70 साल पहले साहित्यकारों की होली का रंग कुछ अलग ही हुआ करता। उन दिनों एक-दूसरे कवि की रचनाओं पर पैरोडी बनाने की प्रथा शुरू हुई थी। हुआ यह कि आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री ने राष्ट्रकवि दिनकर और महाकवि राकेश के अतिरिक्त खुद की कविता पर पैरोडी बनाकर अखबार में छपवा दी।
बता दें कि आचार्य शास्त्री ने अपनी रचना-
“मेरे पथ में ना विराम रहा…..” की पैरोडी बनाई….. “ना जर्दा रहा ना किमाम रहा, मेरा काम तमाम रहा…..।”
राष्ट्रकवि दिनकर की रचना-
“सुनू क्या सिंधु मैं गर्जन तुम्हारा
स्वयं युग धर्म का हुंकार हूं मैं…..”
इस पर शास्त्री जी ने इस तरह पैरोडी बनाई-
सुनू क्या सिंधु मैं गर्जन तुम्हारा
सिमरिया गांव का भूमिहार हूं मैं
इस तरह की पैरोडी जब अखबारों में छपी तो दिनकर जी गुस्से में उस शख्स को खोजने शास्त्री जी के साथ प्रेस की ओर चले और प्रेस वाले ने साथ में शास्त्री जी को देखते ही बोले- मैं नाम नहीं बता सकता। इस पर आचार्यश्री ने राष्ट्रकवि की ओर मुखातिब होकर यही कहा….. “बताइए मुझे भी नहीं छोड़ा… कोई बात नहीं… होली का मौका है… आनंद लीजिए।”
अब तो कोरोना होली के आनंद को भूलुंठित करने में लग गया है। कोरोना के पहले तक मधेपुरा में भी होली के अवसर पर कभी साहित्यिक, कभी इप्टा और कभी पतंजलि के बैनर तले सुकवि डॉ.विनय कुमार चौधरी द्वारा डॉ.भूपेन्द्र नारायण यादव मधेपुरी, डॉ.सिद्धेश्वर कश्यप, डॉ.अमोल राय, फर्जी कवि डॉ.अरुण कुमार, प्रो.सचिन्द्र महतो, डॉ.आलोक कुमार, निराला जी, मयंक जी, संतोष कुमार सिन्हा आदि पर शिष्ट ढंग से विभिन्न विशेषों के साथ तुकबंदियाँ बना-बनाकर तरन्नुम में सुनाया जाता रहा, लोग आनंद लेते रहे…. जिसे कोई बुरा नहीं मानते थे। कई बार तो डॉ.मधेपुरी को “मूर्खाधिराज” की उपाधि बकायदा होली पर दी जाती रही और वे गौरवान्वित होते रहे….. कभी वे आक्रोशित होते नहीं दिखे। इस वर्ष कोरोना की वजह से अब होली का माहौल बदल गया है और होली की मस्ती में भी कमी आने लगी है।