर के तीन कारण ही भाजपा की हार के लिए कम नहीं थे। जो कसर रही वो बीच चुनाव में मोहन भागवत के आरक्षण की समीक्षा वाले बयान, गिरिराज सिंह जैसे नेताओं का बेवजह ‘बीफ’ को मुद्दा बनाने और अंत में अमित शाह के “महागठबंधन के जीतने पर पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे” वाले बयान ने पूरी कर दी। इन नकारात्मक मुद्दों को बिहार की परिपक्व जनता ने खारिज कर पूरे देश में एक बड़ा मैसेज दिया। नीतीश और लालू ने इन मुद्दों से हवा को अपने पक्ष में करने में कोई चूक नहीं की। एनडीए जहाँ इन अनर्गल मुद्दों पर आक्रामक होने का ‘स्वांग’ करने में उलझा रहा वहीं महागठबंधन इन सबका जवाब देने के साथ-साथ ‘नीतीश के सात निश्चय’ को भी जनता के बीच पहुँचाने में सफल रहा। एनडीए की लाख कोशिशों के बावजूद लोगों के मन में ‘जंगलराज’ का डर तो नहीं बैठा लेकिन लालू वोटरों में ये डर बिठाने में कामयाब रहे कि बीजेपी को सत्ता दोगे तो आरक्षण छिन जाएगा।
- अगड़ों की ‘आग’ से पिछड़ों का पिघलना
भाजपा ने बड़ी रणनीति के तहत रामविलास पासवान, जीतनराम मांझी, उपेन्द्र कुशवाहा, रामकृपाल यादव, भूपेन्द्र यादव, मुकेश सहनी जैसे प्रतीकों को खड़ा किया। उसे उम्मीद थी कि ऐसा कर वो दलित-महादलित और पिछड़े-अतिपिछड़े वोटों में बड़ी सेंधमारी कर पाएगी। और तो और प्रधानमंत्री को पहले पिछड़ा और फिर अतिपिछड़ा बताने की कोशिश भी की गई। लेकिन इन तमाम कोशिशों पर भाजपा के ‘अगड़े’ नेताओं का नीतीश-लालू के खिलाफ उग्र से उग्रतर होते जाना और ‘अपशब्दों’ का धड़ल्ले से प्रयोग करना भारी पड़ गया। अगड़ों ने आग क्या उगली, पिछड़े पिघलकर महागठबंधन से जा मिले।
मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप