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अगले गैंगरेप पर अगली कविता लिखने तक

Nirbhaya

[निर्भया कांड केवल एक दुर्घटना नहीं, अमानवीयता की पराकाष्ठा थी। 16 दिसम्बर 2012 को देश की राजधानी दिल्ली में छह नरपशुओं ने चलती बस में 23 वर्षीया निर्भया का गैंगरेप किया। बर्बरता की सारी हदें पार कर दी थीं उन दरिंदों ने। उन सबने असंख्य जख्म दिए निर्भया को। फिर भी जीना चाहती थी वो। तेरह दिनों तक मौत से लड़ती रही वो जब तक कि एक-एक कर उसके सारे अंगों ने काम करना बंद नहीं कर दिया। 29 दिसंबर 2012 को हमेशा के लिए सो गई निर्भया। लेकिन सोने से पहले सारे देश को झकझोर दिया था उसने। ऐसी कोई आँख ना थी जिसमें आँसू और आक्रोश ना हो।

आज उस नृशंस घटना के तीन साल हो गए। लेकिन क्या बदला..? कुछ भी तो नहीं। 2012 बीतने को था जब निर्भया कांड हुआ। उसके बाद के तीन सालों में क्या हुआ ये जानना चाहिए आपको। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के मुताबिक राजधानी दिल्ली में 2013 में दुष्कर्म के 1441, 2014 में 1813 और इस साल यानि 2015 में 31 अक्टबूर तक 1856 मामले दर्ज हुए। बात यहीं खत्म नहीं होती। इन मामलों में 46 प्रतिशत दुष्कर्म पीड़ित नाबालिग हैं। कहाँ चली गई हमारी इंसानियत..? क्या कर रहा है हमारे देश का कानून..? क्यों इस कदर मर गया हमारी आँखों का पानी..? एक तरफ बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा और दूसरी तरफ हर रोज एक नई निर्भया..? क्या शर्म नहीं आनी चाहिए हमें..

जहाँ भी होगी निर्भया, आज भी बेचैन होगी। पेश है उस निर्भया को समर्पित उन्हीं दिनों लिखी गई डॉ. ए. दीप की बहुचर्चित कविता जिसका शीर्षक है अगले गैंगरेप पर अगली कविता लिखने तक]

कविता

अगले गैंगरेप पर अगली कविता लिखने तक

किसी ने तुम्हें वेदना कहा
किसी को तुम दामिनी दिखी
किसी ने निर्भया कहकर पुकारा
और तकनीकी शब्दावली में
गैंगरेप-पीड़िता थीं तुम…
जो भी नाम हो तुम्हारा
नमन करता हूँ तुम्हें
कि तुम जागी रहीं तब तक
जब तक बारी-बारी से
सो नहीं गए
तमाम अंग तुम्हारे।

आत्मा का आवरण ही नहीं
आत्मा भी लहूलुहान थी तुम्हारी
फिर भी
पूरे तेरह दिनों तक
तुम जीवित बैठी रहीं चिता पर
सोई नहीं
हमारे जागने से पहले।

मलाला का मलाल
अभी साल ही रहा था
कि जाना
छह-छह पशुओं ने मिलकर
बनाया तुम्हें शिकार
अपनी हवस का…
आज मैं लज्जित हूँ
अपने पुरुष होने पर
कि वे सारे पशु
पुरुष जाति के थे।

तुम निढ़ाल
नंगी पड़ी रहीं
सड़क के किनारे
पर कृष्ण के इस देश ने
देर कर दी
दो गज कपड़ा तक जुटाने में…
बस में उन पशुओं ने
जो तुम्हारे शरीर के साथ किया
वही दुष्कर्म करते रहे
तुम्हारे अस्तित्व के साथ
वहाँ से गुजरने वाले
न जाने कितने पिता, पुत्र, पति और भाई…
लज्जित हूँ
कि उन पशुओं के साथ-साथ
ये भी पुरुष जाति के थे।

यकीन मानो
उस दिन से आज तक
नजरें चुरा रहा हूँ
अपनी दो साल की बेटी से
और हो जाता हूँ कुंठित
जाकर पास पत्नी के
कि मैं
पुरुष जाति का हूँ।

तुम्हीं बताओ
अब कैसे करूँ पाठ
दुर्गा सप्तशती का
कैसे चढ़ाऊँ जल
पवित्र तुलसी को
कैसे दूँ बहन को
रक्षा का वचन
और कैसे दबाऊँ पैर
अपनी माँ के
कि मैं पुरुष जाति का हूँ।

लज्जित हूँ
कि पकड़े गए केवल वही छह
और बाहर हैं उनकी जाति के
बाकी हम सारे पशु।

लज्जित हूँ
कि हमारी सभ्यता के
हजारों साल होने को आए
पर हम अदद पशुता को भी
जीत नहीं पाए।

लज्जित हूँ
कि अब भी वीर्य बहता है
हमारे भीतर
और आदम की भूमिका
अब भी निभाएगा
आदमी ही।

लज्जित हूँ
कि तुम्हारे जगाने के बाद
जागकर ये कविता तो लिख दी…
अब शायद बैठ जाऊँगा
अगले गैंगरेप पर
अगली कविता लिखने तक।

डॉ. ए. दीप की कविता

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