चुनाव के मुहाने पर खड़े बिहार में बहस छिड़ी है ‘डीएनए’ को लेकर। 25 जुलाई को मुजफ्फरपुर की रैली में प्रधानमंत्री मोदी ने भोज पर बुलाकर थाली छीन लेने की बात उठाई… उठाकर उसे मांझी प्रकरण से जोड़ा… और यहां से उन्हें सीधा नीतीश कुमार के ‘डीएनए’ का रास्ता मिल गया। राजनीति में एक रास्ते से हमेशा कई और रास्ते जुड़े होते हैं। जाहिर है कि मोदीजी बिहार में अपना रास्ता खोजते हुए ही ‘डीएनए’ तक पहुँचे थे और ‘डीएनए’ के बाद की क्रिया-प्रतिक्रिया देखकर उन्हें बिहार में जल्द ही होनेवाली अपनी एक के बाद एक तीन रैलियों में आगे का रास्ता तय करना था। लेकिन बीच के समय में ‘डीएनए’ की गेंद नीतीश के कोर्ट में थी। नौ-दस दिन के सोच-विचार के बाद उन्होंने ट्वीटर का रास्ता पकड़ा, ‘डीएनए’ को पूरे बिहार से जोड़ा और मोदीजी के नाम खुला पत्र लिख डाला। अब बहस छिड़ी है कि ‘डीएनए’ नीतीश का खराब है या पूरे बिहार का..? मोदी ने नीतीश का अपमान किया या बिहार की गरिमा भंग की..?
“हरि अनंत हरि कथा अनंता”। राजनीति में इस तरह की बहस होती ही रहती है और आम तौर ऐसी बहसें किसी निष्कर्ष पर पहुंचती भी नहीं। या यूं कहें कि बहस करने वाले बहस का कोई निष्कर्ष चाहते ही नहीं। बहसों को येन-केन-प्रकारेण ‘डायलिसिस’ के सहारे वो जिन्दा रखते हैं ताकि राजनीति की उनकी दूकान घोर वैचारिक मंदी में भी चलती रहे। लेकिन यहां मसला ‘डीएनए’ का है और चाहे-अनचाहे बिहार से जुड़ गया है तो इसकी पड़ताल तो होनी ही चाहिए।
डीएनए आखिर है क्या..? डी-ऑक्सीरोईबोन्यूक्लिक एसिड यानि डीएनए अणुओं की उस घुमावदार संरचना को कहते हैं जो हमारी कोशिकाओं के गुणसूत्र में पाए जाते हैं और इन्हीं में हमारा आनुवांशिक कूट मौजूद रहता है। डीएनए की खोज जेम्स वाटसन और फ्रांसिस क्रिक नाम के दो वैज्ञानिकों ने 1953 में की थी और मानव-जाति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण इस खोज के लिए उन्हें 1962 में नोबेल प्राइज से नवाजा गया था। लेकिन तब शायद ही उन्होंने इस बात की कल्पना की होगी कि आगे चलकर कभी यही डीएनए ‘विशुद्ध’ राजनीतिक बहस का केन्द्र भी बन सकता है।
यहां राजनीति के साथ ‘विशुद्ध’ शब्द का इस्तेमाल मैं बहुत सावधानी से और बहुत जोर देकर कर रहा हूँ क्योंकि ना तो डीएनए तक मोदी के पहुँचने में राजनीति के अलावा कुछ था और ना ही नीतीश द्वारा इसे बिहार से जोड़ देने में। दोनों नेता अपने-अपने तीर-तरकश को संभाले बस विधानसभाई ‘मछली’ की आँख देख रहे हैं। उन्हें इतनी फुरसत कहां कि डीएनए की ‘घुमावदार संरचना’ तक पहुंचे। हाँ, भोली-भाली जनता उनकी इस बहस से जितनी घूम जाय, उनका ‘डीएनए’ उतना ही सफल माना जाएगा।
हमें बहुत सचेत और सावधान होना होगा कि यहाँ ‘डीएनए’ की बहस में उस बिहार को घसीटा जा रहा है जहाँ की मिट्टी ने भारत को पहला सम्राट दिया और पहला राष्ट्रपति भी, जहाँ गांधी और जेपी के संघर्ष ने आकार लिया, जहाँ चाणक्य के राज-धर्म से लेकर कर्पूरी के समाज-धर्म तक मील के अनगिनत पत्थर हैं। और तो और जिस बुद्ध ने अपने ज्ञान से धर्म का और आर्यभट्ट ने ‘शून्य’ से विज्ञान का पूरा का पूरा ‘डीएनए’ ही बदल डाला, वे भी इसी बिहार के थे। ना तो किसी मोदी की सामर्थ्य हो सकती है कि इस बिहार के ‘डीएनए’ पर उँगली उठा दें और ना कोई नीतीश इतने बड़े हो सकते हैं कि इसके ‘डीएनए’ के प्रतीक हो जाएं।
सच तो ये है कि ‘डीएनए’ आज की राजनीति का दूषित हो गया है तभी ये बहस छिड़ी है या इस जैसी कोई भी बहस छिड़ती है। आज राजनीति में वो शुचिता, वो संस्कार, वो साधना ही नहीं रही जो हमें हमारी परम्परा से मिली। हम पड़ताल करें, अगर कर सकें, तो नीतीश हों या मोदी, जदयू हो या भाजपा, राजनीति के स्तर पर इनके ‘डीएनए’ में कोई खास फर्क नहीं दिखेगा। नाम बदल जाते हैं, चेहरे बदल जाते हैं, संदर्भ बदल जाते हैं और सरकार बदल जाती है, अगर कुछ नहीं बदल पाता है तो वो है आजाद भारत में राजनीति का लगातार गिरता स्तर और दिन-ब-दिन और अधिक प्रदूषित होता उसका ‘डीएनए’। मतभेद तो गांधी और अंबेडकर या नेहरू और पटेल में भी थे लेकिन बात कभी ‘डीएनए’ तक नहीं पहुंचती थी। ये तेरा डीएनए, ये मेरा डीएनए करने की जगह क्यों ना हमलोग उस ‘डीएनए’ की तलाश में जुटें जो हमारे इन पुरखों में था। तब शायद इस तरह की किसी बहस की ना तो कोई जरूरत होगी, ना गुंजाइश।
मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप