1964 में मार्टिन लूथर किंग जूनियर (अमेरिका), 1980 में अडोल्फो पेरेस एस्कुइवेल (अर्जेंटीना), 1989 में दलाई लामा (तिब्बत), 1991 में आंग सान सू की (बर्मा), 1993 में नेल्सन मंडेला (दक्षिण अफ्रीका), 2007 में अल गोर (अमेरिका) और 2009 में बराक ओबामा (अमेरिका) नोबेल शांति पुरस्कार से नवाजे गए। एक ही पुरस्कार से सम्मानित होने के अलावे भी इन सबमें एक समानता है और वो ये कि इन सभी को महात्मा गांधी के जीवन, उनके व्यक्तित्व और उनके विचारों ने प्रभावित किया था। क्या आपके मन में ये सवाल नहीं उठता कि इन सबके जिस ‘संघर्ष’ ने इन्हें नोबेल पुरस्कार तक पहुँचाया उस संघर्ष को ‘आकार’ देनेवाले गांधीजी को ही नोबेल नहीं मिला..? आगे चलकर 2014 में शांति का नोबेल भारत के कैलाश सत्यार्थी को मिला और उनके प्रशस्ति-पत्र में बाकायदा ये लिखा गया कि वे गांधी के मार्ग पर चले। कितने आश्चर्य की बात है कि जिस ‘गांधी’ के नाम के बिना एक नोबेल विजेता का ‘प्रशस्ति-पत्र’ पूरा नहीं होता उसी गांधी को नोबेल से वंचित रखा गया। इसे नोबेल की ‘भूल’ नहीं उसका ‘अपराध’ कहा जाना चाहिए।
हालांकि नोबेल कमिटी ने ये ‘अपराधबोध’ व्यक्त भी किया लेकिन गांधी की मृत्यु के 58 साल बाद। 2006 में दिए अपने सार्वजनिक वक्तव्य में नोबेल कमिटी ने कहा – “The greatest omission in our 106 year history is undoubtedly that Mahatma Gandhi never received the Nobel Peace prize. Gandhi could do without the Nobel Peace prize, whether Nobel committee can do without Gandhi is the question. (हमारे 106 साल के इतिहास में सबसे बड़ी चूक महात्मा गांधी को नोबेल शांति पुरस्कार नहीं दिया जाना है। गांधी तो बिना नोबेल पुरस्कार के रह सकते थे, पर बड़ा प्रश्न यह है कि क्या नोबेल शांति पुरस्कार कमिटी गांधी को बिना यह पुरस्कार प्रदान किए सहज है ?)”
नोबेल की ये ‘स्वीकारोक्ति’ गलत नहीं है। पूरी दुनिया जानती और मानती है कि महात्मा गांधी आधुनिक युग में अहिंसा और शांति के सबसे बड़े प्रतीक हैं। इतने बड़े कि गौतम बुद्ध और ईसा मसीह के बाद मानव-जाति पर ऐसा व्यापक प्रभाव अब तक नहीं देखा गया है। ऐसे गांधी को भला नोबेल की क्या जरूरत..? हाँ, उन्हें पाकर नोबेल का सम्मान जरूर और बढ़ जाता। लेकिन इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि दुनिया में किसी व्यक्ति को मिलने वाला यह सबसे बड़ा सम्मान है। ऐसे में ये प्रश्न उठना अत्यन्त स्वाभाविक है कि आखिर गांधीजी को क्यों नहीं… और वो भी एक बार नहीं, दो बार नहीं, पूरे पाँच बार नामांकित होने के बावजूद..!
जी हाँ, गांधीजी को नोबेल के लिए पूरे पाँच बार नामंकित किया गया था। 1937, 1938 और 1939 में लगातार तीन साल और इसके बाद भारत की स्वतंत्रता और विभाजन के वर्ष 1947 में उनका नामांकन हुआ। पाँचवीं बार उन्हें 1948 में नामांकित किया गया लेकिन नामांकन के महज चार दिनों के बाद उनकी हत्या हो गई।
बहुत दिनों तक माना गया कि गांधीजी को नोबेल देकर सम्भवत: नोबेल कमिटी अंग्रेजी साम्राज्य का ‘कोपभाजन’ नहीं बनना चाहती थी। लेकिन तत्कालीन दस्तावेजों से अब यह सत्य सामने आ चुका है कि नोबेल कमिटी पर ब्रिटिश सरकार की ओर से ऐसा कोई दबाव नहीं था। प्रश्न उठता है कि फिर उन्हें नोबेल देने के मार्ग में क्या कठिनाई थी..?
नोबेल पुरस्कार के लिए पहली बार गांधीजी का नाम नॉर्वे के एक सांसद ने सुझाया था लेकिन पुरस्कार देते समय उन्हें नज़रअंदाज कर दिया गया। नोबेल कमिटी के एक सलाहकार जैकब वारमुलर ने तब टिप्पणी की थी कि गांधी एक अच्छे, आदर्श और तपस्वी व्यक्ति हैं और सम्मान के योग्य हैं लेकिन ‘सुसंगत’ रूप से शांतिवादी नहीं हैं। जैकब के अनुसार गांधीजी को पता रहा होगा कि उनके कुछ अहिंसक आन्दोलन हिंसा और आतंक में बदल जाएंगे। ये बात उन्होंने 1920-1921 में गांधीजी द्वारा चलाए गए असहयोग आन्दोलन के संदर्भ में कही थी जब उत्तेजित भीड़ ने चौरीचौरा में एक पुलिस थाने को जला दिया था और कई पुलिसकर्मी मारे गए थे। करोड़ों की आबादी, सदियों का शोषण और एक भी ‘चौरीचौरा’ ना हो, ये कैसी अपेक्षा थी जैकब की..? ये गांधी ही थे कि भारत जैसे संवेदनशील और स्वाभिमानी देश में ‘चौरीचौरा’ की सैकड़ों-हजारों पुनरावृत्ति नहीं हुई।
खैर, जैकब की अगली टिप्पणी भी कम दिलचस्प नहीं थी कि गांधीजी की राष्ट्रीयता भारतीय संदर्भों तक सीमित रही। यहाँ तक कि दक्षिण अफ्रीका में उनका आन्दोलन भी भारतीय लोगों तक सीमित रहा। उन्होंने कालों के लिए कुछ नहीं किया जो भारतीयों से भी बदतर ज़िन्दगी गुजार रहे थे। कैसी विडम्बना है कि आगे चलकर मार्टिन लूथर किंग जूनियर, नेल्सन मंडेला और बराक ओबामा इस पुरस्कार से नवाजे गए और ये तीनों ना केवल ‘काले’ थे बल्कि गांधी को अपना आदर्श और पथ-प्रदर्शक मानते थे।
1947 में नोबेल के लिए कुल छह लोग नामांकित थे और उनमें एक नाम गांधीजी का था। लेकिन भारत-विभाजन के बाद अखबारों में छपे गांधीजी के कुछ (तथाकथित) ‘विवादास्पद’ बयानों को आधार बनाकर यह पुरस्कार उनकी जगह मानवाधिकार आन्दोलन ‘क्वेकर (Quakers)’ (जिसका प्रतिनिधित्व फ्रेंड्स सर्विस काउंसिल, लंदन और अमेरिकन फ्रेंड्स सर्विस कमिटी, फिलाडेल्फिया नाम की दो संस्था कर रही थी) को दे दिया गया।
1948 में खुद क्वेकर ने शांति के नोबेल के लिए गांधीजी का नाम प्रस्तावित किया। लेकिन इसे दु:संयोग की पराकाष्ठा ही कहा जाएगा कि नामांकन की आखिरी तारीख के महज दो दिन पूर्व गांधीजी की हत्या हो गई। इस समय तक नोबेल कमिटी को गांधीजी के पक्ष में पाँच संस्तुतियां मिल चुकी थीं। लेकिन तब समस्या यह थी कि उस समय तक मरणोपरांत किसी को नोबेल पुरस्कार नहीं दिया जाता था। हालांकि ये कानूनी गुंजाइश थी कि विशेष स्थिति में मरणोपरांत भी यह पुरस्कार दिया जा सकता है। लेकिन यहाँ भी एक समस्या थी कि पुरस्कार की रकम आखिर किसे दी जाय क्योंकि गांधीजी का कोई संगठन या ट्रस्ट नहीं था। यहाँ तक कि उनकी कोई जायदाद भी नहीं थी और ना ही इस संबंध में उन्होंने कोई वसीयत ही छोड़ी थी। हालांकि यह इतनी बड़ी समस्या नहीं थी कि इसे सुलझाया ही नहीं जा सके। ऐसे में यही कहा जा सकता है कि ‘इतिहास’ रचने के लिए जो ‘इच्छाशक्ति’ होनी चाहिए थी वो नोबेल कमिटी के पास थी ही नहीं। अंतत: 1948 में ये पुरस्कार किसी को नहीं दिया गया और नोबेल कमिटी ने कहा कि इसके लिए कोई ‘योग्य जीवित उम्मीदवार’ नहीं है। ‘योग्य जीवित उम्मीदवार’ ना होने की बात सीधे तौर पर गांधीजी के ना रहने से जुड़ी हुई थी, इसमें रत्ती भर भी संदेह नहीं है।
अगर 1948 में गांधीजी की हत्या नहीं हुई होती तो ये पुरस्कार उन्हें मिल गया होता और नोबेल पर वो ‘दाग’ लगता ही नहीं जिसे ‘भूल’ या ‘चूक’ की किसी ‘स्वीकारोक्ति’ से कभी मिटाया नहीं जा सकता।
मधेपुरा अबतक के लिए डॉ. ए. दीप