केन्द्र सरकार ने एक बड़ा फैसला लेते हुए ओबीसी यानि अन्य पिछड़ा वर्ग को प्रोफेसर और एसोसिएट प्रोफेसर की नौकरी के लिए मिलने वाले आरक्षण के लाभ को समाप्त कर दिया है। अब इन पदों के लिए नौकरी पाने की इच्छा रखने वालों को सामान्य वर्ग के साथ कदमताल करना पड़ेगा। केन्द्र सरकार ने अचानक लिए इस फैसले को तत्काल प्रभाव से लागू भी कर दिया है।
बता दें कि इस फैसले से पहले प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और असिस्टेंट प्रोफेसर के पदों पर ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण निर्धारित था लेकिन यूजीसी द्वारा देश के सभी 40 केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में भेजे गए नोटिस के मुताबिक प्रोफेसर और एसोसिएट प्रोफेसर के पदों पर इस वर्ग को मिलने वाला आरक्षण तत्काल प्रभाव से हटा लिया गया है। अब इस वर्ग के अभ्यर्थियों को आरक्षण का लाभ केवल असिस्टेंट प्रोफेसर के पद के लिए मिलेगा। जबकि एससी (अनुसूचित जाति) और एसटी (अनुसूचित जनजाति) को पूर्व की भँति इन तीनों पदों पर आरक्षण का लाभ मिलता रहेगा।
ओबीसी को इन पदों पर आरक्षण मिलना चाहिए या नहीं या फिर आरक्षण सही है या गलत, यहाँ ये मुद्दा नहीं। मुद्दा ये है कि आखिर केन्द्र सरकार ने किस ‘मजबूरी’ या ‘दबाव’ में ये फैसला लिया? और लिया भी तो इतना अहम फैसला इस कदर ‘अचानक’ और ‘आनन-फानन’ में क्यों? बिना किसी चर्चा या रायशुमारी के लिए गए इस फैसले से ना केवल ओबीसी वर्ग में गलत संदेश जाएगा बल्कि इस फैसले के बाद केन्द्र सरकार पर ‘आरक्षणविरोधी’ होने के आरोप भी स्वाभाविक रूप से लगेंगे। और कुछ ना सही, केन्द्र सरकार को कम-से-कम इतने बड़े फैसले के पीछे रहा कोई एक बड़ा कारण तो बताना ही चाहिए।
‘मधेपुरा अबतक’ के लिए डॉ. ए. दीप