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दाना के कंधों पर पत्नी की लाश नहीं, समाज है हमारा

Dana Manjhi

पिछले दिनों भारतीय अखबारों और टेलीविजन चैनलों ने ओडिशा के एक गरीब आदिवासी दाना मांझी की एक ऐसी तस्वीर से हमें रू-ब-रू कराया जो लम्बे समय तक मन और विवेक को सालती रहेगी। वो तस्वीर थी एक विवश और लाचार पति की जिसके पास इतने पैसे भी नहीं थे कि अपनी पत्नी का मृत शरीर ढोने के लिए किसी गाड़ी या ठेले तक की व्यवस्था कर सके और अस्पताल इतना संवेदनशून्य कि उसने एंबुलेंस मुहैया कराना अपना धर्म नहीं समझा। दाना मांझी के पास कोई विकल्प नहीं था सिवाय इसके कि अपनी पत्नी की लाश अपने कंधे पर उठाए लगभग बारह किलोमीटर की दूरी पैदल तय करे।

टीवी चैनलों पर दाना मांझी को एक चादर में लिपटी हुई लाश को अपने कंधे पर लेकर चलते हुए दिखाए जाने का दृश्य बेहद दर्दनाक था। पत्नी की लाश कंधे पर और साथ में चलती रोती-बिलखती बेटी… फट क्यों नहीं जाता हमारा हृदय! देश की राजधानी दिल्ली में सड़क के किनारे गैंगरेप के बाद लहूलुहान और निर्वस्त्र फेंक दी गई निर्भया हो या दाना के कंधे पर हमेशा के लिए सोई उसकी पत्नी… हमारी आत्मा मर चुकी है, क्या इसमें कोई संशय रह जाता है?

दाना की पत्नी का देहांत टीबी से हुआ था। हम अच्छी तरह जानते हैं कि टीबी आज की तारीख में असाध्य नहीं है और बहुत कम खर्च में इसका इलाज संभव है। अब जरा सोचिए भारत की उस एक तिहाई आबादी के बारे में जो गरीबी रेखा से नीचे है, समय पर टीबी का इलाज तक कराने में असमर्थ है और जिसके पास पत्नी या परिजन की लाश ढोने के लिए अपने कंधे के सिवाय कुछ भी नहीं है। गौर करने की बात यह कि इन अभागों में अधिकांश आबादी दलित और आदिवासियों की है जो देश की आबादी का एक चौथाई हिस्सा हैं।

भारत की सामाजिक व्यवस्था का सबसे मजबूत पहलू यह है कि यह एक लोकतंत्र है और इसका सबसे कमजोर पहलू यह है कि आज़ादी के इतने सालों बाद भी देश की राजनीति और संसाधन एक विशेषाधिकार प्राप्त उच्च वर्ग की गिरफ्त में है। इस वर्ग ने एक ऐसा समाज बनाया है जिसमें गरीब और कमजोर के लिए सोचने की जगह सीमित होती जा रही है। इस स्वकेन्द्रित समाज में इंसानी रिश्तों का निर्धारण बस आपसी हित, जाति और धर्म के आधार पर होता है।

इस समाज की एक बड़ी खासियत है कि यहाँ संवेदना भी ‘फैशन’ की तरह दिखाई जाती है। इस समाज में दशरथ मांझी पर फिल्म बनाई जा सकती है लेकिन फिर किसी मांझी को किसी निर्मम ‘पहाड़’ से आजीवन लड़ना ना पड़े यह सोचने की फुरसत किसी को नहीं। दशरथ की पत्नी के जीवन के रास्ते में जो ‘पहाड़’ आया था उस पहाड़ का सीना चीरने में उसने पूरी ज़िन्दगी लगा दी और ‘रास्ता’ बना दिया। पर वो रास्ता खुला भी नहीं कि बन्द हो गया। कल दशरथ था, आज दाना आ गया। पर ‘मांझी’ की कहानी वहीं की वहीं है।

दाना मांझी की पत्नी को चंद रुपयों में बचाया जा सकता था, पर समाज ने जीवन से ही नहीं, इस गरीब को मौत के बाद भी इज्जत से महरूम रखा। यह तस्वीर बहुत लम्बे समय तक मानवता की आत्मा को झकझोरती रहेगी क्योंकि दाना अपनी पत्नी की लाश नहीं भारतीय लोकतंत्र और समाज की जड़ हो चुकी संवेदना का बोझ अपने कमजोर कंधों पर उठाए हुए थे।

मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप

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