लोजपा के वरिष्ठ नेता, समस्तीपुर के सांसद व केन्द्रीय मंत्री रामविलास पासवान के सबसे छोटे भाई रामचन्द्र पासवान नहीं रहे। रविवार को दोपहर 1.24 पर उन्होंने नई दिल्ली स्थित डॉ. राम मनोहर लोहिया हॉस्पिटल में अंतिम सांस ली। अभी कुछ दिन पहले हार्ट अटैक के बाद उन्हें हॉस्पिटल लाया गया था, लेकिन तब शायद कोई नहीं जानता था कि वे अब यहां से कभी नहीं लौटेंगे। अपने पीछे वे पत्नी सुनैयना कुमारी के साथ दो बेटे और एक बेटी को छोड़ गए हैं।
मात्र 57 वर्षीय रामचंद्र पासवान के असामयिक निधन से जैसे शोक की लहर दौड़ गई हो। ऐसा कोई राजनीतिक दल नहीं, जिसने उनके लिए शोक न जताया हो। स्वभाव से बड़े हंसमुख और मिलनसार रामचंद्र पासवान राजनीति के साथ ही सामाजिक कार्यों में भी समान रूप से सक्रिय थे। बड़े भाई रामविलास पासवान द्वारा स्थापित दलित सेना के प्रमुख के रूप में उन्होंने दशकों तक अहम भूमिका निभाई और अपने अग्रज के बेहद मजबूत कांधा के तौर पर रहे। बिहार की राजनीति में रामविलास पासवान, पशुपति कुमार पारस और रामचंद्र पासवान की जैसी तिकड़ी रही और अपनी एकजुटता से इस तिकड़ी ने जैसी सफलता हासिल की, वैसा उदाहरण कोई दूसरा नहीं।
रामचंद्र पसवान मूल रूप से खगड़िया जिला के अलौली प्रखंड अंतर्गत शहरबन्नी गांव के रहने वाले थे। जामुन दास एवं सिया देवी के पुत्र रामचंद्र पासवान ने मैट्रिक तक की शिक्षा ग्रहण की थी। 1999 में रोसड़ा से वे पहली बार संसद के लिए चुने गए थे। इस बार समस्तीपुर से ढाई लाख मतों से अधिक के अंतर से जीतकर वे चौथी बार संसद पहुँचे थे।
रामचंद्र पासवान देश के उन चुनिंदा सांसदों में से रहे हैं, जिनकी औसत उपस्थिति संसद में अस्सी प्रतिशत से अधिक रही है। वे संसद की विभिन्न कमेटियों के सदस्य रहे। लोकसभा सदस्य के रुप में मिलने वाले सांसद निधि का वे शत-प्रतिशत खर्च करते थे। उनके लगभग सभी कार्यकाल में उनके सांसद निधि का खर्च शत-प्रतिशत रहा है। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि वे क्षेत्र के विकास के प्रति कितने तत्पर थे।
बताया जाता है कि इस बार एनडीए के नेताओं के द्वारा रामचंद्र पासवान को अपना क्षेत्र बदलने के लिए दबाव बनाया गया था, लेकिन वे टस से मस नहीं हुए। उनका कहना था कि जीत और हार तो लगी रहती है। यदि हमने काम किया है तो लोग हमें जरूर वोट देंगे। काम नहीं किया गया होगा तो वोट नहीं करेंगे, लेकिन लड़ूंगा समस्तीपुर से ही। इसके बाद वे समस्तीपुर से चुनाव लड़े और भारी अंतर से जीते भी। पर नियति को कुछ और ही मंजूर था। ‘मधेपुरा अबतक’ की ओर से उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।