बिहार में लालू-नीतीश की जोड़ी मोदी और शाह पर बहुत भारी पड़ी। चुनाव में ना मोदी का भाषण काम आया, ना शाह का मैनेजमेंट। प्रधानमंत्री ने चुनाव को “केन्द्र बनाम बिहार” बनाया, पूरे कैबिनेट को प्रचार में झोंका, अपने कद तक को दांव पर लगा दिया लेकिन हाथ कुछ ना आया। एनडीए को जैसी हार और महागठबंधन को जैसी जीत मिली उससे तमाम सर्वे और एग्जिट पोल धाराशायी हो गए।
बिहार चुनाव में महागठबंधन अत्यन्त भव्य और ऐतिहासिक जीत दर्ज करने जा रही है। उसे 243 में से 178 सीटें मिलने जा रही है। एनडीए महज 59 सीटों पर सिमटती दिख रही है। 80 सीटों के साथ राजद सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी है और इस तरह अपने राजनीतिक जीवन की निर्णायक लड़ाई लालू प्रसाद यादव ने बड़े शान से जीती है। ‘चेहरा’ और ‘सेहरा’ नीतीश कुमार का रहा लेकिन ‘मैन ऑफ द मैच’ लालू रहे, इसमें कोई दो राय नहीं।
भाजपा और उसके तमाम सहयोगी दलों ने पूरे चुनाव में नीतीश पर सबसे अधिक तंज इस बात के लिए कसा कि उन्होंने लालू और कांग्रेस (खासकर लालू) के साथ गठबंधन किया। नीतीश के घोर समर्थक भी दबी जुबान से कहते रहे कि लालू के साथ खड़ा होना उनकी राजनीतिक सेहत के लिए ठीक नहीं। उन्हें अकेले अपने दम पर चुनाव लड़ना चाहिए था। लेकिन बिहार की जनता ने जिस तरह अपने मत से महागठबंधन को निहाल किया है उससे तमाम आलोचक बस बगलें झाँक रहे हैं।
लालू, नीतीश और कांग्रेस ने टिकट बंटवारे से लेकर चुनाव-प्रचार तक बहुत समझदारी से काम लिया। एनडीए एक ओर मोदी के ‘आभामंडल’ से उपजे अतिआत्मविश्वास का शिकार हुआ तो दूसरी ओर सहयोगी दलों की खींचातानी में उलझा रहा। उधर महागठबंधन ने एक-एक कदम बड़ी सावधानी से रखा और लगातार ‘टीमवर्क’ किया। जेडीयू ने अपनी वो सीटें उदारता से कुर्बान कीं जिन पर राजद और कांग्रेस भाजपा से ज्यादा बेहतर लोहा ले सकती थीं। इसका लाभ सामने है। आज भले ही जेडीयू की अपनी सीटें कम हो गई हों लेकिन नीतीश की मुहर महागठबंधन की सारी 179 सीटों पर लगी हुई है।
2010 में जेडीयू की 115, राजद की 22 और कांग्रेस की 4 सीटें थीं। इस बार जेडीयू को 71, राजद को 80 और कांग्रेस को 27 सीटें मिल रही हैं। लालू-नीतीश का साथ पाकर मुरझायी कांग्रेस में एक बार फिर जान आ गई। एनडीए की बात करें तो भाजपा और उसके तमाम सहयोगी दल मिलकर भी अकेले लालू या अकेले नीतीश से पीछे हैं। भाजपा को छोड़ दें तो पासवान, मांझी और कुशवाहा की सीटें मिलाकर भी कल तक ‘बेचारी’ कही जाने वाली कांग्रेस तक से चौथाई से भी कम रह गई है। पिछली बार नीतीश के साथ भाजपा को 91 सीटें मिली थीं। इस बार उसका खाता 53 पर बन्द हो रहा है। लोजपा को 3, रालोसपा को 2 और हम को महज 1 सीट मिल रही हैं। पिछली बार भी लोजपा को 3 ही सीटें मिली थीं। हम और रालोसपा तब अस्तित्व में नहीं थीं। अन्य के खाते में 6 सीटें जाती दिख रही हैं। पूरा परिणाम आने पर ये सीटें हो सकता है और कम रह जाएं।
कोसी की बात करें तो यहाँ की 13 में से 12 सीटों पर महागठबंधन का कब्जा होने जा रहा है। आलगनगर से नरेन्द्र नारायण यादव, सुपौल से बिजेन्द्र प्रसाद यादव, सिमरी बख्तियारपुर से दिनेश चन्द्र यादव जीत का परचम फहरा रहे हैं। एनडीए की ओर से बस नीरज कुमार बबलू (छातापुर) ही मैदान में टिक पाए हैं। कोसी या सीमांचल में पप्पू फैक्टर की चर्चा पूरे चुनाव के दौरान रही। दावा तो पप्पू पूरे बिहार पर कर रहे थे। लेकिन उनके तमाम उम्मीदवार महागठबंधन के झोंके में उड़ गए। ज्यादातर सीटों पर उनके उम्मीदवार हजार का आंकड़ा छूने को भी तरस गए। महागठबंधन का साथ बीच राह में छोड़ने वाले मुलायम भी पूरे परिदृश्य से जैसे अदृश्य हो गए।
कुल मिलाकर ये कि बिहार ने केन्द्र के लिए भले ही नरेन्द्र मोदी को चुना हो लेकिन बिहार के लिए उसका ऐतबार अभी भी नीतीश कुमार पर है। ‘विकासपुरुष’ के काम को लोगों ने सम्मान दिया। ये साफ हो गया कि मतदान में महिलाओं की लम्बी कतार नीतीश के लिए थी। महादलितों ने भी मांझी से अधिक नीतीश को तरजीह दी। कमोबेश सभी जातियों के वोट महागठबंधन को मिले। मुस्लिम पूरी तरह उसके पक्ष में एकजुट रहे।
पूरे चुनाव में नीतीश ने जो शालीनता बरती उससे उनका कद राष्ट्रीय स्तर पर और बढ़ा है। लालू ने भी अपना खोया आत्मविश्वास इस चुनाव से हासिल किया है। कांग्रेस को भविष्य की राजनीति का सूत्र मिल गया। एनडीए के लिए अब बंगाल और उत्तर प्रदेश की डगर बहुत मुश्किल हो गई। मोदी और उनकी ‘अति आक्रामक’ टीम को अब समझना पड़ेगा कि सभाओं में भीड़ जुटना और भीड़ का वोट में तब्दील होना अलग-अलग बात है।
मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप