इस साल के लिए विज्ञान के तीनों पुरस्कार – चिकित्सा शास्त्र, भौतिकी और रसायन शास्त्र – घोषित हो चुके हैं। इस बार के पुरस्कार जिन खोजों के लिए दिए गए हैं उनमें से कोई ऐसी नहीं जो फंडामेंडल साइंस को झकझोर दे, बल्कि ये खोजें चिकित्सा शास्त्र, भौतिकी और रसायन शास्त्र के विकासमान क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करती हैं और हमारे जीवन पर इनका असर अगले दस-बीस वर्षों में पड़ने वाला है।
एशिया के लिए गौरव की बात है कि चिकित्सा शास्त्र का नोबेल अकेले जापान के डॉ. योशिनोरी ओहसुमी को प्राप्त हुआ है। उनका कार्यक्षेत्र ऑटोफैगी है, यानि वह प्रक्रिया, जिसके जरिये शरीर लगातार खुद को नया करता रहता है और इस क्रम में अपने पुराने हिस्से को रिसाइकल करता रहता है। डॉ. ओहसुमी ने इसका समूचा जेनेटिक और मेटाबोलिक मेकेनिज्म खोज निकाला है और भविष्य में इसका उपयोग पार्किंसंस डिजीज और कुछ खास तरह के कैंसर के इलाज में किया जा सकता है।
रसायन शास्त्र का नोबेल भी एक मायने में चिकित्सा शास्त्र के लिए अत्यंत उपयोगी क्षेत्र के लिए दिया गया है। यह क्षेत्र है आण्विक मशीनों का, जिन्हें बनाने में काम आने वाले मेकेनिज्म का इस्तेमाल करके अभी पिछले साल विकसित किए गए कॉम्बरस्टैटिन ए-4 नाम के रसायन को कैंसर के इलाज के लिए आजमाने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। फ्रांसीसी ज्यां पिएर सावेज, डच बर्नार्ड फेरिंग और अमेरिकी जेम्स फ्रेजर स्टोडार्ट ने अपनी तीस साल लंबी साधना से इतनी सूक्ष्म रासायनिक मशीनें तैयार करने का हुनर विकसित कर दिया है, जो सबसे ताकतवर इलेक्ट्रॉनिक माइक्रोस्कोपों से भी धुंध जैसी शक्ल में ही देखी जा सकती हैं।
भौतिकी का नोबेल प्राइज इस बार सुपर कंडक्टिविटी और सुपर लिक्विडिटी जैसी विचित्र परिघटनाओं के सिद्धांत पक्ष पर काम करने वाली ब्रिटेन के तीन वैज्ञानिकों डेविड थूलेस, डंकन हाल्डेन और माइकल कोस्टरलित्ज की टीम को मिला है। जिन लोगों का मानना है कि आम ज़िन्दगी में भौतिकी के असली चमत्कार अभी आने बाकी हैं, उनकी उम्मीदों को वैज्ञानिकों की इस अनोखी तिकड़ी के ‘सुपर’ फिजिक्स से खासा बल मिला है।
‘मधेपुरा अबतक’ के लिए डॉ. ए. दीप