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दिलीप कुमार अब ‘पद्म विभूषण’… ‘भारतरत्न’ क्यों नहीं..?

भारतीय सिनेमा के प्रति मोहम्मद युसुफ खान उर्फ दिलीप कुमार के योगदान को रेखांकित करते हुए अमिताब बच्चन ने कहा है कि “जब भारतीय सिनेमा का इतिहास लिखा जाएगा तो वह दिलीप साहब से पहले और दिलीप साहब के बाद के काल में बंटेगा”। ये एक महानायक के दूसरे महानायक की महज प्रशंसा में कहे हुए शब्द नहीं हैं। ये सच है, सोलह आने सच। अपने अभिनय की गंगा बहाकर भारतीय सिनेमा के पर्दे को रंगमंच से अलग अस्तित्व दिलाने वाले ‘भगीरथ’ हैं दिलीप कुमार।

‘ट्रैजेडी किंग’ दिलीप कुमार को इस वर्ष ‘बिग बी’ अमिताब बच्चन, पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी, पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल, जानेमाने वकील केके वेणुगोपाल जैसी अन्य आठ हस्तियों के साथ देश के दूसरे सबसे बड़े नागरिक पुरस्कार ‘पद्म विभूषण’ के लिए चुना गया था। इसकी घोषणा गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर हुई थी और पुरस्कार समारोह का आयोजन अप्रैल में राष्ट्रपति भवन में किया गया था। 93 वर्षीय दिलीप कुमार अस्वस्थ होने के कारण पुरस्कार ग्रहण करने नहीं जा सके थे। कल यानि रविवार 13 दिसम्बर 2015 को भारत के गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने महाराष्ट्र के राज्यपाल सी. विद्यासागर राव और मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडनवीस के साथ उनके बांद्रा स्थित आवास पर जाकर उन्हें यह पुरस्कार दिया।

दिलीप साहब को ‘पद्म विभूषण’ मिला ये प्रसन्नता की बात है। ये प्रसन्नता और बढ़ गई जब देश के गृहमंत्री ने स्वयं जाकर उन्हें ये सम्मान दिया और जानने को मिला कि उन्हें ऐसा करने को प्रधानमंत्री ने कहा था। पर ये प्रसन्नता ‘पूर्ण’ तब होती जब दिलीप कुमार को ‘भारतरत्न’ दिया जाता क्योंकि कुछ महीने पहले सत्ता के गलियारों में इस बात की जबरदस्त चर्चा थी कि केन्द्र सरकार दिलीप साहब को ‘भारतरत्न’ देने की तैयारी में है। ना जाने ऐसा क्यों नहीं हो पाया..? काश ऐसा हुआ होता..!

‘पद्म विभूषण’ कोई छोटा सम्मान नहीं। पर यहाँ ये प्रश्न उठना भी लाजिमी है कि आखिर ‘भारतरत्न’ का पैमाना क्या है..? ‘भारतरत्न’ पुरस्कार की शुरुआत 1954 में हुई थी और अब तक कुल 45 लोगों को इससे नवाजा जा चुका है। कहने की जरूरत नहीं कि अपने-अपने क्षेत्र में ये सभी सचमुच के ‘रत्न’ थे। कला के क्षेत्र की बात करें तो अब तक कुल छह लोगों को ये सम्मान मिला है। वे हैं सत्यजीत रे, फिल्म निर्माता-निर्देशक (1992), एम.एस. सुब्बालक्ष्मी, शास्त्रीय गायिका (1998), पं. रविशंकर, सितारवादक (1999), लता मंगेशकर, पार्श्वगायिका (2001), उस्ताद बिस्मिल्ला खां, शहनाईवादक (2001) और पं. भीमसेन जोशी, शास्त्रीय गायक (2008)। वैसे 1988 में दक्षिण के बड़े अभिनेता एम. जी. रामचंद्रन को भी भारतरत्न (मरणोपरांत) दिया गया था लेकिन ये नहीं कहा जा सकता कि उन्हें केवल उनके अभिनय के लिए यह सम्मान मिला था क्योंकि उनका उत्तरार्द्ध राजनीतिज्ञ का था और वे तमिलनाडु के अत्यंत लोकप्रिय मुख्यमंत्री भी रह चुके थे।

कला के क्षेत्र में जिन लोगों को ये सम्मान मिला वे सभी नि:संदेह इसके योग्य थे। किसी दो राय का यहाँ कोई प्रश्न ही नहीं। लेकिन ये प्रश्न तो होना ही चाहिए कि पार्श्वगायन में जो स्थान लता मंगेशकर का है, क्या अभिनय में वही मुकाम दिलीप कुमार का नहीं..?  पं. रविशंकर अगर सितारवादन के, उस्ताद बिस्मिल्ला खां शहनाईवादन के और एम. एस. सुब्बालक्ष्मी या पं. भीमसेन जोशी शास्त्रीय गायन के पर्याय हैं तो क्या दिलीप कुमार अभिनय के पर्याय कहलाने योग्य नहीं.. ? दिलीप कुमार इनमें से किसी से भी कमतर नहीं। तो फिर उन्हें इस सम्मान से क्यों वंचित किया गया.. ?

सच तो ये है कि दिलीप कुमार अपने आप में अभिनय के ‘स्कूल’ हैं और 1944 में आई उनकी पहली फिल्म ‘ज्वार भाटा’ के समय मौजूद रही पीढ़ियों से लेकर अब तक की पीढियों को जोड़ें तो ऐसा मानने वाली पीढ़ियों की गिनती आधा दर्जन से अधिक ठहरेगी।  दाग (1952), देवदास (1955), नया दौर (1957), मधुमती (1958), मुगले आज़म (1960), गंगा जमुना (1961), लीडर (1964), राम और श्याम (1967), शक्ति (1982), मशाल (1984) और कर्मा (1986) जैसी फिल्में उन्हें जीवित किंवदंती बनाती हैं। अभिनय के द्वारा की गई देश की अविस्मरणीय सेवा को देखते हुए उन्हें 1991 में ही ‘पद्मभूषण’  मिल चुका था। ‘पद्म विभूषण’ देने में 24 साल का वक्त लगना समझ के परे है। और अगर वक्त लगा ही तो उसकी भरपाई ‘भारतरत्न’ देकर की जा सकती थी।

ये भी बता दें कि 24 साल के इस अन्तराल में दिलीप साहब को दो और बड़े पुरस्कार मिले। 1995 में फिल्म का सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान ‘दादा साहब फालके अवार्ड’ और 1997 में पाकिस्तान का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘निशान-ए-इम्तियाज’। यानि हर तरह से अब बारी ‘भारतरत्न’ की थी। उन्हें ‘भारतरत्न’ मिलने पर केवल एक बेमिसाल कलाकार का ही नहीं बल्कि समूची अभिनय कला का सम्मान होता। काश केन्द्र सरकार उम्र के 93वें पड़ाव पर दिलीप साहब को पूरे देश की ओर से ये तोहफा दे पाती..! संयोग से दो दिन पहले 11 दिसम्बर को उनका जन्मदिन भी था।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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मोदी के ‘मैजिक’ से चीन हुआ हलकान, काशी में एक हुए भारत-जापान

काशी के दशाश्वमेघ घाट पर देव दीपावली की तरह हुई भव्य गंगा आरती में भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे एक साथ शामिल हुए और इन दो देशों के रिश्तों के अनगिनत दीप नई रोशनी से जगमगा उठे। इन दीपों की ‘जगमग’ कुछ ऐसी थी कि चीन की आँखें ‘चुंधिया’ गईं। आबे की भारत-यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच हुए ऐतिहासिक समझौतों को चीन अपने खिलाफ ‘गोलबंदी’ बता रहा है। वहाँ के सरकारी अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ ने चेतावनी के लहजे में लिखा कि भारत जापान के साथ मिलकर चीन के खिलाफ कोई ‘गोलबंदी’ ना करे। आखिर भारत-जापान की करीबी से क्यों तिलमिला उठा है चीन..?

चीन की ‘चिन्ता’ पर चर्चा से पहले भारत और जापान के बीच हुए अहम समझौतों को जानना जरूरी है जिनमें बुलेट ट्रेन से लेकर परमाणु समझौता तक शामिल है। सबसे पहले बात करते हैं बुलेट ट्रेन समझौते की। भारत में बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट के लिए जापान 90 हजार करोड़ रुपए की फंडिग करेगा। जापान की मदद से 503 किलोमीटर लम्बे मुंबई-अहमदाबाद रूट पर बुलेट ट्रेन दौड़ेगी जिसकी रफ्तार 300 किमी प्रति घंटे होगी। दूसरा महत्वपूर्ण समझौता भारत में जापानी लोगों के लिए ‘वीजा ऑन अराइवल’ का है जो भारत 1 मार्च 2016 से शुरू करेगा। अब जापान से आनेवाले पर्यटक एवं अन्य लोग भारत आकर वीजा ले पाएंगे। तीसरा समझौता असैन्य परमाणु सहयोग और चौथा रक्षा उपकरण और टेक्नोलॉजी के आदान-प्रदान को लेकर है। यही नहीं, भारत और अमेरिका के संयुक्त युद्धाभ्यास में अब जापान स्थायी रूप से शामिल रहेगा।

वैसे तो ये सारे समझौते चीन को खटक रहे हैं लेकिन पाँचवां समझौता उसे कुछ ज्यादा ही अखरा है। ये समझौता पूर्वोत्तर में सड़क निर्माण को लेकर है जो कि सामरिक दृष्टि से बहुत अहम है। इस समझौते के तहत जापान भारत के साथ मिलकर पूर्वोत्तर में चीन से सटी सीमा पर सड़क का निर्माण करेगा। इससे इस इलाके में भारत की ताकत बढ़ जाएगी।

भारत और जापान के बीच दोस्ती की इस नई और बड़ी कहानी की ईबारत पिछले साल लिखी गई थी जब प्रधानमंत्री मोदी जापान गए थे। चीन पाकिस्तान के साथ मिलकर लम्बे अरसे से भारत को घेरने की कोशिश करता रहा है। अब भारत ने जापान के साथ व्यापारिक, सामरिक और कूटनीतिक रिश्तों का नया अध्याय लिखकर चीन को सीधे जवाब देने की तैयारी कर ली है।

भारत, चीन और जापान के बीच रिश्तों के तानेबाने को समझने के लिए हमें इतिहास में भी झाँकना होगा। 1962 के युद्ध में चीन ने हमारी पीठ में छुरा घोंपा था और दूसरे विश्वयुद्ध में जापान ने चीन को रौंदा था। इतिहास की इस गाँठ को भूल पाना इन तीनों ही देशों के लिए संभव नहीं। हालांकि प्रधानमंत्री मोदी ने कूटनीतिक तौर पर चीन के साथ भी आहार-व्यवहार में कोई कमी नहीं रखी है। लेकिन साथ ही बड़ी सूझबूझ से “तू डाल-डाल, मैं पात-पात” की नीति पर भी अमल किया है।

अंत में एक बात और। शिंजो आबे ने प्रधानमंत्री मोदी को ‘बुलेट’ की रफ्तार से काम करनेवाला बताया है। उनके इस कथन में ये जोड़ना जरूरी है कि ‘कूटनीति’ के ईंधन से इस ‘बुलेट’ की रफ्तार और तेज हो गई है। साथ में मजे की बात ये कि मोदी कम-से-कम इस मामले में कोई ‘शोर’ नहीं मचाते और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग हों या जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे, ‘जैकेट’ सबको पहनाते हैं।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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कलबुर्गी, असहिष्णुता, पुरस्कारवापसी, आमिर खान और संसद में चर्चा

आज संसद में ‘असहिष्णुता’ का मुद्दा गूंजेगा। माकपा सांसद पी करुणाकरण और कांग्रेस सांसद केसी वेणुगोपाल ने ‘असहिष्णुता’ के मुद्दे पर लोकसभा में चर्चा के लिए नोटिस दिया था जिसे लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने स्वीकार कर लिया। ये विषय आज की सूची में है। बता दें कि दोनों विपक्षी सांसदों ने नियम 193 के तहत नोटिस दिया था। इस नियम के तहत वोटिंग का प्रावधान नहीं होता।

कन्नड़ लेखक एमएम कलबुर्गी की हत्या के बाद से ‘असहिष्णुता’ का मुद्दा प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में छाया हुआ है। आशंका जताई गई कि उनकी हत्या के पीछे स्थानीय दक्षिणपंथी समूहों का हाथ है क्योंकि वे कलबुर्गी के मूर्तिपूजा और ‘अंधविश्वास’ विरोधी रुख से भड़के हुए थे। इस ‘असहिष्णुता’ के खिलाफ दर्जनों साहित्यकारों, कलाकारों और फिल्मकारों ने अपने पुरस्कार लौटा दिए। पुरस्कार वापसी का जैसे दौर ही चल पड़ा। इन बुद्धिजीवियों का कहना था कि देश का माहौल बिगड़ रहा है पर सरकार ने ‘चुप्पी’ साध रखी है। उनके हिसाब से देश की ‘नई’ सरकार ‘असहिष्णुता’ को मौन समर्थन दे रही है। ऐसे में सरकार के दिए पुरस्कार को रखना उन्हें सरकार से सहमति जताना प्रतीत हुआ और उसे लौटा देने में विरोध का नया रास्ता दिखा।

बुद्धिजीवियों का एक खेमा पुरस्कार वापस कर सुर्खियां बटोर रहा था तो दूसरा खेमा पुरस्कारवापसी के विरोध में सामने आया। इस खेमे ने पुरस्कारवापसी को ‘छद्म’ विरोध कहा और तर्क दिया कि देश इससे पहले भी और अभी से कहीं ज्यादा बुरे दौर से गुजरा है, तब ये विरोध करने वाले कहाँ थे? 1977 के आपातकाल और 1984 के सिख विरोधी दंगे के समय उन्हें ‘असहिष्णुता’ क्यों नहीं दिखी? इस खेमे का एक तर्क ये भी है कि जो पुरस्कार लौटाए जा रहे हैं वो किसी सरकारविशेष से नहीं बल्कि देश से मिला ‘सम्मान’ है जो उन्हें उनकी ‘प्रतिभा’ और ‘योगदान’ के कारण मिला है। किसी पुरस्कार का ‘प्रशस्ति-पत्र’ लौटाया जा सकता है लेकिन उससे जुड़ी ‘पहचान’ और ‘प्रसिद्धि’ भी क्या लौटायी जा सकती है?

प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को इस ‘असहिष्णुता’ में ‘मसला’ और ‘मसाला’ दोनों दिखा। अखबार, पत्रिकाएं और चैनल इससे जुड़ी खबरों से पट गए। राजनीतिक मंचों पर भी इस मुद्दे ने बड़ी तेजी से अपनी जगह बनाई। ‘दल’ और ‘नेता’ इससे जुड़े तो माहौल और भी तल्ख हो चला। इन्हीं सब के बीच 24 नवम्बर को बॉलीवुड के बड़े स्टार आमिर खान का देश छोड़ने वाला बयान आया और ‘असहिष्णुता’ के मुद्दे ने नए सिरे से तूल पकड़ लिया। आमिर के बयान की आलोचना, निंदा और समर्थन की बाढ़ आ गई। गृहमंत्री राजनाथ सिंह को भी संसद में इसका जिक्र (बिना आमिर का नाम लिए) छेड़ना पड़ा। जाहिर है कि उनकी या केन्द्र सरकार की सहमति आमिर से या इस ‘असिहष्णुता’ से नहीं हो सकती।

आमिर ने कहा था कि “पिछले छह से आठ महीने में असुरक्षा और भय की भावना बढ़ी है। कई घटनाओं ने उन्हें चिन्तित किया है। यहाँ तक कि उनकी पत्नी किरण राव को प्रतिदिन समाचारपत्र खोलने से डर लगता है और वो कहती हैं कि क्या हमें भारत से बाहर चले जाना चाहिए? उन्हें अपने बच्चे की चिन्ता है।” इस बयान पर शत्रुघन सिन्हा ने बहुत महत्वपूर्ण टिप्पणी की है कि अगर भारत में ‘असहिष्णुता’ होती तो आमिर की ‘पीके’ जैसी फिल्म इतनी बड़ी हिट नहीं होती। खैर, आमिर के इस बयान का असर 25 नवम्बर को हुई संसद की सर्वदलीय बैठक में भी दिखा। विपक्षी दलों ने कहा कि इस मुद्दे पर जल्द से जल्द चर्चा होनी चाहिए। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने भी कहा था कि उनकी पार्टी देश में बढ़ रही ‘असहिष्णुता’ का मुद्दा उठाएगी। उनका कहना था कि देश में होने वाली घटनाएं शांति खत्म कर रही हैं लेकिन प्रधानमंत्री मोदी फिर भी चुप हैं।

‘असहिष्णुता’ पर आज बस बयानबाजी और खेमेबाजी हो रही है। हर कोई अपने-अपने ‘पैमाने’ से इसे मापने में लगा हुआ है और विडंबना ये है कि कोई भी ‘पैमाना’ सौ फीसदी भरोसे के लायक नहीं है। साहित्यकार, कलाकार, फिल्मकार से लेकर सरकार तक अपने-अपने ‘समय’ और ‘संस्कार’ को बस जाया कर रहे हैं। देश की बेहतरी के लिए ऐसे हजार मुद्दे पड़े हैं जिन पर चर्चा और बहस होनी चाहिए लेकिन हो नहीं रही। सच तो ये है कि इस ‘असहिष्णुता’ पर अपनी ‘रोटी’ सेकना ही सबसे बड़ी ‘असहिष्णुता’ है।

महात्मा गांधी ने सफाई को परिभाषित करते हुए कहा था कि सभी चीजों का अपनी-अपनी जगह पर रहना ही सफाई है। ठीक इसी तर्ज पर कहा जा सकता है कि देशहित में सभी का अपने-अपने काम में लगे रहना ही ‘सहिष्णुता’ है। अगर सभी ‘ईमानदारी’ से अपना काम कर रहे हों तो कभी किसी ‘कलबुर्गी’ को अमानवीयता का शिकार नहीं होना पड़ेगा और ना ही किसी ‘असहिष्णुता’ का प्रश्न उठेगा। जब तक हम स्वार्थ और संकीर्णता से जकड़े रहेंगे, तब तक ‘असहिष्णुता’ जैसा कोई मुद्दा संसद में आता रहेगा।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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‘खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे’ या सचमुच बिहार में होंगे मध्यावधि चुनाव..?

बिहार विधान सभा चुनाव में एनडीए को ‘अप्रत्याशित’ पटखनी मिली। इसके बाद राजनीतिक शिष्टाचार के तहत भाजपा और उसके तमाम सहयोगी दलों ने ‘जनादेश’ का सम्मान करने की औपचारिकता तो निभा दी लेकिन अखबारों में और चैनलों पर उन दलों की ओर से एकदम ‘सन्नाटा’ छा गया। जाहिर है ‘सदमे’ से उबरने और ‘धूल झाड़ने’ के लिए उन्हें थोड़ा वक्त चाहिए था। पर राजनीति में ज्यादा वक्त तक चुप रहना ‘सेहत’ के लिए ठीक नहीं माना जाता। लिहाजा अब ये दल अपनी चुप्पी तोड़ रहे हैं और शुरुआत की है लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान ने।

आज लोजपा की स्थापना के सोलह साल पूरे हुए। पार्टी की स्थापना दिवस के मौके पर पार्टी प्रमुख व केन्द्रीय खाद्य मंत्री रामविलास पासवान अपने तीन सांसदों, एक नवनिर्वाचित विधायक, सभी जिलाध्यक्षों समेत प्रदेश के तमाम पदाधिकारियों के साथ तुरत मिली जबरदस्त हार की समीक्षा में जुटे थे। समीक्षा होनी भी चाहिए। पर बात केवल समीक्षा तक नहीं रही। इस मौके पर लालू के ‘मौसम वैज्ञानिक’ ने एक भविष्यवाणी भी कर डाली कि नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली महागठबंधन सरकार डेढ़-दो साल से अधिक नहीं चलने वाली है। उनके अनुसार बिहार में मध्यावधि चुनाव तय है क्योंकि बिहार की इस नई सरकार में जिस तरह विभागों का बंटवारा हुआ है उससे स्पष्ट है कि ‘ताज’ किसी और के सिर पर है और ‘राज’ किसी और के हाथ में। सारे बड़े और ‘मलाईदार’ विभाग राजद ने ले लिए हैं।

जहाँ तक एनडीए की करारी हार का प्रश्न है तो बकौल पासवान ऐसा महागठबंधन के ‘जातीय कार्ड’ के कारण हुआ। नीतीश सरकार द्वारा छोटी-छोटी जातियों को अतिपिछड़े वर्ग से निकालकर दलित वर्ग में डालने की अनुशंसा और पिछड़ी जातियों को अतिपिछड़े में शामिल करने के कारण जातीय गोलबंदी महागठबंधन के पक्ष में हो गई। लेकिन ये ‘कास्ट गिमिक्स’ बिहार में नहीं चलेगा। पासवान के अनुसार जब इन जातियों की अपेक्षाएं टूटेंगी तब यह समीकरण बिखर जाएगा।

लोजपा अध्यक्ष ने मुख्यमंत्री द्वारा शराबबंदी की घोषणा का स्वागत किया लेकिन साथ ही इसके प्रभावी होने पर संदेह भी जताया। उन्होंने कहा कि पहले कदम-कदम पर शराब की दुकानें खुलवाई गईं, दस वर्षों में लोगों को शराब की लत लग गई और अब अचानक शराबबंदी का ऐलान हो रहा है। अब क्या होगा उन दुकानों का और क्या होगा उन लोगों का, ये भी सरकार को बताना चाहिए।

बहरहाल, अब तो ये ‘परिपाटी’ बन चुकी है कि राज्य या केन्द्र की सरकार चाहे अच्छे से अच्छा निर्णय क्यों ना ले, विरोधी दल उसकी आलोचना ही करेंगे। इस पर कोई टिप्पणी ही बेकार है। जहाँ तक मध्यावधि चुनाव को लेकर पासवान की भविष्यवाणी है उस पर चर्चा होनी तय है। एनडीए अगर सचमुच अपनी हार के कारणों को ईमानदारी से तलाशना चाहता है तो उसे ये समझना होगा कि इसके पीछे उनके बड़े नेताओं के ‘बड़बोलेपन’ ने कितनी बड़ी भूमिका निभाई है। चाहे प्रधानमंत्री मोदी का ‘डीएनए’ वाला बयान हो, चाहे अमित शाह का ‘पाकिस्तान में पटाखे फूटने’ का या फिर मोहन भागवत का ‘आरक्षण की समीक्षा’ वाला बयान। इन सबके उलट नीतीश को अपनी ‘शालीनता’ से लोकप्रियता भी मिली और वोट भी। आश्चर्य है कि रामविलास पासवान इन गलतियों से सबक लेने की बजाय नए सिरे और नए तरीके से वैसी ही गलती दुहराने जा रहे हैं।

अभी बिहार की नई सरकार ने काम करना शुरू ही किया है। महागठबंधन के दलों ने अभी ऐसी कोई ‘गलती’ नहीं की है कि एनडीए के नेता मध्यावधि चुनाव की भविष्यवाणी करने लग जाएं। पासवान ना केवल बिहार के बल्कि देश स्तर के नेता हैं और केन्द्र में वरिष्ठ मंत्री भी हैं। इतने जिम्मेदार पद पर बैठे व्यक्ति से एक अलग तरह की मर्यादा अपेक्षित होती है। इस तरह के बयानों से सिवाय राजनीतिक ‘अस्थिरता’ के कुछ भी हासिल नहीं होगा। इस ‘प्रवृत्ति’ से ना तो राज्य का भला हो सकता है, ना ही देश का। जहाँ तक जनता की बात है, वो भी खूब समझती है कि ‘खिसियानी बिल्ली’ कब और कैसे खंभा नोचती है।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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बीबीसी और ‘मधेपुरा अबतक’ समेत दुनिया के चार हजार साईट हैक, स्थिति फिर हुई बहाल

‘मधेपुरा अबतक’ के सुधी पाठकों को हम सूचित करना चाहते हैं कि कल दोपहर के एक अप्रत्याशित घटनाक्रम में पाकिस्तान के हैकर ग्रुप ‘टीम साईबर असैसिन्स’ (Team Cyber Assassins) ने दुनिया के चार हजार महत्वपूर्ण साईट को हैक कर लिया जिनमें ( Madhepura Abtak ) भी शामिल था। हालांकि हमारे कुशल इंजीनियरों की टीम ने अत्यन्त तत्परता से कार्रवाई करते हुए देर शाम तक स्थिति फिर बहाल कर ली। बीच की अवधि में हमारे पाठकों को जो असुविधा हुई, हमें उसके लिए खेद है।

पाठकों को हम अवगत कराना चाहते हैं कि जिन चार हजार साईट को हैक किया गया उनमें प्रसिद्ध समाचार साईट ‘बीबीसी.कॉम’, यूएस आर्मी की साईट ‘आरटी.कॉम’ और ऑस्ट्रेलियन एडुकेशनल साईट ‘एबीसी.कॉम’ जैसे महत्वपूर्ण साईट शामिल हैं। ‘मधेपुरा अबतक’ ने महज कुछ माह में आप सबका जो प्यार हासिल किया है और जिस रफ्तार में इसे लाईक करने वालों की संख्या बढ़ रही है, सम्भवत: उसे देखते हुए ही इसे भी हैक किया गया।

हम किसी भी हैकर ग्रुप द्वारा किए जा रहे इस तरह के कुत्सित प्रयास की कड़ी निंदा करते हैं। ये पूरी दुनिया के अमन-चैन पर कुठाराघात है। हम आपको पूरे विश्वास के साथ कहना चाहते हैं कि चाहे कितनी ही बार इस तरह की घिनौनी कोशिश क्यों ना हो, हमारी ‘प्रतिबद्धता’ पर उसका रत्ती भर भी असर नहीं होगा। तमाम मुश्किलों को पार कर ‘मधेपुरा अबतक’ आपकी दिनचर्या का अंग बना रहेगा।

मधेपुरा अबतक

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नीतीश ने सबको किया लाजवाब, बिहार में बंद होगी शराब

अभी तुरत बीते चुनाव में भाजपा समेत एनडीए में शामिल तमाम दलों ने नीतीश कुमार को जिन मुद्दों पर घेरने की जी तोड़ कोशिश की उनमें शराब बहुत अहम मुद्दा था। उन पर आरोप लागाए गए कि उन्होंने गांव-गांव, गली-गली में शराब के ठेके खुलवा दिए। सरकार की नीयत पर संदेह करें या ना करें, ये स्वीकार तो करना ही पड़ेगा कि नीतीश की पिछली सरकार में शराब की दुकानें बहुतायत से खुलीं और शराब की इन दुकानों से सरकार के राजस्व में जो भी वृद्धि हुई हो इसके दुष्प्रभाव भी सामने आए। समाज के बड़े तबके में विरोध के स्वर उठने लगे। इस बार के चुनाव में खासकर महिलाओं को लेकर ये बात कही जा रही थी कि मतदान के लिए उनकी लम्बी कतारें शराब के विरोध में तो नहीं थीं..! खैर, चुनाव परिणाम ने इन संदेहों को निर्मूल साबित किया। जनता ने अपने ‘सुशासन बाबू’ पर भरोसा दिखाया था और नीतीश ने उस भरोसे की लाज रखते हुए आज एक बड़ा निर्णय लिया। जी हाँ, मुख्यमंत्री ने अगले साल यानि 2016 की पहली अप्रैल से बिहार में शराबबंदी की घोषणा की।

बता दें कि आज मद्य निषेध दिवस है। पटना के सचिवालय परिसर स्थित अधिवेशन भवन में निबंधन, उत्पाद एवं मद्य निषेध विभाग ने मद्य निषेध दिवस समारोह का आयोजन किया था। कौन जानता था कि ये समारोह महज ‘रस्म अदायगी’ के लिए नहीं है, बल्कि नीतीश इसमें बहुत बड़ा ‘संकल्प’ लेकर शिरकत कर रहे हैं। शराबबंदी की घोषणा के साथ आज का ये समारोह इतिहास में दर्ज हो गया। बड़े ‘निश्चय’ के साथ समारोह को संबोधित करते हुए नीतीश ने कहा कि उत्पाद से मिलने वाले राजस्व में कमी हो जाने से कुछ चीजों के लिए इंतजार कर लिया जाएगा लेकिन शराबबंदी हर हाल में लागू होगी।

मुख्यमंत्री ने इस संबंध में उत्पाद एवं मद्य निषेध विभाग को विस्तृत कार्ययोजना बनाने का निर्देश दिया। शराबबंदी से संबंधित नई नीति पहली अप्रैल, 2016 से लागू कर दी जाएगी। यही नहीं नशा के खिलाफ अभियान चलाने वाले और गांव में शराब की बिक्री बंद कराने वाले स्वयं सहायता समूहों को पुरस्कृत भी किया जाएगा।

शराबबंदी के इस ऐतिहासिक निर्णय के पीछे की कहानी बड़ी दिलचस्प है। कुछ महीने पहले पटना के श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में स्वयं सहायता समूह के एक कार्यक्रम में महिलाओं ने नीतीश कुमार से गांवों में शराब बंद कराने का अनुरोध किया था। उस वक्त नीतीश अपना संबोधन खत्म कर चुके थे लेकिन उन महिलाओं की अपील उनके दिल को इस कदर छू गई कि वे दुबारा माइक पर गए और कहा कि अगर उन्होंने सत्ता में वापसी की तो शराबबंदी जरूर लागू करेंगे। महिलाओं, खासकर गरीब परिवार की महिलाओं पर शराब के जहरीले प्रभाव का उन्हें एहसास था। तभी उन्होंने कहा था कि अपनी कही बात से वे पीछे नहीं हटेंगे।

चुनाव के मौसम में कई बातें कही जाती हैं। कहकर भूल जाना या ये कहना कि मेरे कहने का मतलब ‘ये’ था ‘वो’ नहीं इतना आम हो चुका है कि अब इस पर बहस भी नहीं होती। ऐसे में नीतीश का अपना वादा निभाना, और वो भी शपथ लेने के महज कुछ दिनों के भीतर, सुखद आश्चर्य से भर दे रहा है। उन्होंने अपने तमाम विरोधियों और आलोचकों के मुँह पर अचानक बहुत बड़ा ताला जड़ दिया। इसमें कोई दो राय नहीं कि नीतीश के इस निर्णय की गूंज दूर तलक जाने वाली है।

बिना विलंब इस बड़ी घोषणा से यह स्पष्ट हो गया कि नीतीश की ये नई पारी बेहद खास होगी। उन्हें इस बात का भली भाँति एहसास है कि बिहार की जनता ने किस उम्मीद और विश्वास से उन्हें अपार बहुमत के साथ सत्ता सौंपी है। ‘मधेपुरा अबतक’ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को उनके इस साहसिक निर्णय के लिए बधाई देता है और आने वाले दिनों में बिहार के हित में ऐसे और निर्णयों की अपेक्षा करता है।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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इस जीत ने नीतीश को बनाया मोदी-भाजपा-एनडीए विरोधी राजनीति का ‘सर्वमान्य’ प्रतीक

न्यूटन की गति का तीसरा नियम कहता है कि हर क्रिया की बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती है। बिहार चुनाव में नरेन्द्र मोदी, भारतीय जनता पार्टी और एनडीए की जैसी ‘क्रिया’ थी, 20 नवंबर को पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में नीतीश का शपथ ग्रहण समारोह उसकी ठीक बराबर और विपरीत ‘प्रतिक्रिया’ है। बिहार चुनाव का परिणाम 8 नवंबर को आया लेकिन नीतीश ने शपथ ली 12 दिनों के बाद। यह विलंब अकारण नहीं था। नीतीश अपनी शपथ को मोदी-भाजपा-एनडीए विरोधी राजनीति की ‘महाशपथ’ बनाना चाहते थे और कश्मीर से कन्याकुमारी तथा महाराष्ट्र से अरुणाचल प्रदेश तक के नेताओं को जुटाकर उन्होंने यही किया।

किसी एक राज्य की सरकार के शपथ ग्रहण के लिए आयोजित समारोह में ‘अति विशिष्टों’ की ऐसी भीड़ आज तक नहीं जुटी थी। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, पूर्व प्रधानमंत्री व जेडीएस अध्यक्ष एचडी देवगौड़ा, लोकसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे, पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार, सीपीआईएम के महासचिव सीताराम येचुरी, सीपीआई के नेता डी राजा, एनसीपी प्रमुख शरद पवार और प्रफुल्ल पटेल, नेशनल कांफ्रेंस के फारूक अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला, डीएमके प्रमुख करुणानिधि के बेटे एमके स्टालिन और टीआर बालू, असम गण परिषद के प्रफुल्ल कुमार महंत, राष्ट्रीय लोकदल प्रमुख अजित सिंह और उनके बेटे जयंत सिंह और इंडियन नेशनल लोकदल के अभय चौटाला एक मंच पर थे। आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव और उनकी पत्नी व बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी तथा जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव और राष्ट्रीय महासचिव केसी त्यागी को तो खैर होना ही था।

नीतीश की ‘महाशपथ’ के साक्षी नौ राज्यों के मुख्यमंत्री भी बने। वे हैं ममता बनर्जी (पश्चिम बंगाल), अरविन्द केजरीवाल (दिल्ली), वीरभद्र सिंह (हिमाचल प्रदेश), सिद्धारमैया (कर्नाटक), ओमान चांडी (केरल), तरुण गोगोई (असम), पीके चामलिंग (सिक्किम), इबोबी सिंह (मणिपुर) और नबाम टुकी (अरुणाचल प्रदेश)। इनके अतिरिक्त दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित, हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा, छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी और झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी (झाविमो) व हेमंत सोरेन (झामुमो) ने भी अपनी मौजूदगी दर्ज कराई।

प्रधानमंत्री मोदी का प्रतिनिधित्व केन्द्रीय मंत्री वैंकेया नायडू और राजीव प्रताप रूडी ने किया और बिहार भाजपा की ओर से राजनीतिक शिष्टाचार निभाया पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी और वरिष्ठ नेता नंदकिशोर यादव ने। पंजाब के उपमुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल (अकाली दल), महाराष्ट्र के मंत्री रामदास कदम व सुभाष देसाई (दोनों शिवसेना) और झारखंड के मंत्री सरयू राय (भाजपा) भी अपनी-अपनी सरकार की ओर से सम्मिलित हुए। अकाली दल और शिवसेना भाजपा के सहयोगी जरूर हैं लेकिन उनके अलग ‘अस्तित्व’ से इंकार नहीं किया जा सकता।

नाम पढ़ते-पढ़ते शायद आप थक गए होंगे पर सूची यहीं खत्म नहीं होती। देश भर से आए 15 से ज्यादा दलों के नेता के साथ-साथ प्रसिद्ध वकील रामजेठ मलानी, वरिष्ठ पत्रकार एचके दुआ और अंबेडकर के पौत्र प्रकाश अंबेडकर जैसे नाम भी समारोह में शामिल होनेवालों में हैं। कई महत्वपूर्ण नाम अभी भी छूट रहे हैं लेकिन जिस बिन्दु पर हमें बात करनी है उसके लिए ऊपर के सारे नाम काफी हैं। हालांकि उनमें जो नाम कांग्रेस के हैं उनके लिए कहा जा सकता है कि वे शिष्टाचार के साथ-साथ महागठबंधन में शामिल अपनी पार्टी की हौसला आफजाई के लिए थे। भाजपा के लोग तो खैर विशुद्ध रूप से शिष्टाचारवश ही थे लेकिन ‘थे’ ये बात गौर करने की है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि नीतीश कुमार के लिए इस चुनाव का ‘हासिल’ पाँचवीं बार बिहार का मुख्यमंत्री होने से कहीं ज्यादा है। इस चुनाव के बाद उनका कद पूर्ण रूप से ‘राष्ट्रीय’ हो चुका है और उनकी ‘स्वीकार्यता’ बेहिसाब बढ़ी है। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि नीतीश के लिए सात राज्यों के धुर विरोधी भी एक मंच पर थे। दिल्ली से केजरीवाल-शीला दीक्षित, कर्नाटक से देवगौड़ा-सिद्धारमैया, हरियाणा से हुड्डा-अभय चौटाला, झारखंड से हेमंत सोरेन-बाबूलाल मरांडी, असम से तरुण गोगोई-प्रफुल्ल कुमार महंत, महाराष्ट्र से शरद पवार-रामदास कदम और पश्चिम बंगाल से ममता-येचुरी की एक साथ मौजूदगी बड़ी बात है। अब नीतीश मोदी-भाजपा-एनडीए विरोधी राजनीति के ‘सर्वमान्य’ प्रतीक हैं। आज नरेन्द्र मोदी बिहार की हार से जितने दुखी होंगे उससे कहीं अधिक ये बात उन्हें सालती होगी कि बिहार चुनाव को ‘पर्सनलाइज’ करने और “केन्द्र बनाम बिहार” का रूप देने से उनका कद जितना घटा उसी अनुपात में नीतीश का कद बढ़ गया है इस चुनाव के बाद।

नीतीश के शपथ-ग्रहण समारोह में ना केवल एक नए ‘ध्रुवीकरण’ या यूँ कहें कि ‘महागठबंधन’ के राष्ट्रीय स्वरूप का शंखनाद हुआ बल्कि फारूक अब्दुल्ला ने यह कहकर कि “नीतीश को अब देश की कमान संभालनी चाहिए”, एक कदम आगे का संकेत भी दे दिया। अब यह कहने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि गांधी मैदान से जो बात निकली है वो बहुत दूर तक जाने वाली है।

अगर नीतीश केन्द्र की ओर रुख करते हैं तो एक बड़ा सवाल लालू प्रसाद यादव को लेकर उठेगा कि वैसी स्थिति में उनकी क्या भूमिका होगी..? इसमें कोई दो राय नहीं कि लालू ने लम्बे समय के बाद ‘किंगमेकर’ के रूप में वापसी की है और केन्द्र की राजनीति में भी उनकी बड़ी भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन उसका स्वरूप कमोबेश वही होगा जो अभी है। यानि चुनावी राजनीति से दूर रहने की विवशता के कारण लालू के पास केन्द्र की राजनीति में भी ‘बड़े भाई’ की भूमिका निभाने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं है।

केन्द्र में लालू के लिए एक विकल्प कांग्रेस हो सकती थी लेकिन अब की परिस्थिति में नहीं। इसके तीन स्पष्ट कारण हैं। पहला, बिहार के शासन में बने रहने के लिए लालू के लिए नीतीश जरूरी होंगे, कांग्रेस नहीं। दूसरा, लालू और कांग्रेस के रिश्तों में अब पहले जैसी गरमाहट नहीं रह गई है क्योंकि महागठबंधन बनने से पूर्व राहुल की नजदीकियाँ नीतीश से बढ़ने लगी थीं। और तीसरा ये कि लालू मुख्यमंत्री पद के लिए नीतीश के नाम पर तैयार हुए थे, जेडीयू के नाम पर नहीं। अगर नीतीश केन्द्र की राजनीति में जाते हैं तो स्वाभाविक रूप से राजद के महागठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी होने के कारण मुख्यमंत्री की कुर्सी पर तेजस्वी ही बैठेंगे। तब उनके लिए ना तो कोई चुनौती होगी, ना लालू होने देंगे। इस तरह हर लिहाज से लालू नीतीश के लिए केन्द्र में भी ‘कृष्ण’ ही बने रहेंगे ताकि बिहार में उनके दोनों ‘तेज’ अभी से कहीं अधिक ‘चैन की बंसी’ बजा सकें।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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नीतीश की ‘छाया’, लालू की ‘माया’ : बिहार की नई सरकार की दस अहम बातें

  1. बिहार की सबसे ‘युवा’ सरकार

शुक्रवार, 20 नवम्बर को नीतीश कुमार ने रिकॉर्ड पाँचवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। उनके साथ जेडीयू, राजद और कांग्रेस के 28 मंत्रियों ने भी शपथ ली। इन 28 मंत्रियों में जेडीयू-राजद के 12-12 और कांग्रस के 4 मंत्री हैं। मंत्रीमंडल में शामिल मंत्रियों की औसत उम्र मात्र 43 वर्ष है और इस तरह ये बिहार की अब तक की सबसे ‘युवा’ सरकार है। वैसे पाँच विधायक पर एक मंत्री के तय फार्मूला के अनुसार राजद के चार, जेडीयू के दो और कांग्रेस के एक मंत्री का कोटा अभी शेष है।

  1. लालू की जबरदस्त ‘मौजूदगी’

इस सरकार में 64 वर्षीय नीतीश के बाद नंबर दो पर 26 वर्षीय तेजस्वी होंगे। तीन महत्वपूर्ण विभागों के साथ उन्हें उपमुख्यमंत्री बनाया गया है। तीन अन्य बड़े विभागों के साथ नंबर तीन पर तेजप्रताप को रखा गया है। यानि कैबिनेट में नंबर दो और तीन पर क्रमश: लालू के छोटे और बड़े बेटे होंगे। चौथा पायदान भी लालू के ही खाते में गया है। दोनों ‘तेज’ के बाद शपथ लेने वाले राजद के अब्दुल बारी सिद्दीकी उपमुख्यमंत्री तो नहीं बन पाए लेकिन वित्त मंत्री का ओहदा उन्हें जरूर मिला है। ना रहकर भी ‘मौजूद’ रहना कोई लालू से सीखे।

  1. पुराने सिर्फ चार

ज्यादातर नए चेहरों वाली नीतीश की नई सरकार में उनकी पिछली सरकार के केवल चार मंत्री ही जगह बना पाए। वे चार हैं बिजेन्द्र प्रसाद यादव, ललन सिंह, श्रवण कुमार और जयकुमार सिंह। नीतीश के करीबी और पिछली सरकार के कद्दावर मंत्री विजय कुमार चौधरी को विधान सभा अध्यक्ष बनाने की तैयारी है।

  1. उपमुख्यमंत्री तेजस्वी का ‘अर्थ’

नई सरकार को लेकर सबसे अधिक उत्सुकता इस बात की थी कि उपमुख्यमंत्री कौन होगा। तेजस्वी को इस पद पर बिठाकर लालू ने स्पष्ट कर दिया कि वे अपनी पार्टी में किसी ‘जीतनराम मांझी’ को पैदा नहीं करना चाहते। इसका एक और अर्थ ये है कि परिणाम आने के बाद दलों का जो ‘समीकरण’ बना है उसे देखते हुए निश्चित रूप से नीतीश भी ज्यादा ‘सलाह’ देने की ‘स्थिति’ में नहीं थे। अपने कोटे से अपने परिवार में किसको क्या देना है ये सिर्फ लालू को तय करना था और उन्होंने किया भी।

  1. मंत्रियों के चयन में ‘तालमेल’

जहाँ तक शेष मंत्रियों की बात है उनके चयन में लालू-नीतीश ने वैसा ही ‘तालमेल’ दिखाया जैसा टिकट बंटवारे में दिखाया था। सारी आशंकाओं को किनारे कर इन दोनों ने मंत्रीमंडल में किसी ‘दागी’ या ‘बागी’ को जगह नहीं दी। यही कारण है कि लालू के बेहद करीबी रहे और उनकी पूर्व की सरकारों में अनिवार्य जगह रखने वाले इलियास हुसैन इस सरकार में नहीं हैं। लालू को छोड़कर अपनी प्रतिबद्धता बदलने वाले और नीतीश के पिछले मंत्रीमंडल का महत्वपूर्ण चेहरा रहे श्याम रजक भी अपनी जगह नहीं बना पाए। बता दें कि श्याम रजक ने लालू को ‘पागल’ बता उन्हें ‘पागलखाना’ भेजने की बात कही थी जिसे लालू के लिए भूलना मुश्किल था। कैबिनेट में पीके शाही का ना रहना भी अकारण नहीं है। चारा घोटाले से जुड़े मामले में लालू के लिए मुश्किलें खड़ी करने में शाही की ‘भूमिका’ की बात कही जाती है। एकमात्र अपवाद ललन सिंह रहे। लालू की आपत्ति उन पर भी थी लेकिन नीतीश किसी तरह लालू को मना ले गए। राजद से जदयू में जाकर मंत्री बने रामलषण राम रमण भी कैबिनेट से बाहर हैं। रविदास कोटे में उनकी जगह राजद के शिवचंद्र राम मंत्री बनाए गए।

  1. शरद यादव के लिए ‘इशारा’

जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव के बेहद करीबी नरेन्द्र नारायण यादव का मंत्री ना होना भी चौंकाता है। लेकिन आप पड़ताल करें तो पाएंगे कि लोकसभा चुनाव में पार्टी की हार के बाद नीतीश द्वारा मुख्यमंत्री पद छोड़ने पर जिन ‘संभावितों’ के नाम विकल्प के तौर पर मीडिया में ‘उछले’ थे या ‘उछाले’ गए थे उनमें एक नाम उनका भी था। शायद उन्हें इसी की ‘सजा’ मिली हो। वैसे यह बात भी गौर करने की है कि शरद यादव के ‘क्षेत्र’ मधेपुरा के चार विधायकों में तीन जेडीयू के हैं लेकिन मंत्री बनाए गए राजद के चन्द्रशेखर। राजनीति के जानकार इसमें शरद यादव के लिए आगे का ‘इशारा’ होने से भी इनकार नहीं कर रहे।

  1. सोशल इंजीनियरिंग

संख्याबल और आशा के अनुरूप नई सरकार पर ‘माय’ समीकरण हावी है। 28 मंत्रियों में 7 यादव और 4 मुस्लिम मंत्री हैं। दलित मंत्रियों की संख्या 5 है। यानि रामविलास और मांझी की राजनीति पर सावधानी से नज़र रखी गई है। शेष मंत्रियों में 3 कुशवाहा और एक कुर्मी जाति से हैं। इनके अतिरिक्त 4 अति पिछड़े और 4 अगड़े मंत्री हैं। अगड़ों में 2 राजपूत और 1-1 ब्राह्मण और भूमिहार हैं। महिला मंत्रियों की संख्या 2 है। ये हैं जेडीयू की कुमारी मंजु वर्मा और राजद की अनिता देवी।

  1. किस जिले से कितने

जिलों को मिले प्रतिनिधित्व की बात करें तो वैशाली और दरभंगा से सबसे ज्यादा 3-3 मंत्री बने हैं। नालंदा, सारण, समस्तीपुर और रोहतास के हिस्से 2-2 मंत्री आए हैं। मुजफ्फरपुर, मधुबनी, गया, जहानाबाद, बक्सर, पश्चिम चम्पारण, शेखपुरा, जमुई, मुंगेर, बेगूसराय, पूर्णिया, सुपौल, सहरसा और मधेपुरा से 1-1 मंत्री हैं। पटना समेत 18 जिले प्रतिनिधित्व से वंचित रह गए।

  1. पाँच सौभाग्यशाली

ये जानना भी दिलचस्प होगा कि 28 मंत्रियों में 18 पहली बार मंत्री बने हैं और इन 18 में भी 5 ऐसे हैं जो पहली बार विधायक बनने के साथ मंत्री बने हैं। वे सौभाग्यशाली पाँच विधायक हैं तेजस्वी, तेजप्रताप, आलोक मेहता, विजय प्रकाश और अनिता देवी। पाँचों राजद के हैं।

  1. वाया विधान परिषद

मुख्यमंत्री के अतिरिक्त जेडीयू के ललन सिंह तथा कांग्रेस के कोटे से मंत्री बने अशोक चौधरी और मदन मोहन झा विधान परिषद के सदस्य हैं।

अंत में एक नज़र मंत्रियों की पूरी सूची और उनके विभाग पर :

नीतीश कुमार, जेडीयू : मुख्यमंत्री (सामान्य प्रशासन, गृह, निगरानी आदि), तेजस्वी प्रसाद यादव, राजद : उपमुख्यमंत्री (पथ-निर्माण, भवन-निर्माण, पिछड़ा-अतिपिछड़ा विभाग), तेजप्रताप यादव, राजद (स्वास्थ्य, लघु सिंचाई और पर्यावरण), अब्दुल बारी सिद्दीकी, राजद (वित्त), बिजेन्द्र प्रसाद यादव, जेडीयू (ऊर्जा), राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह, जेडीयू (जल संसाधन एवं योजना विकास), अशोक चौधरी, कांग्रेस (शिक्षा एवं आईटी), श्रवण कुमार, जेडीयू (ग्रामीण विकास एवं संसदीय कार्य), जय कुमार सिंह, जेडीयू (उद्योग एवं विज्ञान प्रौद्योगिकी), आलोक कुमार मेहता, राजद (सहकारिता), चंद्रिका राय, राजद (परिवहन), अवधेश कुमार सिंह, कांग्रेस (पशुपालन), कृष्णनंदन प्रसाद वर्मा, जेडीयू (पीएचईडी एवं विधि), महेश्वर हजारी, जेडीयू (नगर विकास), अब्दुल जलील मस्तान, कांग्रेस (उत्पाद, मद्यनिषेध और निबंधन), रामविचार राय, राजद (कृषि), शिवचंद्र राम, राजद (कला-संस्कृति), मदन मोहन झा, कांग्रेस (राजस्व एवं भूमि सुधार), शैलेश कुमार, जेडीयू (ग्रामीण कार्य विभाग), कुमारी मंजू वर्मा, जेडीयू (समाज-कल्याण), संतोष कुमार निराला, जेडीयू (एस-एसटी क्ल्याण), अब्दुल गफूर, राजद (अल्पसंख्यक कल्याण), चन्द्रशेखर, राजद (आपदा प्रबंधन), खुर्शीद उर्फ फिरोज अहमद, जेडीयू (गन्ना उद्योग), मुनेश्वर चौधरी, राजद (खान एवं भूतत्व), मदन सहनी, जेडीयू (खाद्य एवं उपभोक्ता संरक्षण), कपिलदेव कामत, जेडीयू (पंचायती राज), अनिता देवी, राजद (पर्यटन) एवं विजय प्रकाश, राजद (श्रम-संसाधन)।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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… इसीलिए छठ ‘महापर्व’ है..!

समय के साथ सब कुछ बदलता है। आपके तौर-तरीके ही नहीं, त्योहार तक बदल जाते हैं। तकनीक ने हमें बाहर जितना विस्तार दिया, भीतर उसी अनुपात में सिमटते गए हम और इस ‘संकुचन’ को बड़ी बेशर्मी से ‘आधुनिकता’ का नाम दिया हमने। आयातित बोली, आयातित शिक्षा, आयातित परिधान, आयातित संगीत, आयातित नृत्य, आयातित साहित्य, आयातित सिनेमा, आयातित उपकरण… इस आधुनिकता में सब कुछ आयातित था। आयात-आधारित इस आधुनिकता में हम विचारधारा भी आयात करने लगे और अब तो त्योहार आयात करने में भी संकोच नहीं होता हमें। इसे हम समय के साथ बदलना कहने लगे हैं।

इस ‘आधुनिकता’ की होड़ में गांव बड़ी तेजी से शहरों में खोते जा रहे हैं। डिब्बाबंद दूध, ‘डेलिवर’ किए गए फास्ट फूड और बोतलबंद पानी पर बड़ी हुई पीढ़ी ‘ईएमआई’ चुकाना भले सीख ले, मिट्टी का ‘कर्ज’ चुकाने के संस्कार से वो कोसों दूर रहेगी। हम गौर से देखें, जड़ तक जाकर पड़ताल करें तो पाएंगे कि हमारे सारे व्रत और त्योहार हमारी मिट्टी से जुड़े हैं। हम आजीवन अपनी मिट्टी से जो लेते हैं दरअसल व्रत रखकर और त्योहार मनाकर उसी का आभार जताते हैं हम। पर लानत है हम पर कि अब हम अपनी मिट्टी तक में ‘मिलावट’ करने लगे हैं। इसी का परिणाम है कि होली, दीपावाली जैसे त्योहारों का बड़ी तेजी से ‘शहरीकरण’ होने लगा है। या यूँ कहें कि अब इन त्योहारों को हम ‘आधुनिक’ तरीके से मनाने लगे हैं।

आधुनिकता की इस चकाचौंध में भी अगर हमारी आँखें पूरी तरह चुंधिया नहीं गई हैं तो इसका बहुत बड़ा श्रेय छठ को जाता है। अपनी जड़ों से कटकर महानगरों के आसमान में उड़ना सीख गए बच्चे होली-दीपावली चाहे जहाँ मना लें पर छठ के लिए वे अपने ‘घोंसले’ को लौट आते हैं। उन बच्चों के बच्चे जान पाते हैं कि ‘टू बेडरूम फ्लैट’ से बाहर की दुनिया कितनी बड़ी होती है और दो इकाईयों के साथ रहने से बने परिवार और कई परिवारों के जुड़ने से बने परिवार में क्या फर्क होता है। वे समझ पाते हैं कि ‘डिस्कवरी’ पर नदियों को देखना और उसे छूकर महसूसना कितना अलग होता है। वे जान पाते हैं कि क्या होता है सूप, कैसा होता है दौउरा, कौन बनाते हैं इन चीजों को और समाज के कितने अभिन्न अंग हैं वे। छठ ही बताता है उन्हें डाभ, चकोतरा (टाब नींबू), सिंघाड़ा, अल्हुआ और सुथनी जैसे फलों का अस्तित्व।

छठ धर्म से ज्यादा समाज का, सामूहिकता का और समानता का त्योहार है। समाजवाद का सबसे जीवंत दृश्य आपको छठ घाट पर दिखेगा। मालिक और मजदूर दोनों एक समान सिर पर प्रसाद का दौउरा ढोते मिलेंगे आपको। सबके सूप का मोल-महत्व एक समान होगा। कोई आडम्बर नहीं। किसी को भी पुरोहित की ‘मध्यस्थता’ नहीं चाहिए होती। बस आस्था होनी चाहिए, आपकी पूजा सीधे छठी मईया तक पहुँच जाती है। हिन्दू-मुसलमान के बीच खड़ी ‘दीवार’ भी इस आस्था के आगे सिर झुकाती है। ऐसा कोई बाज़ार नहीं जिसमें छठ की पूजन सामग्री बेचने वालों में मुस्लिम समाज के लोग ना हों। उनकी श्रद्धा और उत्साह में रत्ती भर भी कमी निकाल कर दिखा दें आप। और तो और आप शिद्दत से ढूँढेंगे तो कुछ घाट ऐसे भी होंगे जहाँ अर्ध्य देतीं मुस्लिम माताएं और बहनें भी दिख जाएंगी आपको।

अगर छठ ना हो तो आज के युग में ‘डूबते सूरज’ को प्रणाम करना हम सीख ही नहीं पाएंगे। बेटियों को कोख में ही मार देने वाले कभी नहीं जान पाएंगे कि किसी पर्व में बेटियों की भी मन्नत मांगी जाती है। हिन्दू समाज का ये सम्भवत: एकमात्र पर्व है जिसमें अराधना के लिए किसी ‘मूर्ति’ की जरूरत नहीं पड़ती। व्रत करने वाली हर नारी छठी मईया का रूप होती है और उम्र में आपसे छोटी ही क्यों ना हों उनके पैर छूकर ही प्रसाद ग्रहण करना होता है आपको। नारी-सशक्तिकरण के किसी नारे में इतनी ताकत हो तो बताएं।

कोई पर्व एक साथ इतनी विलक्षण खूबियों को अपने में नहीं समा सकता, इसीलिए छठ ‘महापर्व’ है। हमारी आस्था का, हमारे संस्कार का, हमारी पवित्रता का, हमारे विस्तार का ‘महापर्व’। मिट्टी के सोंधेपन से सने छठ के गीत सुनकर जब तक आपके रोम-रोम झंकृत होते रहेंगे तब तक समझिए अपनी जड़ से जुड़े हैं आप और तथाकथित ‘आधुनिकता’ की कैसी भी आंधी क्यों ना हो बहुत मजबूती से टिके हैं आप।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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क्या मीसा उपमुख्यमंत्री, तेजप्रताप कैबिनेट मंत्री और तेजस्वी होंगे राजद के कार्यकारी अध्यक्ष..?

बिहार चुनाव सम्पन्न हो चुके हैं। “महागठबंधन या एनडीए” का सस्पेंस खत्म हो चुका है। महागठबंधन के जीतने पर नीतीश का मुख्यमंत्री होना तय था और अब तो उनके शपथ-ग्रहण का दिन और समय भी निश्चित हो चुका है। 20 नवम्बर को दोपहर दो बजे नीतीश पाँचवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे। अब सबकी निगाहें इस बात पर लगी हैं कि नीतीश के ठीक बाद शपथ लेने कौन जाएगा यानि कौन होगा बिहार का उपमुख्यमंत्री..? ये सवाल कितना मुश्किल है, कोई जाकर लालू से पूछे… जिन्हें यह ‘यक्षप्रश्न’ सुलझाना है।

बिहार में इस वक्त केवल यही चर्चा है कि लालू किसे और किस वजह से चुनेंगे..? मजे की बात तो यह है कि लोग इसी सवाल के जवाब में दूसरे बड़े सवाल का जवाब भी ढूँढ़ लेते हैं कि कौन होगा लालू का उत्तराधिकारी..? यानि लोग ये मानकर चल रहे हैं कि जो उपमुख्यमंत्री होगा, वही लालू का उत्तराधिकारी भी होगा। लेकिन देखा जाय तो दूसरा सवाल पहले सवाल से भी ज्यादा कठिन है और मौजूदा हालात में अधिक सम्भावना इसी बात की है कि लालू उपमुख्यमंत्री और उत्तराधिकारी दो अलग लोगों को बनाएं और वे दोनों उन्हीं के परिवार से हों।

लालू की पार्टी में पुराने और वफादार लोग कई हैं लेकिन उनमें खुद को उपमुख्यमंत्री पद का ‘दावेदार’ कहने की स्थिति में कोई भी नहीं। महागठबंधन की इतनी बड़ी जीत और उस जीत में लालू की बड़ी भूमिका के बाद तो हरगिज नहीं। हालांकि इस पद के लिए पार्टी से एक नाम की खूब चर्चा है और वो नाम अब्दुल बारी सिद्दीकी का है। सिद्दीकी वरिष्ठ हैं, लालू के विश्वासपात्र हैं और उनके ‘माय’ समीकरण को पूरा भी करते हैं। लेकिन लालू उन्हें उपमुख्यमंत्री बनाने की ‘उदारता’ दिखा पाएंगे इसकी उम्मीद कम है। हाँ, ‘भरपाई’ के लिए लालू उन्हें विधान सभा का अध्यक्ष जरूर बनवा सकते हैं। उदय नारायण चौधरी के चुनाव हार जाने के बाद जेडीयू को भी इसमें विशेष कठिनाई नहीं होनी चाहिए।

अब सवाल उठता है कि सिद्दीकी नहीं तो कौन..? सिद्दीकी के अलावे उपमुख्यमंत्री के तौर पर तीन और नाम चर्चा में हैं और वे तीनों लालू के परिवार से हैं। राघोपुर से विधायक बने तेजस्वी, महुआ से चुने गए तेजप्रताप और राजनीति में पहले से ‘सक्रिय’ लालू की बड़ी बेटी मीसा भारती। रही बात उत्तराधिकारी की तो ये तय है कि वो उनके परिवार से होगा और उनका बेटा होगा। पप्पू यादव द्वारा उठाए गए ‘उत्तराधिकार’ के मुद्दे पर लालू यह पहले ही साफ कर चुके हैं।

उपमुख्यमंत्री पद के लिए मीसा का नाम आना ‘अकारण’ नहीं है। मीसा को इस पद पर बिठाकर लालू के एक पंथ कई काज हो जाएंगे। पहला कि ये कुर्सी उनके परिवार में आ जाएगी, दूसरा उनके दोनों बेटों के बीच अघोषित पर सम्भावित ‘टकराव’ टल जाएगा और तीसरा महिलाओं में एक बड़ा संदेश दिया जा सकेगा जिन्होंने जी खोलकर महागठबंधन को वोट दिया है। लालू ये बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि महिलाओं ने नीतीश को देखकर वोट दिया है। मीसा को आगे कर वो राजद की पैठ भी महिलाओं में बना सकते हैं और उनसे चिपका ‘जंगलराज’ का दाग भी बहुत हद तक धुल सकता है। हालांकि मीसा अभी किसी सदन की सदस्य नहीं हैं लेकिन विधान परिषद् जाते उन्हें कितनी देर लगेगी भला।

रही बात तेजप्रताप और तेजस्वी की तो यह स्पष्ट हो चुका है कि तेजस्वी में लालू और उनकी पार्टी दोनों ही सम्भावना देख रहे हैं। चुनाव के दौरान राघोपुर में तेजस्वी के लिए वोट मांगने के क्रम में लालू ने इसका संकेत भी दे दिया है। तेजस्वी राजद के युवा चेहरे के तौर पर उभरे हैं और तेजप्रताप की तुलना में राजनीतिक रूप से अधिक ‘परिपक्व’ भी दिखते हैं। अगर तेजस्वी लालू के एकमात्र बेटे होते तो उनका उपमुख्यमंत्री और उत्तराधिकारी दोनों होना तय होता। लेकिन तेजप्रताप ना केवल उनसे बड़े हैं और उन्हीं की तरह बाकायदा चुनाव जीतकर आए हैं बल्कि माँ राबड़ी के चहेते भी हैं। लालू के नजदीकी लोग अच्छी तरह जानते हैं कि लालू का ‘सॉफ्ट कॉर्नर’ छोटे बेटे तेजस्वी के लिए है तो राबड़ी का बड़े बेटे तेजप्रताप के लिए। दोनों भाईयों के बीच लालू के सालों साधु और सुभाष वाली ‘प्रतिद्वंद्विता’ टालने के लिए भी मीसा को आगे किया जा सकता है।

ऊपर के विश्लेषण के बाद जरा देखें कि लालू के पास मीसा, तेजप्रताप और तेजस्वी को लेकर कौन-कौन से विकल्प हैं..? पहला, मीसा को उपमुख्यमंत्री बनाया जाय और तेजप्रताप-तेजस्वी दोनों को कैबिनेट में जगह दी जाय। इस पर शायद नीतीश आपत्ति करें। दूसरा, तेजस्वी को उपमुख्यमंत्री बनाया जाय और तेजप्रताप को कैबिनेट में लिया जाय। इस पर तेजप्रताप और मीसा दोनों ‘रूठ’ जाएंगे। तीसरा, मीसा को उपमुख्यमंत्री बनाया जाय, तेजप्रताप को कैबिनेट में भेजा जाय और पार्टी की बागडोर तेजस्वी के हाथ में सौंपी जाय उन्हें कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर। यानि उत्तराधिकार तेजस्वी को मिले, उपमुख्यमंत्री का पद भाई-बहनों में सबसे बड़ी मीसा को और तेजप्रताप भी असंतुष्ट ना रहे।

ये भी सम्भव है कि मीसा-तेजप्रताप-तेजस्वी की भूमिका आपस में बदल जाय लेकिन इतना तय है कि लालू और राबड़ी ना तो इन तीनों में से किसी को किनारे कर सकते हैं और ना ही तीनों को एक साथ सरकार या संगठन में जगह दे सकते हैं। ऐसे में किन्हीं दो को सरकार में और एक को पार्टी में बड़ा यानि ‘नेक्स्ट टू लालू’ का पद देकर ‘परिवार’ की समस्या हल की जा सकती है।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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